चिट्ठियाँ इस जमाने की
बड़ी अजीब सी हो गई हैं
आदत रही नहीं
पड़े पड़े पता ही नहीं चला एक दो करते
बहुत बड़ा एक कूड़े का ढेर हो गई हैं
कितना लिखा क्या क्या लिखा
सोच समझ कर लिखा तौल परख कर लिखा
किया क्या जाये अगर पढ़ने वाले को ही
समझ में नहीं आ पाये
कि
उसी के लिये ही लिखी गई हैं
लिखने वाले की भी क्या गलती
उससे उसकी नहीं बस अपनी अपनी ही
अगर कही गई है
अगर कही गई है
ऐसा भी नहीं है कि पढ़ने वाले से पढ़ी ही नहीं गई हैं
आखों से पढ़ी हैं मन में गड़ी हैं
कुछ नहीं मिला समझने को तो पानी में भिगो कर
निचोड़ी तक गई हैं
उसके अपने लिये कुछ नहीं मिलने के कारण
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है
अपनी अपनी कहने की
अब एक आदत ही हो गई है
चिट्ठियाँ हैं घर पर पड़ी हैं बहुत हो गई हैं
भेजने की सोचे भी कोई कैसे ऐसे में किसी को
अब तो बस उनके साथ ही
रहने की आदत सी हो गई है ।