कितना कुछ पकड़ कर रखा था
वहम ही सही सारा अपने पास में तो था
बारिश उस पहाड़ में थी
और दूर समुंदर ही तो उफान में था
देखने का जुनून ही तो खत्म हुआ था
सपना तो अपनी ही उड़ान में था
जब सुनाई देता था
उजड़ गया अपना नहीं उसका ही मकान तो था
अच्छा हुआ सुनाई नहीं देता बंद है अपना ही कान तो था
जुबान से निकला था तीर जो भी निकला था
कौन सा कुछ किसी की दुकान से था
ना ही कहने को कुछ मचलती
मनचला था
कौन यहां कुरुक्षेत्र के मैदान से था
बहुत कुछ बिना चबाए निगलना था
सभी कुछ किसी गांधी के एक बंदर की
नजदीकी पहचान से तो था
गलतफहमी के दौरे तुझे भी
पता है वो भी जानता है
सब कुछ इसी हमाम से तो था