कुछ
रंगीन
लिखना
ज्यादा
ठीक
होता है
शायद
रंगहीन
कुछ
लिखने से
रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी
वो रंग
जो
बन भी
नहीं पाते हैं
कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से
किसलिये लिखने ?
आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी
तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है
कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं
हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा
वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना
या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है
लेकिन
आँखों को
अपने
मन से
अपने
हिसाब से
देख लेना
सिखा दिया
गया होता है
समय
को पता
नहीं होता है
अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं
अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं
हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है
रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है
‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के
काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी
रंगहीन
लिखते
चले जाने से
रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है
वर्णान्ध होना
रोग भी होता है
रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।
चित्र साभार: https://www.tolerance.org/
रंगीन
लिखना
ज्यादा
ठीक
होता है
शायद
रंगहीन
कुछ
लिखने से
रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी
वो रंग
जो
बन भी
नहीं पाते हैं
कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से
किसलिये लिखने ?
आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी
तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है
कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं
हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा
वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना
या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है
लेकिन
आँखों को
अपने
मन से
अपने
हिसाब से
देख लेना
सिखा दिया
गया होता है
समय
को पता
नहीं होता है
अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं
अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं
हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है
रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है
‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के
काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी
रंगहीन
लिखते
चले जाने से
रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है
वर्णान्ध होना
रोग भी होता है
रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।
चित्र साभार: https://www.tolerance.org/