उलूक टाइम्स: काला
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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

लिखना फिर शुरु कर ‘उलूक’ लिखे पर लम्बाई के हिसाब से भुगतान किये जाने की खबर आ रही है

 

लिखना
और
सुबह सवेरे
समय पर उठना
एक जैसा हो लिया है 

कुछ
समय से
आदतें सारी
यूँ ही
खराब होती जा रही है 

सारा
बेतरतीब
वहीं का वहीं रह गया है 

सपना
आसमान का एक
जमीं पर खुद सो लिया है 

कूड़े के डिब्बे को
रोज खाली करने की
याद
नहीं आ रही है 

सफेद में काला
और
काले में
कुछ सफेद बो लिया है 

सफेद पन्नों की देखिये
कैसी
मौज होती जा रही है

स्याही ने खुद को
कुछ सफेद सा रंग लिया है 
सारी सफेदी
सफेदों के सामने से
सफेद सफेद चिल्ला रही है 

लिखना लिखाना
अँधेरे में खुद ही खो लिया है 
स्याही काली
अपने काले शब्दों को पी जा रही है 

शब्दों को पता नहीं
क्यों इतना नशा हो लिया है 
स्याही
कलम के पेट में
अलग से लड़खड़ा रही है 

लिखना भूल जाना
बहुत अच्छा है
कोई भूल ही गया है 

भरे कूड़े के
डब्बे के अंदर से
घमासान
होने की आवाजें आ रही हैं 

फीते से
कलम के साथ पन्ने
कई सारे
नाप लिया है ‘उलूक’ 

लिखे लिखाई की
प्रति मीटर लम्बाई
के हिसाब से
भुगतान किये जाने की
खबर आ रही है। 

चित्र साभार: https://www.smashingmagazine.com/

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

बधाई बधाई तेरा घर टूटने की

बधाई बधाई हो रही है तेरा घर टूटने की और तेरे लिये वो ही कोई मरा जैसा है
तू जानता है ‘उलूक’ चीख चिल्ला गला फाड़ कर
इस नक्कारकाने में अपनी तूती बजाने के लिये मजबूत गिरोह का बाजा खरीदना होता है



तेरे सामने तेरे घर को तोड़ कर
एक टुकड़ा देखता क्यों नहीं है फैंका नहीं है
किस लिये रोता है 

गुलाब की कलम है
माली नहीं भी है तो क्या हुआ रोपने के लिये
सोच ले कोई जरूर होगा मवाली सही कहीं ना कहीं
उसके सामने जा कर दीदे फाड़ लेना पूछ लेना
क्यों नहीं बोता है

घर तेरा टूट गया क्या हुआ
देखता क्यों नहीं मोहल्ले के दो चार और घर मिला कर
नया घर बनाने का
सरकारी मजमा ढोल नगाड़े बजाता हुआ
अखबार की खबर में सुबह सुबह रूबरू
आजकल रोज का रोज तो होता है

तुझसे नहीं पूछा
नयी बोतल में पुरानी शराब ही नहीं
कुछ और भी मिलाया है
कॉकटेल कहते हैं
इतना तो नहीं पीने वाले को भी
पता होता है
गम मत कर यहाँ का दस्तूर है यहाँ यही होता है

मरीज हस्पताल की बात चिकित्सक से काहे पूछनी
दुकाने बहुत हैं उनके सरदार को
ज्यादा मालूम होता है

स्कूल की बात मास्टर से काहे पूछनी
झाडू देने वाला रोज सुबह का कूड़ा
रोज निकालता है
पढ़ने लिखने वाले के बारे में उसको ज्यादा पता होता है

तेरे शहर के लोग शरीफ हैंं
इधर उधर से देखे हुऐ बहुत कुछ को बताने का
उनको ज्यादा अनुभव होता है

कबूतरों के बारे में काहे कौओं से पूछना
कालों को सफेदों के बारे में
कौन सा सबसे ज्यादा पता होता है

बधाई बधाई हो रही है तेरा घर टूटने की
 तेरे लिये वो ही कोई मरा जैसा है तू जानता है

‘उलूक’
चीख चिल्ला गला फाड़ कर
इस नक्कारकाने में अपनी तूती बजाने के लिये
सबसे मजबूत गिरोह का बाजा खरीदना होता है।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/




अगर आप बुद्धिजीवी कैटेगेरी में आते है अगर आप अल्मोड़ा से हैं और अगर आप बेवकूफ नहीं हैं तो कृपया लिखे को ना पढ़े ना समझने की कोशिश करें ना लाईक करें ना टिप्पणी देने का प्रयत्न करें। ये बस एक वैधानिक चेतावनी है। ये कुमाउँ विश्वविद्यालय से अल्मोड़ा को अलग करने के विरोध की बकवास है।

शनिवार, 10 नवंबर 2018

लिखा हुआ रंगीन भी होता है रंगहीन भी होता है बस देखने वाली आँखों को पता होता है

कुछ
रंगीन
लिखना

ज्यादा
ठीक
होता है
शायद

रंगहीन
कुछ
लिखने से

रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी

वो रंग

जो
बन भी
नहीं पाते हैं

कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से

किसलिये लिखने ?

आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी

तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है

कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं

हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा

वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना

या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है

लेकिन
आँखों को

अपने
मन से
अपने
हिसाब से

देख लेना
सिखा दिया
गया होता है

समय
को पता
नहीं होता है

अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं

अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं

हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है

रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है

‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के

काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी

रंगहीन
लिखते
चले जाने से

रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है

वर्णान्ध होना

रोग भी होता है

रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।


चित्र साभार: https://www.tolerance.org/

मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

हर सफेद बोलने वाला काला एक साथ चौंच से मिला कर चौंच खोलता है

गरम
होता है
उबलता है
खौलता है

कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है

अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है

तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की

सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार

बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है

नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है

नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ

नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है

‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के

खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज

इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।

चित्र साभार: Daily Mail

सोमवार, 31 जुलाई 2017

काला पूरा काला सफेद पूरा सफेद अब कहीं नहीं दिखेगा

शतरंज की
काली सफेद
गोटियाँ
अचानक
अपने डिब्बे
को छोड़ कर
सारी की सारी
बाहर हो गयी हैं

दिखा रही हैं
डिब्बे के
अन्दर साथ
रहते रहते
आपस में
हिल मिल कर
एक दूसरे में
खो गयी हैं

समझा
रही हैं
तैयार हैं
खुद ही
मैदान में
जाने के लिये

आदेशित
नहीं की
गयी हैं
विनम्र
होते होते
खुद ही
निर्देशित
हो गयी हैं

कुछ काली
कुछ सफेद के
साथ इधर
की हो गयी हैं
कुछ सफेद
कुछ काली के
साथ उधर
को चली गयी हैं

अपने खेल
गोटियाँ अब
खुद खेलेंगी
चाल चलने
वालों को
अच्छी तरह से
समझा गयी हैं

घोड़े ऊँठ
और हाथी
पैदल वजीर
के साथी
सोचना छोड़ दें
पुराना खेल
खेलने के आदी

हार जीत
की बात
कोई नहीं
करेगा
भाईचारे के
खेल का
भाईचारा
भाई का भाई
अपने अखबार में
कम्पनी के लिये नहीं
खिलाड़ियों के
लिये ही
बस और बस
लिखता
हुआ दिखेगा

खेल का
मैदान भी
काले सफेद
खानों में
नहीं बटेगा

आधे
सफेद खाने
के साथ आधा
काला खाना भी
बराबरी के साथ
कंधे से कंधा
मिलाता
हुआ दिखेगा

 जातिवाद
क्षेत्रवाद
आतंकवाद
इसी तरह से
खेल खेल में
शतरंज के
खेल को
उसी की
गोटियों के हाथ
स्वतंत्रता के साथ
खेलने देने के हक
दे डालने के बाद
से मिटता हुआ
अपने आप दिखेगा

‘उलूक’
समझ ले
हिसाब किताब
पीछे पीछे कुछ भी
नहीं अब चलेगा

इस सब
के बाद
काला काले
के लिये ही
और सफेद
सफेद के
लिये ही नहीं

काला सफेद
के लिये और
सफेद काले
के लिये भी
आसानी से
सस्ते दामों में
खुली बाजार में
बिकता हुआ दिखेगा ।

चित्र साभार: 123RF.com

रविवार, 11 जून 2017

सीखिये नस दबाना और पाइये जवाब क्यों दिखता है सफेद कौए का काले कौए के सर के ऊपर हाथ

कृष्ण अर्जुन
उपदेश
और गीता
आज भी हैं
 बस गीता
किताब
नहीं रही
अखबार
हो गई है

बुद्धिजीवियों
के ऊपर बैठा
हुआ कौआ
का का करता है

कौए को
कृष्ण की
नस का
पता रहता है

अखबार
गीता है
और उसपर
छपी खबर
श्लोक होती है

जिनको नहीं
पता है वो
समझ लें
और
हनुमान
चालीसा पढ़ना
छोड़ कर
रोज सुबह का
अखबार बाँच लें

चोरी करें
डाका डालें
कुर्सी में
बैठने के लिये

ऊपर कहीं
दूर से दबाव
डलवालें

वहाँ भी कृष्ण हैं
गीता बाँचते हैं
खबर बहुत
जरूरी होती है
नस दबाने
के बाद ही
सीढ़ी पूरी
होती है

सफेद कौआ
काले कौए की
वकालत करता
नजर आता है

अखबार कौए
के रंग की बात
पता नहीं क्यों
खा जाता है

नस दबाना
अब किसी
और जगह
सिखाया
जाने वाला है

जगह नहीं
मिल रही है
कहीं भेी
अभी तक
ये अलग
बात है
और
छोटा सा
बबाला
आने वाला है

समय बहुत
अच्छा है
बस नस
दबा कर
कुछ भी
कहीं भी
कैसा भी
काम किसी
से भी करवाना

आधार कार्ड
के साथ
हो जाने
वाला है

ठंड रखना
जरूरी है

फर्जी की
तरक्की का
सरकारी आदेश
जल्दी ही
आने वाला है

‘उलूक’
अखबार
सरकार
और फर्जी
मत सोच

आराम से
किसी भी
ईमानदार
की
ईमानदारी
 की
नींव खोद ।

चित्र साभार: Dreamstime.com

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

बुधवार, 4 मार्च 2015

रंग बहुत हो गये इधर उधर रहने दे इस बार मत उड़ा बस रंग बिरंगे चुटकुले कुछ रोज सुना

रंग भरिये प्रतियोगिता 
राजा और रानी
राजकुमार और
राजकुमारी
चंपकवन और
खरगोश
शेर लोमड़ी
जंगल पेड़ पौंधे
और कुछ
खानाबदोश
कितना कुछ
है सतरंगी
चल शुरु हो जा
खोज और
कुछ नया खोज
बाहर निकल
बीमार मन
की कमजोर
दीवारों को
मत खोद
बना कोई
मजबूत लेप
सादा सफेद
गीत भी गा
अपने फटे हुऐ
गले और
राग तरन्नुम
को मत देख
मुस्कुरा
बेनूर हंसी
को छिपाने के
प्रयास में होंठों
को मत हिला
जरा थोड़ा जोर
से तो बड़बड़ा
सुना है
इस बार भी
हमेशा के जैसा
रंगो का त्योहार
आ गया है
होली खेल
रंग बिरंगे
सपने देख
बेच सकता है
तो बेच
झूठ खरीद
सच में लपेट
और झूठ झूठ
में ही सही बेच
खुश रह
होली खेल
रंग उड़ा
रंगीन बातों
पर मत जा
अपनी फटी
धोती उठा
हजार करोड़ का
टल्ला लगा
इधर उधर
मत देख
गाना गा
बिना पिये
जमीन पर
लोट लगा
बहुत साल
खेल लिया
‘उलूक’
रंगो को मिला
मिला कर
रंग बिरंगी होली
कभी एक रंग
की भी खेल
किसी को
हरा लगा
किसी को
गेरुआ चिपका
बदल दे टोपी
इस बार सफेद
काली करवा
बहुत हो गया
बहुत हो गया
सफेद सफेद
झका झक सफेद
कर दे उलट फेर
नयी कर कुछ
नौटंकी
जी भर कर
चुटकुले सुना
दे दना दन
एक के बाद एक
पीटने के लिये
खड़ा है तालियाँ
डेढ़ सौ करोड़
का देश
बुरा सोच
बुरा कर
बुरा ना मानो
होली है
का ट्वीट
कर तुरंत
उसके बाद
एक संदेश ।
चित्र साभार: cliparts.co

सोमवार, 9 जून 2014

दुनियाँ है रंग अपने ही दिखाती है

भैंस के बराबर
काले अक्षरों को
रोज चरागाह पर
चराने की आदत
किसी को हो जाना
एक अच्छी बात है
अक्षरों के साथ
खेलते खेलते
घास की तरह
उनको उगाना
शुरु हो जाना
बहुत बुरी बात है
बिना एक सोच के
खाली लोटे जैसे
दिमाग में शायद
हवा भी रहना
नहीं चाहती है
ऐसे में ही सोच
खाली में से
खाली खाली ही
कुछ बाहर निकाल
कर ले आती है
उसी तरह से जैसे
किसी कलाकार की
कूँची किसी एक को
एक छोटा सा झाड़ू
जैसा नजर आती है
साफ जगह होने से
कुछ नहीं होता है
झाड़ने की आदत
से मजबूर सफाई
को तक बुहारना
शुरु हो जाती है
बहुत कुछ होता है
आसपास के लोगों
के दिमाग में
और हाथ में भी
पर मंद बुद्धी का
क्या किया जाये
वो अपनी बेवकूफियों
के हीरों के सिवाय
कुछ भी देखना
नहीं चाहती है
और क्या किया जाये
‘उलूक’ तेरी इस
फितरत का जो
सोती भी है
सपने भी देखती है
नींद में होने के
बावजूद आँखे
पूरी की पूरी खुली
नजर भी आती हैं ।

गुरुवार, 31 मई 2012

निठल्ले का सपना

कौआ अगर
नीला होता
तो क्या होता

कबूतर भी
पीला होता
तो क्या होता

काले हैं कौए
अभी भी
कुछ नया कहाँ
कर पा रहे हैं

कबूतर भी
तो चिट्ठियों 

को नहीं ले
जा रहे हैं

एक निठल्ला
इनको कबसे
गिनता हुवा
आ रहा है

मन की कूँची
से अलग
अलग रंगों
में रंगे
जा रहा है

सुरीली आवाज
में उसकी जैसे
ही एक गीत
बनाता है

कौआ
काँव काँव
कर चिल्ला
जाता है

निठल्ला
कुढ़ता है
थोड़ी देर
मायूस हो
जाता है

जैसे किसी
को साँप
सूँघ जाता है

दुबारा कोशिश
करने का मन
बनाता है

कौए को छोड़
कबूतर पर
ध्यान अपना
लगाता है

धीरे धीरे तार
से तार जोड़ता
चला जाता है

लगता है जैसे
ही उसे कुछ
बन गयी
हो बात

एक सफेद
कबूतर
उसके सर
के ऊपर से
काँव काँव कर
आसमान में
उड़ जाता है।