उलूक टाइम्स: वर्णान्ध
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शनिवार, 10 नवंबर 2018

लिखा हुआ रंगीन भी होता है रंगहीन भी होता है बस देखने वाली आँखों को पता होता है

कुछ
रंगीन
लिखना

ज्यादा
ठीक
होता है
शायद

रंगहीन
कुछ
लिखने से

रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी

वो रंग

जो
बन भी
नहीं पाते हैं

कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से

किसलिये लिखने ?

आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी

तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है

कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं

हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा

वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना

या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है

लेकिन
आँखों को

अपने
मन से
अपने
हिसाब से

देख लेना
सिखा दिया
गया होता है

समय
को पता
नहीं होता है

अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं

अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं

हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है

रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है

‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के

काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी

रंगहीन
लिखते
चले जाने से

रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है

वर्णान्ध होना

रोग भी होता है

रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।


चित्र साभार: https://www.tolerance.org/