डबलरोटी
और
केक
और
केक
की
लड़ाई
लड़ने वालों
लड़ाई
लड़ने वालों
की
सोचते सोचते
सोचते सोचते
तेरी
खुद की सोच
क्यों
घूम जाती है
घूम जाती है
रोटी
मिल तो रही है तुझको
क्या
वो भी तुझसे
वो भी तुझसे
नहीं
खाई जाती है
खाई जाती है
कल
लिखवा गया
कुछ
उस्तादों के उस्ताद
और
उसके धूर्त शागिर्दों पर
उस्तादों के उस्ताद
और
उसके धूर्त शागिर्दों पर
आज
बाबाओं और भक्तों पर
कुछ
लिखने की
तेरी
तेरी
फरमाईश
सामने से आ जाती है
सामने से आ जाती है
बदल रही है
दुनियाँ
बड़ी तेजी से
बड़ी तेजी से
घर घर में
खुलती
बाजार पर
तेरी नजर
क्यों
फिर भी नहीं जाती है
तेरी नजर
क्यों
फिर भी नहीं जाती है
आदमी
बेच रहा है
आज आदमी को
इंसानियत
सबसे
आसानी से
जगह जगह
बेची जाती है
बाबा चेले गुरु शिष्य
हुआ करते होंगे
किसी जमाने
की
परम्पराऐं
परम्पराऐं
आज
हर किसी की
नजर
हजारों करोड़ों
हजारों करोड़ों
की
सम्पति होने
सम्पति होने
पर ही
भक्तिभाव
और
भक्तिभाव
और
चमक दिखाती है
ग्रंथ
श्रद्धा के प्रतीक
हुआ करेंगे
सोच कर
सोच कर
लिख गये योगी
देखते
आज सामने
से ही अपने
मनन चिंतन
की
की
सीमाओं को तोड़कर
कैसे पाठकगण
उपभोक्ता
और
और
कल्पनाऐं
उपभोग
उपभोग
की
वस्तु हो जाती हैं
वस्तु हो जाती हैं
अच्छी सोच की
कोपलें भी हैं
बहुत सी डालों पर
जैसे एक तेरी
हर जगह अलग अलग
रोज ही खिलती हैं
और
और
रोज के रोज ही
मुरझा भी जाती हैं
‘उलूक’ देखता है
सब कुछ अंधेरे में
रोज का रोज
लिखना लिखाना
उसके लिये
बस एक
बस एक
आवारगी
हो जाती है ।
हो जाती है ।
चित्र साभार: http://www.illustrationsof.com/