उलूक टाइम्स: श्रद्धांजलि
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रविवार, 23 सितंबर 2018

श्रद्धांजलि डाo शमशेर सिंह बिष्ट

1947- 22/09/2018

शब्द
नहीं होते हैं

सब कुछ
बताने के लिये
किसी के बारे में

थोड़ा
कम पड़ जाते हैं

थोड़े से
कुछ लोग

भीड़ में
होते हुऐ भी
भीड़
नहीं हो जाते हैं

समुन्दर के
पानी में
मिल चुकी

बूँद
होने के
बावजूद भी

दूर से
पहचाने जाते हैं

जिंदगी भर
जन सरोकारों
के लिये

संघर्ष करने
वालों के चेहरे ही

कुछ
अलग हो जाते हैं

अपने
मतलब के लिये
भीड़ खरीद/
बेच/ जुटा कर

कहीं से कहीं
पहुँच जाने वाले
नहीं पा सकते हैं

वो मुकाम

जो

कुछ लोग
अपनी सोच
अपने सत्कर्मों से
अपनी बीनाई
से पा जाते हैं

एक
शख्सियत

यूँ ही नहीं
खींचती है
किसी को
किसी
की तरफ

थोड़े से
लोग ही
होते हैं
कुछ अलग

बस
अपने लिये

नहीं जीने
वाले
ऐसे ही लोग

जब
महफिल से
अचानक

उठ कर
चले जाते हैं

सरकारी
अखबार
वालों को भी

कुछ
लिखने लिखाने
की याद
दिला कर जाते हैं

बहुत कमी
खलेगी आपकी

'डा0 शमशेर सिंह बिष्ट' 

कुछ
सरोकार
रखने वालों
को हमेशा

अल्विदा नमन
विनम्र श्रद्धांजलि

‘उलूक’
कुछ लोग
बना ही
जाते हैं
कुछ रास्ते
अलग से

जिसपर
सोचने वाले
सरोकारी

हमेशा ही

आने वाले
समय में

आते हैं
और जाते हैं । 


गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

हिमालय में अब सफेद बर्फ दूर से भी नजर नहीं आती है काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद रात भर अब नींद नहीं आती है


कविता करते करते निकल पड़ा 
एक कवि  हिमालयों से
हिमालय की कविताओं को बोता हुआ 

हिमालयी पहाड़ों केबीच से 
छलछल करती नदियों के साथ 
लम्बे सफर में दूर मैदानों को 

साथ चले
उसके विशाल देवदार के जंगल उनकी हरियाली 
साथ चले
उसके गाँव के टेढ़े मेढे‌ रास्ते 
साथ चली
उसके गोबर मिट्टी से सनी 
गाय के गोठ की दीवारों की खुश्बूएं 
और
वो सब कुछ 
जिसे समाहित कर लिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

ब्रह्म मुहूर्त की किरणों के साथ 
चाँदी होते होते 
गोधूली पर सोने में बदलते 
हिमालयी बर्फ के रंग की तरह 
आज सारी कविताएं 
या तो बेल हो कर चढ़ चुकी हैं आकाश 
या बन चुकी हैं छायादार वृक्ष 
बस वो सब कहीं नहीं बचा 
जो कुछ भी रच दिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

आज भी लिखा जा रहा है समय 
पर कोई कैसे लिखे तेरी तरह का जादू 
वीरानी देख रहा समय वीरानी ही लिखेगा 
वीरानी को दीवानगी ओढ़ा कर लिखा हुआ भी दिखेगा 
पर उसमें तेरे लिखे का इन्द्रधनुष कैसे दिखेगा 
जब सोख लिये हों सारे रंग आदमी की भूख ने 

‘सुमित्रानन्दन पन्त’ 
हिमालय में अब सफेद बर्फ 
दूर से भी नजर नहीं आती है 
काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद 
रात भर अब नींद नहीं आती है 

पुण्यतिथी पर नमन और श्रद्धाँजलि 
अमर कविताओं के रचयिता को  ‘उलूक’ की । 

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

श्रद्धांजलि कमल जोशी

आप भी
शायद नहीं
जानते होंगे
कमल जोशी 
को

मैं भी नहीं
जानता हूँ

बस उसकी
और
उसकी तस्वीरों
से कभी कभी
मुठभेड़ हुई है

कोई खबर
ले कर
नहीं आया हूँ
बस लिख
रहा हूँ

खबर
मिली है
वो अब
नहीं है
क्यों नहीं है
पता नहीं है

सुना गया है
लटके मिले हैं
लटके या
लटकाया गया
पता नहीं है

सुना है
समाज के लिये
बहुत सोचते थे
किस समाज
के लिये
मुझे पता नहीं है


मेरी दिली
इच्छा थी
ऐसी कई
फजूल
इच्छायें
होती हैं

उसको
जानने की

बस इतना
पता करना था
उसका समाज
और मेरा समाज
एक ही है
या कुछ अलहदा

बातें हैं

बहुत
से लोग
मरते हैं
घर में
मोहल्ले में
शहर में
और
समाज में

घर से
मोहल्ले से
समाज तक
पहुँचने से
पहले
भटक जाना
अच्छी बात
नहीं होती है

उसके
अन्दर भी
कोई
आग होगी

ऐसा मैंने
नहीं कहा है
लोग
कह रहे हैं

अन्दर की
नमी में
आग भी
शरमा कर
बहुत बार
खुद ही
बुझ लेती है

सब में
इतनी हिम्मत
कहाँ होती है

अब हिम्मत
उसकी
खुद की थी
या समाज की
खोज का
विषय है

तुम्हारे मरने
के बाद
पता चला कि
तुम भी
रसायन विज्ञान
के विद्यार्थी रहे थे

तुम्हारे अन्दर
क्या चल रहा था

लोग तुम्हारे
जाने के बाद
कयास
लगा रहे हैं

‘उलूक’ की
श्रद्धांजलि
तुम्हें भी
और उस
समाज के
लिये भी
जो तुम्हें
रोक भी
नहीं सका ।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

श्रद्धांजलि अविनाश जी वाचस्पति

एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है

सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है

चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है

ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है

तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं

चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना

कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं

विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है

इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है

आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है

तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं

चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं

जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी

श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी

बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है

दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है

चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है

‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है

‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में

थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।

चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

उतनी ही श्रद्धांजलि जितनी मेरी कमजोर समझ में आती है तुम्हारी बातें वीरेन डंगवाल

बहुत ही कम
कम क्या
नहीं के बराबर
कुछ मकान
बिना जालियाँ
बिना अवरोध
के खुली मतलब
सच में खुली
खिड़कियों वाले
समय के हिसाब से
समय के साथ
समय की जरूरतें
सब कुछ आत्मसात
कर सकनें की क्षमता
किसी के लिये नहीं
कोई रोक टोक
कुछ अजीब
सी बात है पर
बैचेनी अपने
शिखर पर
जिसे लगता है
उसे कुछ समझ
में आती हैं कुछ
आती जाती बयारें
बेरंगी दीवारें
मुर्झाये हुई सी
प्रतीत होती
खिड़कियों के
बगल से
निकलती
चढ़ती बेलें
कभी मुलाकात
नहीं हुई बस
सुनी सुनाई
कुछ कुछ बातें
कुछ इस से
कुछ उस से
पर सच में
आज कुछ
उदास सा है मन
जब से सुना है
तुम जा चुके हो
विरेन डंगवाल
कहीं पर बहुत
मजबूती से
इतिहास के
पन्नों के लिये
गाड़ कर कुछ
मजबूत खूँटे
जो बहुत है
कमजोर समय के
कमजोर शब्दों पर
लटके हुऐ यथार्थ
को दिखाने के लिये
ढेर सारे आईने
विनम्र श्रद्धांजलि
विरेन डंगवाल
'उलूक' की अपनी
समझ के अनुसार।


चित्र साभार: http://currentaffairs.gktoday.in/renowned-hindi-poet-viren-dangwal-passes-09201526962.html

सोमवार, 31 अगस्त 2015

शाख में बैठे ‘उलूक’ की श्रद्धांजलि माननीय एम एस कालबुर्गी जी वैसे भी कौन सा आपको स्वर्ग जाना है

पढ़ने लिखने वाले
विदव्तजनो के लिखे
कहे को पढ़ने के बाद
कुछ कहा करो विद्वानो
बेवकूफों की बेवकूफी
के आसपास टहल कर
अपनी खुद की छीछालेदारी
तो मत किया करो
 टिप्पणी दे कर
मत बता जाया करो
बिना पढ़े कुछ भी
लिख दिये गये पर
कह गये हो निशान
छोड़ कर मत
बता जाया करो
आया भी करो
और जाया भी करो
ये कल 'रवीश कुमार'
पर लिखे गये उसके
खुद के लिखे गये पर
उलूक के लिखे गये पर
लिखने वालों के
लिये लिख दिया
अब आगे सुनिये
अगस्त के महीने के
अंतिम दिन का पन्ना
कान बंद कर के सुनना
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
की घोटे गये गले में
एक और गला गिनना
शोर मचाना ताली बजाना
गाना बना कर गाना
किसी एक बेवकूफ के लिये
एक बेवकूफ झंडा बन जाना
खुद कुछ भी नहीं होना
किसी के खाने के ऊपर के
खाने को जमा करने करवाने
का रास्ता हो जाना
लगे रहिये लेकिन
कर्नाटक के एक और
दाभोलकर
एम एस काल्बुर्गी
का सरे आम मारा जाना
दिखा गया आईना
एक बार फिर
से ढोल पीटने
वालों को इस देश के
ढोलचियों के लिये
उसमें हम सब हैं
तुम मैं और वो और
शाख पर बैठा उलूक
हमेशा की तरह
जिम्मेदार देश की
बरबादी के लिये
देखता हुआ सारे
ढपोरशंखी पहरेदारों
को अपनी रात
की बंद आँखों से ।

चित्र साभार: www.abplive.in

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

विनम्र श्रद्धांजलि ब्लागर निलॉय नील

जमघट
हर जगह
एक नहीं
कई सारे

एक जैसी
आकाँक्षाऐं
एक जैसी
महत्वाकाँक्षाऐं

एक सी
आवाजें
और शोर
तीखे संगीत
और गीतों के
सायों से कहीं
दूर बहुत दूर
कुकर्म की
उर्जा का जोर

सियार
एक नहीं
बहुत सारे
एक हो कर
कुचलने
को आमादा
तिमिर से
ढक कर
निचोड़ कर
हर नई भोर

कहाँ कहाँ
देखे कोई
क्या कुछ सोचे
क्या करे कोई

हताशा
अपने आस पास
बहुत नजदीक भी

हताशा
दूर बहुत दूर
उसी तरह की वही

क्रूरता
लालच
बेरहमी की
जय जयकार
से खुश हो रहे
लोग दर लोग

फिर से
एक बार
कुचल दी गई
हत्या कर
एक और
आवाज

बोलने
लिखने की
आजादी को
करने के
लिये कमजोर

पर रुक
नहीं पाये
कभी
इस तरह
दीवानों
के कारवाँ

उठ
खड़े होंगे
तेरे जैसे
एक नहीं
हजारों
हजारों
कई ओर

श्रद्धांजलि
नम आँखों
के साथ
निलॉय नील

शहादत
मारेगी
जरूर
तुम्हारी
बहुत जोर

उठेगी
आवाजें
उसी तरह
सत्य की
सत्य के लिये
बहुत सारी
पुरजोर

श्रद्धांजलि
और नमन
की आवाज है
आज हर ओर ।

चित्र साभार: www.patrika.com

सोमवार, 27 जुलाई 2015

नमन श्रद्धाँजलि विनम्र हे महापुरुष महाइंसान माननीय डा0 ऐ पी जे अब्दुल कलाम

एक अहसास है
और रहेगा भी
हमेशा तेरे लिये
कहीं दिल के किसी
एक कोने में कहीं
नहीं बता सकता
सही सही किस
जगह और कहाँ
लिख नहीं सकता
लिखना भी कठिन
है कुछ भी यहाँ
लिख भी दिया
समझेगा कौन
उस जगह जहाँ
शब्द ढूढने में
माहिर हैं और
कम नहीं बहुत
हैं सारे हैं लोग
यहाँ से लेकर
गिनती नहीं है
कहाँ से कहाँ
इंसान और
इंसानियत
डूबती रही है
एक बार नहीं
कई कई बार
पता नहीं
कहाँ कहाँ
तुझ जैसी पवित्र
आत्माऐं ही
होती हैं रही हैं
सदियों से डूबते
मरते हुऐ अँधेरे
में डूबते को तिनके
के सहारे की
जैसी प्राण रोशनी
होता रहा है जिससे
जीवित मरता जहाँ
अवसान हुआ होगा
पवित्र शरीर का
अमर आया था है
और रहेगा नाम
धरती पर आकाश
पर तेरा जैसा सच में
इंसानियत से भरा
इंसानों में सबसे
बड़ा इंसान दूसरा
इसके बाद अब
कब दिखेगा
कौन जाने यहाँ ।

चित्र साभार: pages.rediff.com

बुधवार, 22 जुलाई 2015

पागल एक होगा सारा निकाय कैसे पागल हो जायेगा



 (दुनियाँ के किसी भी कोने मे  मरे लोगों के लिये श्रद्धांजलि इस क्षमा के साथ कि ब्लाग जगत में आज भी छुट्टी नहीं की गई )
पंजीकृत 
पागल 
होने
के लिये 

क्या
करना चाहिये 

कौन बतायेगा 

एक पागल 
एक ही होता है 

अपनी तरह 
का होता है 

कोई 
दूसरा पागल 

उसकी सहायता 
के लिये 

आखिरकार 
क्यों
आगे आयेगा 

अब 
सभी लोग 
पागल तो 
हो 
नहीं सकते हैं 

इसलिये 
जो ऐसा 
सोचने 
लग जाये 

वही तो 
सबसे बड़ा 
पागल 
कहलायेगा 

कुछ 
हो जाये 

कहीं 
दुनियाँ के 
किसी कोने में 

उसके लिये 
खुद के घर में 

इतना बड़ा रोना 
शुरु हो जायेगा 

समझ 
में नहीं 
आती हैं 
कभी 

इस तरह की 
हरकतें 

विज्ञान 
के 
हिसाब से 

या 
मनोविज्ञान 
के 
हिसाब से 

कौन
किस से 
क्या कहे 

जब 
घर ही 
पागलों 
से 
भर जायेगा 

अब 
क्या सोचना 

क्या कुछ 
समझना 

कैलीफोर्नियाँ 
में 
मर गये 
शेर के लिये 

जब 
करेगा शोक 

तेरे घर का शेर 

पाठक 
तब तेरे समझ में 

शायद 
कुछ आयेगा 

एक दिन 
खाना 
क्यों नहीं बना 

किस से 
पूछने जायेगा 

बात 
एक पागल 

और 
सारे पागलों 
की 
हो रही होगी 
जहाँ 
कहीं भी 

‘उलूक’ जैसे 
किसी 

एक पागल को 

पागल है 
कह 
दिया जायेगा । 
चित्र साभार: www.fotosearch.com

मंगलवार, 19 मई 2015

शब्दों की श्रद्धांजलि मदन राम

चपरासी मदन राम
मर गया
उसने बताया मुझे
मैंने किसी
और को बता दिया
मरते रहते हैं लोग
इस दुनियाँ में
जो आता है
वो जाता भी है
गीता में भी
कहा गया है
मदन राम भी
मर गया
मदन राम
चाय पिलाता था
जब भी उसके
विभाग में
कोई जाता था
अब चाय पिलाना
कोई बड़ी बात
थोड़ी होती है
मदन राम जैसे
बहुत से लोग हैं
काम करते हैं
मदन राम
शराब पीता था
सभी पीते हैं
कुछ को छोड़ कर
मदन राम को
किसी ने कभी
सम्मानित
नहीं किया कभी
अजीब बात
कह रहे हो
चपरासी कोई
कुलपति या
प्रोफेसर जो
क्या होता है
मदन राम मरा
पर मरा जहर पी कर
ऐसा सुना गया
थोड़ा थोड़ा रोज
पी रहा था
सब कुछ ठीक
चल रहा था
क्यों मर गया
एक बार में ही पीकर
शायद शिव
समझ बैठा होगा
अपने आप को
शोक सभा हुई
या नहीं पता नहीं
परीक्षा और वो भी
विश्वविद्यालय की
बड़ा काम बड़े लोगों का
देश के कर्णधार
बनाने की टकसाल
एक मदन राम के
मर जाने से
नहीं रुकती है
सीमा पार भी तो
रोज मर रहे हैं लोग
कोरिया ने अरबों
डालर दे तो दिये हैं
कुछ तो कभी
मौज करना
सीखो ‘उलूक’
श्रद्धांजलि
मदन राम ।

चित्र साभार: www.gograph.com

बुधवार, 2 जुलाई 2014

श्रद्धांजलि मौन होती है जाने वाला सुकून से चल देता है (सुशील, रायपुर, के निधन पर)

मृत्यू तो रोज 
ही होती है
रोज मरता है
एक आदमी
कहीं अंदर से
या बाहर से
आभास होता है
परवाह नहीं
करता है
सूखी हुई
आँखों से कुछ
टपकता भी है
ना नमकीन
होता है ना
मीठा होता है
बस कुछ होने
भर का एक
अहसास होता है
चिर निद्रा में
उसे भी सोना
ही होता है जो
उम्र भर सोने
की कोशिश में
लगा रहता है
ऐसी एक नहीं
ढेर सारी मौतों
का कोई भी
प्रायश्चित कहीं
भी नहीं होता है
इन सभी मृत्युओं
के बीच अपने किसी
बहुत नजदीकी
की मृत्यू से
आहत जब
कोई होता है
कोई शब्द
नहीं होता है
बस एक
मौन रोता है ।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

आर आई पी डा. जे सी पंत

बहुत बार समझाया
दिखा कर उदाहरण
कई बार बातों बातों
में सब कुछ बताया
अभी समय है
बना ले किसी
सोशियल नेट्वर्किंग
साईट पर अपना
एक प्रोफाईल
नहीं समझ में आया
बिना बनाये कुछ भी
दुनियाँ से ही चल दिया
हाय कितनी बड़ी गलती
तुझे पता नहीं तू कर गया
वर्किंग साईट पर क्या
होना था कुछ अनोखा
वही हुआ जिसके होने का
अब एक फैशन
सा  है हो गया
पता चलते ही
शोक सभा करने का
फैसला लिया गया
किसी को बिना बताये
एक कागज में कुछ
टाईप कर लिया गया
सैकडॉं कामगारों में से
किसी को तंग किये बगैर
इधर उधर जाते कुछ
लोगों को बस एक
इशारा सा किया गया
दस बारह होते ही
कागज से शोक संदेश
पढ़ दिया गया
तेरा तो किसी को
कुछ भी पता नहीं चला
कहाँ से कब किधर के
रास्ते ऊपर को चला गया
समय किसी के पास
कहाँ है अब रह गया
रोज का रोज कभी
एक जाता है कभी
पता चलता है
दो चार दिन बाद भी
ये भी गया और
वो भी गया
अर्थी उठाने और
कंधा लगाने की बात
बहुत पुरानी हो
गई है अब तो
राम नाम सत्य है
कह कर जाता हुआ
एक हुजूम देखना तक
दूभर सा हो गया
यहाँ कहीं लगा होता
तेरा फोटो कहीं भी अगर
नहीं रह जाता कहने
को इतना सा भर
कोई नहीं आया और
नहीं कुछ भी
किसे से कह गया
तुझे पता नहीं चलता
ये तो हमें भी पता
अब चल ही गया
पर कुछ देखने वाले
देख लेते तेरी
फोटो के नीचे से
दो चार ने कम से कम
उसे लाईक कर दिया
कुछ लिख लेते हैं
कुछ कुछ कभी कभी
श्रद्धांजलि या आर आई पी
फोटो के नीचे लिखना
बहुत कामन सा
अब हो ही गया
क्यों नहीं बना गया
फेसबुक में अपना
प्रोफाईल कम से कम
बुरा लग रहा है
ऐसे कैसे तू
इस दुनियाँ से
ही चल दिया । 

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

विनम्र श्रद्धांजलि राजेंद्र जी

एक सदी के अंदर एक
ज्यादा से ज्यादा दो
बहुत हो गया तो तीन
से ज्यादा को कभी भी
नहीं गिना जाता है
राजेंद्र यादव हिंदी साहित्य
का एक ऐसा ही स्तम्भ
जब यूं ही चला जाता है
उसको पढ़ने की कोशिश
करता हुआ एक
छोटा सा आदमी
समझ भी कुछ
कहां पाता है
ऐसे भीषण व्यक्तित्व
का कहा हुआ एक
वाक्य एक किताब के
बराबर हो जाता है
सुबह सवेरे समाचार पत्र में
लिखा हुआ कुछ कुछ
ऐसा जब सामने आता है
“जो तटस्थ हैं समय लिखेगा
उनका भी अपराध”
वाह निकलता है मुंह से
और सारा दिन सोचने में
ही निकल जाता है
जरूर लिखेगा बहुत लिखेगा
तटस्थ ही तो है एक
जिसे बस खुद के बारे
में ही सोचना आता है
लिखा जायेगा बहुत हो जायेगा
पता चलेगा इतिहास का भी
कैसे कैसे कूड़ा बनाया जाता है
एक तटस्थ अपनी
छोटी सोच को लेकर
माफी मांगते हुऐ फिर भी
अपनी विनम्र श्रद्धांजलि
देना ही चाहता है ।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

हत्या हुई है एक चिन्तक की चिन्ता किसे है


चिन्तक 
डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या पर आना शुरु हो गये हैं वक्तव्य 

नृशंश हुई है हत्या अब कह रहे हैं लोग
समाज की भलाई की सोच लेकर चल रहे होते हैं लोग
ऎसे लोगों की ही हत्या सरेआम कर रहे होते हैं लोग

कोशिश रोज ही की जाती है हत्याऎं होती रहें 
ऎसे लोगों के विचारों की विचार ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हैं 
काबू में आने से इन्कार कर जाते हैं ऎसे में बौखला जाते हैं लोग 

पहले बहुत कम होता था संचार माध्यम ऎसा नहीं था 
पता भी कहाँ चलता था 
अब तुरंत बात फैला देते हैं लोग 

अब तो रोज ही बेखौफ हत्या करने लगे हैं लोग 
बने हुऎ हैं इसपर भी मूकदर्शक लोग 
बस वक्तव्य देने में नहीं कतराते हैं लोग 

विचार जब तक जिंदा रहते हैं 
विचार को अनदेखा कर जाते हैं लोग 
निर्विकार भाव दिखा कर विचार से कतराते हैं लोग 

इसी श्रृंखला में आज
एक सामाजिक विचारक का मुंह बंद करा गये हैं लोग 
पता चलते ही श्रद्धांजलि देना शुरु कर
इतिश्री करने की तरफ जाने लगे हैं लोग

शर्म आ रही हो उन्हे बहुत ही जैसे शरमाने लगे हैं लोग
कहीं दूसरी ओर विचारों को कत्ल करने की
नई योजना बनाने शुरु हो गयें है लोग । 

चित्र साभार: : https://economictimes.indiatimes.com/

शनिवार, 7 जुलाई 2012

अल्विदा भास्कर

डा0 यशवंत भास्कर जोशी, विभागाध्यक्ष, कम्प्यूटर विज्ञान विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, की असमय मृत्यू पर श्रद्धांंजलि

बूढ़ी माँ की
पथराई आँखों
के प्रश्नो को
अनुत्तरित
वहीं कहीं
छोड़ते हुए
किसी को
उठा के
ले जाना
एक रास्ते
ले जाकर
अग्नि को
समर्पित कर
के आना
वापस लौट
कर आना
खाली हाथ
फिर उसी
रास्ते से
सोचते हुऎ
समय से
पहले चल
दिया एक
साथी 'भास्कर'
मिलने शायद
खुद ही
सूर्यदेव से
विधि का
विधान है
हर किसी
के समझ
में ये
आता है
फिर भी
जाने वाला
पता नहीं
कहाँ कहाँ
किसके लिये
कितने कितने
शून्य छोड़
जाता है
और खुद
एक शून्य
होकर के
पता नहीं
किस शून्य
में विलीन
हो जाता है
ये हमें
कहां फिर
पता चल
पाता है।

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

"चेस्टर" सितम्बर 2008- 08-02-2012


निर्मोही आँखिर तुम भी
हो गये एक चित्र
हमें मोह में उलझा के
हौले से चल दिये मित्र
बहुत कुछ दे गये एक
इतने छोटे से काल में
मौन से स्पर्श से
हावभाव से संकेत से
निस्वार्थ निश्चल प्रेम से
अपनो का अपना दिखा के
अपनो को अपना बना के
दूर तक साँथ चलने का
झूठा सा अहसास दिला के
उड़ गये फुर्र से
हम देखते ही रह गये
किंकर्तव्यविमूढ़ बह गये
भावनाओं के ज्वार मे
उलझ के तुम्हारे प्यार में
रोक भी नहीं पाये तुमको
ये बताया भी कहाँ हमको
जल्दी है तुम्हें बहुत जाने की
कहीं और जा के लोगों को
कुछ बातें समझाने की
यहाँ लेना था तुम्हें
बहुत से लोगों से
पुराना कुछ हिसाब
शायद लाये भी होगे
कहीं कोई बही किताब
दूर हो या नजदीक
बुलाया उन सभी को
किसी ना किसी तरह
कभी ना कभी
अपने ही पास
जीवन मृत्यू का
एक पाठ पुन:
समझा के एक और बार
चल पडे़ हो एक लम्बी
डगर पर हमें दे कर केवल
अपनी एक याद
शुभ यात्रा प्रिय
करना क्षमा  तृटियों के लिये
फिर जन्म लेना कहीं
हमसे मिलने के लिये
करेंगे इंतजार लगातार।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

चुनाव नहीं ये युद्ध है

नजारे बदलते
जा रहे हैं
हम जो थे
वो अब शायद
नजर नहीं
आ रहे हैं
प्रशाशन को
हम पर कितना
भरोसा है
वो हमारे पहाडी़
राज्य की
शांत वादियों
में गूंजती हुवी
अत्याधुनिक शस्त्रों
से सुसज्जित
अर्ध सैनिक बलों
के फ्लैग मार्च से
होने वाली की
बूटों की आवाज
से हमें
बता रहे हैं
हम अब वोटर
कहाँ रह गये
लगता है
आतंकवादी
होते जा रहे हैं
तीस जनवरी को
हम देते हैं
जिस देश में
महात्मा गांंधी
को श्रद्धांजलि
वो दिन चुनाव
का दिन नहीं
रह गया है
हम शायद
अपनो के बीच
अपनों से ही
कोई युद्ध
करने जा
रहे हैं।

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

श्रद्धांजलि

ना शोहरत ले गया
ना दाम ले गया
काम ही किया बस
ताजिंदगी छक कर
उसे भी कहां वो
बेलगाम ले गया
जीवट में सानी
कहां था कोई उसका
सब कुछ तो दे कर
कहां कुछ ले गया
जिंदादिली से भरकर
छलकाता रहा
वो कल तक
गीतों में भरकर
वोही सारी दौलत
नहीं ले गया वो
सरे आम दे गया
आनन्द देकर
देवों के धर को
वो बिल्कुल अकेला
चलते चला वो
चला ही गया
वो चला ही गया।