बाहर आकर कुछ और कह देना
आज से नहीं सालों साल से चल रहा है
कमजोर कलेजे पर खुद का जोर ही नहीं चल रहा है
थोड़ी सी हिम्मत
किसी रोज बट भी कभी जाती है
बताने की बारी आती है तो
गीले हो गये पठाके की तरह फुस्स हो जाती है
नंगा होना हमाम के अंदर
शायद जरूरी होता है हर कोई होता है
शरम थोड़ी सी भी नहीं आती है
कपड़े पहन कर पानी की बौछारें
वैसे भी कुछ कम कम ही झेली जाती हैं
बहुत से कर्मो के लिये
शब्द ही नहीं होते कभी पास में
शब्द के अर्थ होने से भी
कोई बात समझ में आ जानी जरूरी नहीं हो जाती है
सभी नहाते हैं
नहाने के लिये ही हमाम बनाने की जरूरत हो जाती है
शब्दों को नँगा कर लेने जैसी बात
किसी से कभी भी कहीं भी नहीं कही जाती है
हमाम में नहाने वाले से
किसी से कभी भी कहीं भी नहीं कही जाती है
हमाम में नहाने वाले से
इतनी बात जरूर सीखी जाती है
खुद कपड़े उतार भी ले कोई सभी अपने 'उलूक'
आ ही जानी चाहिये
इतने सालों में तेरे खाली दिमाग में
बात को कपड़े पहना कर बताने की कला
बिना हमाम में रहे और नहाये
कभी भी नहीं किसी को आ पाती है ।
चित्र साभार: http://clipart-library.com/
कभी भी नहीं किसी को आ पाती है ।
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