कविता करते करते निकल पड़ा
एक कवि हिमालयों से
हिमालय की कविताओं को बोता हुआ
हिमालयी पहाड़ों केबीच से
छलछल करती नदियों के साथ
लम्बे सफर में दूर मैदानों को
साथ चले
उसके विशाल देवदार के जंगल उनकी हरियाली
उसके विशाल देवदार के जंगल उनकी हरियाली
साथ चले
उसके गाँव के टेढ़े मेढे रास्ते
उसके गाँव के टेढ़े मेढे रास्ते
साथ चली
उसके गोबर मिट्टी से सनी
उसके गोबर मिट्टी से सनी
गाय के गोठ की दीवारों की खुश्बूएं
और
वो सब कुछ
वो सब कुछ
जिसे समाहित कर लिया था उसने
अपनी कविताओं में
ब्रह्म मुहूर्त की किरणों के साथ
चाँदी होते होते
गोधूली पर सोने में बदलते
हिमालयी बर्फ के रंग की तरह
आज सारी कविताएं
या तो बेल हो कर चढ़ चुकी हैं आकाश
या बन चुकी हैं छायादार वृक्ष
बस वो सब कहीं नहीं बचा
जो कुछ भी रच दिया था उसने
अपनी कविताओं में
आज भी लिखा जा रहा है समय
पर कोई कैसे लिखे तेरी तरह का जादू
वीरानी देख रहा समय वीरानी ही लिखेगा
वीरानी को दीवानगी ओढ़ा कर लिखा हुआ भी दिखेगा
पर उसमें तेरे लिखे का इन्द्रधनुष कैसे दिखेगा
जब सोख लिये हों सारे रंग आदमी की भूख ने
‘सुमित्रानन्दन पन्त’
हिमालय में अब सफेद बर्फ
दूर से भी नजर नहीं आती है
काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद
रात भर अब नींद नहीं आती है
पुण्यतिथी पर नमन और श्रद्धाँजलि
अमर कविताओं के रचयिता को ‘उलूक’ की ।