उलूक टाइम्स: बैचेनी
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शनिवार, 7 नवंबर 2015

किसी के पढ़ने या समझने के लिये नहीं होता है लक्ष्मण के प्रश्न का जवाब होता है बस राम ही कहीं नहीं होता है

क्या जवाब दूँ
मैं तुझे लक्ष्मण
मैं राम होना भी
नहीं चाहता हूँ
आज मेरे अंदर
का रावण बहुत
विकराल भी
हो  गया है
और मुझे राम से
डर लगने लगा है
राम आज मुझे
पल पल हर पल
नोच रहा है
किस से कहूँ
नहीं कह सकता
राम राम है
जय श्री राम है
मेरा ही राम है
लक्ष्मण तुम को
शक्ति लगी थी
और तुम्हारे पास
प्रश्न तब नहीं थे
अब हैं बहुत हैं
लक्ष्मण तुम और
तुम्हारे जैसे और
कई अनगिनत
अभिमन्यू हैं
जो तीर नहीं हैं
पर चढ़ाया गया है
जिन्हे कई बार
गाँडीव पर अर्जुन ने
तुम्हें समझा बुझा कर
तुम बने भी हो तीर
चले भी हो तीर
की तरह कई बार
इतना बहुत है कि
आज के जमाने में
कोई ना मरता है
ना घायल होता है
तुम्हारे जैसे तीरों से
कायरों के टायरों पर
सड़क के निशान
नहीं पड़ते हैं लक्ष्मण
रोज बहुत लोगों के
अंदर कई राम मरते हैं
कोई नहीं बताता है
किसी से कुछ नहीं
कह पाता है
बहुत बैचेनी होती है 

और तुम भी पूछ बैठे
ऐसे में ऐसा ही कुछ
और पता चला
आजकल राम
तुम्हारे साथ भी
वही करता है जो
सभी के साथ
उसने हमेशा से किया है
सभी को राम से प्रेम है
सभी को जय श्री राम
कहना अच्छा लगता है
कोई खेद नहीं होता है
राम राम होता है लक्ष्मण
प्रश्न करना हमेशा
दर्दमय होता है
उत्तर देना उस से भी
ज्यादा दर्द देता है
जब प्रश्न अलग होता है
राम अलग होता है
और पूछने वाला
लक्ष्मण होता है ।

 चित्र साभार: forefugees.com

बुधवार, 30 सितंबर 2015

निराशा सोख ले जाते हैं कुछ लोग जाते जाते नहीं लौटने का बताकर भी


आयेंगे 
उजले दिन जरुर आएँगे 
उदासी दूर कर खुशी खींच लायेंगे 
कहीं से भी अभी नहीं भी सही कभी भी 

अंधेरे समय के 
उजली उम्मीदों के कवि की उम्मीदें 
उसकी अपनी नहीं 
निराशाओं से घिरे हुओं के लिये
आशाओं की 
उसकी अपनी बैचेनी की नहीं 
हर बैचेन की
बैचेनी की 

निर्वात पैदा ही नहीं होने देती हैं
कुछ हवायें 
फिजांं से कुछ इस तरह से चल देती हैं 
हौले से जगाते हुऐ आत्मविश्वास 
भरोसा टूटता नहीं है जरा भी 
झूठ के
अच्छे समय के झाँसों में आकर भी 

कलम एक की
बंट जाती है एक हाथ से कई सारी 
अनगिनत होकर कई कई हाथों में जाकर भी 

साथी होते नहीं
साथी दिखते नहीं 
पर समझ में आती है थोड़ी बहुत 
किसी के साथ चलने की बात 
साथी को
पुकारते हुऐ 
कुछ ना बताकर भी

मशालें बुझते बुझते
जलना शुरु हो जाती हैं 
जिंदगी हार जाती है
जैसा महसूस होने से पहले 
लिखने लगते हैं लोग थोड़ा थोड़ा उम्मीदें 
कागजों के कोने से कुछ इधर कुछ उधर 
बहुत नजदीक पर ना सही 
दूर कहीं भी
नहीं कुछ भी कहीं भी
सुनाकर भी। 

चित्र साभार: www.clker.com

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

अब खुश नजर नहीं आता


आँखों में इतनी धुंध छायी है कि बस
आइने में अपना अक्स नज़र नहीं आता ।

आने वाले पल के मंज़र में खोये हो तुम
मुझे तो बीता कल नज़र नहीं आता ।

रात की बात करते हो सोच लिया करना
मुझे दिन के सूरज में नज़र नहीं आता ।

तेरी बैचेनी को महसूस तो किया है मैने
चाहता भी हूं पर देखा ही नहीं जाता ।

भटकने लगे हो अब कहते कहते भी तुम
कहना आता है तुमसे कहा ही नहीं जाता ।

अपनी रोनी सूरत से ऊब चला हूं अब
तुम खिलखिलाते रहो मुझे रोना नहीं आता ।

कैसे कह दूं तमन्ना है अब सिर्फ मर जाने की
कुछ सुहानी यादें जिनको छोडा़ ही नहीं जाता ।

अपने वीरान शहर की बात कुछ करने की नहीं अब
बसने तेरे शहर आ भी जाता पर अब नहीं आता ।

बस इंतज़ार है अब तेरे इस शहर से गुज़रने का
तब ना कहना तुम्हें तो ठहरना ही नहीं आता ।