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बुधवार, 31 अगस्त 2022

साथ में लेकर चलें एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

 


खुद नहीं कर सकते अगर साथ में लेकर चलें
एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

जो चिल्ला सके सामने खड़े उस आदमी पर

जिसको नंगा घोषित
कर ले जाने के सारे पैंतरे उलझ चुके हों
ताश के बावन पत्तों के बीच कहीं किसी जोकर से

बस शराफत चेहरे की पॉलिश कर लेना बहुत जरूरी है ध्यान में रखना

सारे शराफत चमकाए हुऐ
एक साथ एक जमीन पर एक ही समय में

साथ में नजर नहीं आने चाहिये लेकिन 
बिजूका के अगल बगल आगे और पीछे 
हो सके तो ऊपर और नीचे भी

सारी मछलियों की आखें 
तीर पर चिपकी हुई होनी चाहिये
और अर्जुन झुकाए खड़ा हुआ होना जरूरी है अपना सिर
सड़क पर पीटता हुआ अपनी ही छाती

गीता और गीता में चिपके हुऐ
कृष्ण के उपदेशों को
फूल पत्ते और अगरबत्ती के धुऐं की निछावर कर
दिन की शुरुआत करने वाले
सभी बिजूकों का
जिंदा रहना भी उतना ही जरूरी है

जितना
रोज का रोज सुबह शुरु होकर शाम तक
मरते चले जाने वाले शरीफों की दुकान के
शटर और तालों की धूप बत्ती कर
खबर को अखबार के पहले पन्ने में दफनाने वाले खबरची की
मसालेदार हरा धनिया छिड़की हुई खबर का

सठियाये झल्लाये खुद से खार खाये ‘उलूक’ की बकवास
बहुत दिनों तक कब्र में सो नहीं पाती है
निकल ही आती है महीने एक में कभी किसी दिन

केवल इतना बताने को कि जिंदा रहना जरूरी है
सारी सड़ांधों का भी
खुश्बुओं के सपने बेचने वालों के लिये।


आज : दिनाँक 31/08/2022  7:36 सायं तक
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सोमवार, 4 जनवरी 2021

फिर फटेंगे ज्वालामुखी फैलेगा लावा भी कहीं बैठा रह मत लिखा कर कोई कहे भी अगर लम्बी तान कर बैठा है

 



कलम अपनी
ढक्कन में
कहीं डाल कर बैठा है 

एक लम्बे समय से
आँखें निकाल कर बैठा है 

कान खुले हैं मगर
कटोरा भर तेल डाल कर बैठा है 

बड़बड़ाना जारी है
मुँह में रुमाल डाल कर बैठा है 

सारे पूछ कर
कुछ करने वालों को
सलाम मार कर बैठा है 

पूछने वालों के
कुछ अलग ही होते काम हैं
मान कर बैठा है ।

सब पूछते हैं
सबके पास कुछ है पूछने के लिये
खुद भी पूछना है
कुछ ठान कर बैठा है 

किसी के लिये
पूछने में भी लगा है
सुबह से लेकर शाम पूछने की दुकान पर
कुँडली मार कर बैठा है 

मोटी खाल
समझने में लगा है आजकल
मोटी खाल का मोटी खाल के साथ
संगत
कमाल कर बैठा है 

शरम बेच कर
मोटी खाल बेशरम
मोटी खालों के संगम के प्रबंधन का
बेमिसाल इंतजाम कर बैठा है 

बैठने बिठाने के चक्कर में बैठा
कोई कहीं जा बैठा है
कोई कहीं जा बैठा है 

‘उलूक’
अभी बहुत कुछ
सिखायेगी तुझे जिंदगी

इसी तरह बैठा रह
शाख पर किसी टूटी
श्मशान के सूखे पेड़ की 

शरम करना
छोड़ दे अभी भी
देख और मौज ले नंगई के
और कह
अट्टहास के साथ

नंगा एक
नंगों के साथ मिलकर
कितनी शान से
हमाम लूट कर बेमिसाल बैठा है ।

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com/


रविवार, 20 सितंबर 2020

खाली लिखने लिखाने से कुछ नहीं होना है गिरोह खुद ही होना होगा या किसी गिरोह में शामिल होना ही पड़ेगा

 


आसान
नहीं होता है
एक गिरोह हो जाना

बहुत
मुश्किल है
बिना गिरोह में शामिल हुऐ
कुछ
अपने मन से
सही कुछ
कहीं कर ले जाना

जमाना
आज गिरोहों का है

सरदार कौन है
कौन सदस्य है
किसे पूछना है

अपनी इच्छा से हो सके
कोई
अपने फायदे का काम बस यही सोचना है

गिरोह
हो जाने के
कोई नियम कायदे नहीं होते हैं

क्रमंचय या संचय का
प्रयोग करना होता है
काम कैसे हो जायेगा
बस यही सोचना और यही देखना होता है

बाहर से चेहरे में लिखा
बहुत कुछ नजर आये तब भी
आँख बंद कर
उससे कहीं पीछे की ओर देखना होता है

दल
दल बदल
झंडा डँडा सब दिखाने के होते हैं
काम कराने के तरीके के रास्तों के
अलग कुछ फसाने होते हैं

अकेला आदमी
कुछ अच्छी सोच लिये
अच्छे काम कर पाने के सपने खोदता है

उसी आदमी की
अच्छाई की तस्वीर को
कहीं एक गिरोहबाज
तेल पोत लेने के फसाने ढूंढता है

अच्छे अच्छा और अच्छाई
अभिशाप हो लेते हैं
तेल पोतने वाला
किसी और गिरोह का सहारा ले कर
अच्छाई की कबर खोदता है

जमाना गिरोह
और
गिरोहबाजों का चल रहा है

समझदार
कोई भी
अपने हिसाब के किसी गिरोह के
पैर धोने के लिये
उसके
आने जाने के ठिकाने ढूंढता है

‘उलूक’ कुछ करना कराना है तो
गिरोह होना ही 
पड़ेगा

खुद ना कर सको कुछ
कोई गल नहीं
किसी गिरोहबाज को
करने कराने के लिये
कहना कहाना ही 
पड़ेगा

हो क्यों नहीं लेता है
कुछ दिन के लिये बेशरम
सोच कर अच्छाई 

हमाम में
सबके साथ नहाना है  
खुले आम कपड़े खोल के
सामने से तो आना ही पड़ेगा।


चित्र साभार: https://clipart-library.com/
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बुधवार, 26 अगस्त 2020

सोच तो थी बहुत कुछ लिखने की लेकिन लगता नहीं है उसमें से थोड़ा सा कुछ भी लिख पाउँगा कहीं

 


सारी जिन्दगी निकल गयी
लेकिन लगने लगा है
थोड़ी सी भी आँख तो अभी खुली ही नहीं 

अन्धा नहीं था लेकिन अब लग रहा है
थोड़ा सा भी पूरे का
अभी तो कहीं से भी दिखा ही नहीं 

नंगा और नंगई सोचने में
शर्म दिखाने के बाद भी बहुत आसान सा लगता रहा
बस कपड़े ही तो उतारने हैं कुछ शब्द के
सोच लिया

अरे क्या कम है
बस ये किया और कुछ किया ही नहीं 

परदे बहुत से
बहुत जगह लगे दिखे लहराते हुऐ हवा में
कई कई वर्षॉं से टिके
खिड़कियाँ भी नहीं थी ना ही दरवाजे थे
कहीं दिखा ही नहीं 

क्या क्या कर रहे हैं
सारे शरीफ़
अखबार की सुबह की खबर और पेज में दिखाई देने वाले

जब बताने पै आ जाता है एक गरीब
तब शर्म आती है आनी भी चाहिये
बहुत लिख लिये गुलाब भी और शराब भी

लिख देने वाला सच
बेशर्मी से जरा सा भी तो
‘उलूक’
कहीं भी
आज तक लिखा ही नहीं।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

ulooktimes.blogspot.com २६/०८/२०२० के दिन 

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रविवार, 24 मार्च 2019

हर कोई किसी गिरोह में है फिर कैसे कहें आजादी के बाद सोच भी आज आजाद हो गयी है


आजादी 

चुनने की
एक आजाद सोच

पहेली 

नहीं हो गयी है 

सोचने 

की बात है 

सोच
आज क्यों

विरुद्ध
सामूहिक
कर्म/कुकर्म
हो गयी है ।


बर्फी 
के ऊपर
चढ़ाई गयी

चाँदी का
सुनहरा
वर्क हो गयी है

स्वर्ग
हो गयी है
का विज्ञापन है

मगर
बेशर्म
नर्क हो गयी है

अपोहन
की खबर
कौन दे

किसे
सुननी है

व्यस्त
चुनावों में

गुलाम
नर्स हो गयी है

मरेगी
भी नहीं

जिंदा भी
नहीं रहने
दिया जायेगा

बिस्तरे
में पड़ी

बेड़ा गर्क
हो गयी है

गहन
चिकित्सा केंद्र में
है भी

तो भी

कौन सी
किस के लिये

शर्म हो गयी है 

ठंडे हो गये

ज्यादा
लोगों
के देश में

सिर्फ
दो लोगों
के लिये

हर खबर

गर्म
हो गयी है 

पूजा पाठ
नमाज समाज

सोचने
वालों के लिये

फाल्तू
का एक

कर्म
हो गयी है

मन्दिर
के साथ

मसजिद
की बात
करना

सबसे
बड़ा
अंधेर है

अधर्म
हो गयी है 

नंगा होना

नंगई करना

करने धरने
वालों की

सूची में
आने की
शर्त हो गयी है

लोक भी है
तंत्र भी है

लोकतंत्र
की बात

फिर
करनी क्यों

बात ही
व्यर्थ हो गयी है 

जीतना
उसी को है

आज
चुनाव
करवाने
की बात भी

फालतू
सा एक

खर्च
हो गयी है 

मर जायेंगे

लुटेरे
घर मोहल्ले के

हार
पर बात
कहना भी

खाने में

तीखी मिर्च
हो गयी है 

क्या
लिखता है

क्या
सोच है

‘उलूक’ तेरी

समझनी
भी
किसे हैं

बातें सारी

अनर्थ
हो गयी हैं

लूट में

हिस्सेदारी
 लेने वाली

सारी
जनता को

देखता भी
नहीं है

आज

सबसे
समर्थ हो
गयी है । 




सोमवार, 4 मार्च 2019

कुछ नहीं कहने वाले से अच्छा कुछ भी कह देने वाले का भाव एकदम उछाल मारता हुवा देखा जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

बड़ा झूठ
बहुत आसानी से
पचाया जाता है

बकवास
लिखी जाती रहती है
तो


सच भी
नंगा होने में शरमाता है

जिंदगी
निकलती जाती है

झूठ ही
सबसे बड़ा
सच होता है
समझ में आता जाता है

हर कोई
एक नागा साधू होता है

कपड़े
सब के पास होते हैंं
तो

दिखाने भी होते हैं

इसीलिये
पहन कर आया जाता है

बहुत कुछ
होता है जो
कहीं भी नहीं
पाया जाता है

नहीं होना ही
सबसे अच्छा होता है

बिना
पढ़ा लिखा भी
बहुत कुछ
समझा जाता है

साँप
के दाँत
तोड़ कर
आ जाता है

बत्तीस
नहीं थे
छत्तीस हैं
बता कर जाता है

साँप
तो

मार खाने
के बाद
गायब हो जाता है

साँपों की
बात करने वाला

जगह जगह
मार खाता है
गरियाया जाता है

लकीर
पीटने वाला
सब से समझदार
समझा जाता है
माना जाता है

पीटते पीटते
फकीर हो जाता है

ऊपर वाला भी
देखता रह जाता है

एक जगह
खड़ा रहने वाला

हमेशा शक की
नजरों से देखा जाता है

थाली में
बैगनों के साथ
लुढ़कते रहने वाला ही

सम्मानित
किया जाता है

‘उलूक’
कपड़े लत्ते की
सोचते सोचते

गंगा नहाने
नदी में उतर जाता है

महाकुँभ
की भीड़ में
खबरची के
कैमरे में आ जाता है
पकड़ा जाता है

घर में
रोज रोज
कौन कौन
नहाता है

अखबार
में नहीं
बताया जाता है

बकवास
करते रहने से

खराब
तबीयत का
अन्दाज नहीं
लगाया जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

एक
बड़ा झूठ भी
आसानी से
पचाया जाता है

चित्र साभार: http://hatobuilico.com

शनिवार, 1 सितंबर 2018

देश बहुत बड़ी चीज है खुद के आस पास देख ‘कबूतर’ ‘साँप’ ही खुद एक ‘नेवला’ जहाँ पाल रहा होता है

लिखे लिखाये में
ना तेरे होता है
ना मेरे होता है

सब कुछ उतार
के खड़ा होने
वाले के सामने
कोई नहीं होता है

जिक्र जरूर होता है
डरे हुऐ इंसानो के बीच

 शैतान की बात ही
अलग होती है
वो सबसे अलग होता है

आदमी तो बस
किसी का
एक कुत्ता होता है
आप परेशान ना होवें
कुत्ता होने से पहले
आदमी होना होता है

कोई नहीं लिख रहा है
कोई भी सच कहीं पर भी
झूठ लिखने वाला भी
हमेशा ही सच से डरा होता है

बड़ी तमन्ना है
देखने की
शक्ल बन्दूक की
और गोली की भी
वहाँ जहाँ
हर कोई बन्दूक है
और गोली ठोक रहा होता है

बहुत इच्छा है
‘उलूक’ की
किसी दिन
नंगा होकर नाचने की
देखकर
साथ के एक नंगे को
जो नंगई कर के भी
नाच रहा होता है |

चित्र साभार: https://www.123rf.com

सोमवार, 6 मार्च 2017

सुना है फिर से आ गयी है होली

चल
बटोरें रंग
बिखरे हुऐ
इधर उधर
यहाँ वहाँ

छोड़ कर
आ रहा है
आदमी

आज
ना जाने सब
कहाँ कहाँ


सुना है
फिर से
आ गयी है

होली

बदलना
शुरु हो गया
है मौसम


चल
करें कोशिश

बदलने
की व्यवहार
को अपने

ओढ़
कर हंसी
चेहरे पर

दिखाकर
झूठी ही सही
थोड़ी सी खुशी
मिलने की
मिलाने की


सुना है
फिर से
आ गयी
है होली


चल
दिखायें रास्ते
शब्दों को
भटके हुऐ

बदलें
मतलब
वक्तव्य के
दिये हुए

अपनों के
परायों के

करें काबू
जबानें
लोगों की

सभी
जो आते हैं नजर
इधर और उधर
सटके हुऐ


सुना है
फिर से
आ गयी
है होली


चल
चढ़ाये भंग
उड़ायें रंग
जगायें ख्वाब

सिमटे हुऐ
सोते हुऐ
यहाँ से
वहाँ तक के
सभी के

जितने
भी दिखें
समय के
साथ लटके हुऐ


सुना है
फिर से
आ गयी
है होली


चल
करें दंगा
करें पंगा

लेकिन
निकल बाहर
हम्माम से

कुछ ही
दिन सही
सभी नंगों के
साथ हो नंगा


सुना है
फिर से
आ गयी
है होली


चल
उतारें रंग
चेहरे के
मुखौटों के

दिखायें
रंग
अपने ही
खुद के होठों के

कहें
उसकी नहीं
बस अपनी ही

कहें

अपनों से

कहें

किसलिये
लुढ़कना
हर समय
है जरूरी
साथ लोटों के


सुना है
फिर से
आ गयी
है होली

सुना है
फिर से
आ गयी
है होली ।


चित्र साभार: Happy Holi 2017

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

फलसफा
जिंदगी का
सीखने की
जरा सी भी
कोशिश

कभी
थोड़ी सी भी
किया होता

आधी सदी
बीत गई
तुझे आये
हुऐ यहाँ
इस जमीन
इस जगह पर

कभी
किसी दिन
एक दिन के
लिये ही सही
एक अदद
आदमी
कुछ देर के
लिये ही सही
हो तो गया होता

जानवर
ही जानवर
लिखने
लिखाने में
कूद कर
नहीं आते
तेरे इस
तरह हमेशा

आदमी
लिखने का
इतना तो
हौसला
हो ही
गया होता

सपेरे
नचा रहे हैं
अपने अपने साँप
अपने अपने
हिसाब से

साँप नहीं
भी हो पाता
नाचना तो
थोड़ा बहुत
सीख ही
लिया होता

कपड़े
उतारने से बहुत
आसान होने
लगी है जिंदगी

दिखता है
हर तरफ
धुँधला नहीं
बहुत ही
साफ साफ
कुँआरे
शीशे की तरह

बहुत सारे
नंगों के बीच में
खड़ा कपड़े
पहने हुऐ
इस तरह शरमा
तो नहीं रहा होता

क्या
क्या कहेगा
कितना कहेगा
कब तक कहेगा
किस से कहेगा
‘उलूक’

हर कोई
कह रहा
है अपनी
कौन
सुन रहा
है किसकी

फैसला
जिसकी भी
अदालत में होता
तेरे सोचने के जैसा
कभी भी नहीं होता

रोज
उखाड़ा कर
रोज
बो लिया कर

कुछ
शब्द यहाँ पर

शब्दों
के होते
हुए कबाड़ से

खाली
दिमाग के
शब्दों को

इतना नंगा
कर के भी
हर समय
खरोचने
की आदत
से कहीं
भी कुछ
नहीं होता।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

उसके कुछ भद्दे कहे गये पर बौखलाने से कहीं भी कुछ भी नहीं होता है

तुम्हारे
बौखलाने से
अगर उसे
या
उसके जैसे
सभी अन्य
लोगों को
कोई असर
होने वाला होता
तो वो पहले ही
कोशिश करता

एक
भद्दा गाना
नहीं गाता
ऐसा एक ना
एक गाना
रोज ही
उसके ही किसी
स्टूडियो में
जानबूझ कर
तैयार किया
जाता है

और उसकी
जैसी सोच के
सभी लोगों
की सहमति
के साथ
उसके ही
बाजार में
पेश कर
दिया जाता है

तुम सुनो
ना सुनो
नाक भौं
सिकौड़ो
उसे कोसो
गालियाँ दो
अखबार
में लिखो
आकाशवाणी
दूरदर्शन
में खुली
बहसें रखो
ब्लाग में
पोस्ट करो
उसके बाद
चर्चा में
उसे लाकर
सजाकर धरो

इसके गुस्से
पर किसी
उसकी टिप्प्णी
उसके
खिसियाने पर
किसी इसकी
झिड़कियों
को पढ़ो
कुछ लिखो

होना कुछ
नहीं है
सारी
मसालेदार मिर्ची
भरी तीखी
फूहड़ बातें
करते समय
उसके दिमाग
में अपने जैसे
उसके सभी
वो लोग होते हैं
जिन्होने उसे
और उसके
जैसे लोगों को
ताज पहना कर
बादशाह
बनाया होता है

और
उनकी
अपेक्षाओं में
खरा उतरने
के लिये बहुत
जरूरी होता है

कुछ ऐसी भद्दी
बात कर देना
जिससे
कहीं ना कहीं
कोई नंगा होता है

और इसी सीढ़ी
पर चढ़ कर
उसे अगली बार
कुर्सी पर
चढ़ना होता है

इसलिये
फिर से सुन लो
थोड़े तुम्हारे
हमारे जैसों
के बौखलाने
से उसके
और उसके
समर्थकों का
हौसला बुलंद
ही होता है

हम्माम
भी उसका
पानी भी
उसका
नहाना
उसमें उसे
और उसके
जैसे लोगों
को ही होता है

उसके कुछ
भद्दे कहे गये
पर बौखलाने
से कहीं भी
कुछ भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: www.123rf.com

बुधवार, 27 मई 2015

परेशान हो जाना सवाल देख कर सवाल का जवाब नहीं होता है



हमाम
के 
अंदर रहता है 

अपने
खुद के 
पहने हुऐ 
कपड़ों को 
देख कर 
परेशान होता है 

दो चार
जानवरों 
के बारे में
बात 
कर पाता है 

जिसमें
एक गधा 
एक लोमड़ी
या 
एक कुत्ता होता है 

सब होते हैं
जहाँ 
वहाँ
खुद मौजूद 
नहीं होता है 

इंसानों
के बीच
एक गधे को 
और
गधों के बीच 
एक इंसान
का रहना 

एक
अकेले के लिये 
अच्छा
नहीं होता है 

ढू‌ंंढ लेते हैं
अपनी 
शक्ल से
मिलती 
शक्लें
लोग
हमेशा ही 

इस
सब के लिये 
आईना
किसी के 
पास होना
जरूरी 
नहीं होता है 

इज्जत उतारने 
के लिये
कुछ 
कह दिया जाये 
किसी से 

किसी
किताब में 
कहीं कुछ
ऐसा 
लिखा
भी 
नहीं होता है 

अपने
कपड़े तेरे 
खुद के ही हैं 
‘उलूक’ 

नंगों के 
बीच जाता है 
जिस समय 

कुछ
देर के लिये 
उतार

क्यों 
नहीं देता है ?

चित्र साभार: imageenvision.com

सोमवार, 18 मई 2015

सच होता है जिंदा रहने के लिये ही उसे रहने दिया जाता है

एक आदमी
पकड़ता है
दौड़ते हुऐ
शब्दों में से
कुछ शब्द
जानबूझ कर
छोड़ते हुऐ
नंगे शब्दों को
जिनमें छुपा
होता है उसके
खुद का सच
रंगीन और काले
सफेद कपड़ों में
लिपटे हुऐ शब्द
हर जगह
नजर आते हैं
हर कोई उठाते
समय उन्ही
को उठाता है
भूखे नंगे गरीब
चिढ़चिढ़े शब्दों
को अच्छा भी
नहीं लगता है
खुले आम
शराफत से
अपने को एक
शरीफ दिखाने
वाले शब्द पकड़ने
वाले शब्दमार
की सोच के
जाल से पकड़ा जाना
फिर भी कभी कभी
लगने लगता है
शायद किसी दिन
दौड़ते दौड़ाते
कुछ हिम्मत
आ जायेगी
शब्द पकड़ने की
रोज की कोशिश
कुछ रंग लायेगी
और सजाये जा
सकेंगे अपने ही
चेहरे के नकाब
को उतार देने
वाले शब्द
‘उलूक’ सोचने में
क्या जाता है
नंगापन होता है
रहेगा भी
किसी से कहाँ
कुछ उसपर
कभी लिखा
भी जाता है
दौड़ भी होती
रहती है
पकड़ने वाला
पकड़ता भी
कहाँ है
बस दिखाता है
पकड़ में उसके
कुछ कभी भी
नहीं आ पाता है ।

चित्र साभार: technostories.wordpress.com

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

किसे मतलब है और होना भी क्यों है अगर एक बददिमाग का दिमाग शब्दों से हल्का हो रहा होता है

हाथी होने का
मतलब एक
बड़ी चीज होना
ही जरूरी
नहीं होता है
किसी चींटी
का नाम भी
कभी किसी ने
हाथी रखा
होता है
दुधारू गाय को
किसी की कोई
मरा हुआ हाथी
कभी कह देता है
परेशान होने की
जरूरत
नहीं होती है
अखबार में
जो होता है
उससे बड़ा सच
कहीं नहीं होता है
चिढ़ किसी
को लगती है
खुश होना चाहिये
चिढ़ाने वाले को
अजीब सी बात
लगती है जब
आग लगाने
वाला ही नाराज
हो रहा होता है
झूठ के साथ
एक भीड़ का
पता भी होता है
बस इसी सच
का पता
बेवकूफों को
नहीं होता है
भौंकते रहते हैं
भौंकने वाले
हमेशा ही
काम करने
वाला अपनी
लगन से ही
कर रहा होता है
लगे रहो लिखने
वाले अपने
हिसाब से कुछ
भी लिखने के लिये
जल्लाद का शेयर
हमेशा मौत से
ज्यादा चढ़
रहा होता है
शेरो शायरी में
दम नहीं होता है
‘उलूक’ तेरी
तू भी जानता है
तेरे सामने ही
तेरा अक्स ओढ़
कर भी सब कुछ
सरे आम
नंगा हो रहा
होता है ।
चित्र साभार: www.clipartof.com

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कोई नयी कहानी नहीं अपना वही पुराना रोना धोना ‘उलूक’ आज फिर सुना रहा था


लाऊडस्पीकर से भाषण बाहर शोर मचा रहा था

अंदर कहीं मंच पर एक नंगा 
शब्दों को खूबसूरत कपड़े पहना रहा था

अपनी आदत में शामिल कर चुके
इन्ही सारे प्रपंचों को रोज की पूजा में 

एक भीड़ का बड़ा हिस्सा घंटी बजाने
प्रांंगण में ही बने एक मंदिर की ओर आ जा रहा था

कविताऐं शेर और गजल से ढकने में माहिर अपने पापों को
आदमी आदमी को इंसानियत का पाठ सिखा रहा था

एक दिन की बात हो
तो कही जाये कोई नयी बात है 
आज पता चला 
फिर से एक बार ढोल नगाड़ों के साथ
एक नंगा हमाम में नहा रहा था

‘उलूक’ कब तक करेगा चुगलखोरी
अपनी बेवकूफियों की खुद ही खुद से

नाटक चालू था कहीं
जनाजा भी तेरे जैसों का
पर्दा खोल कर निकाला जा रहा था

तालियांं बज रही थी वाह वाह हो रही थी
कबाब में हड्डी बन कर
कोई कुछ नहीं फोड़ सकता किसी का

उदाहरण एक पुरानी कहावत का
पेश किया जा रहा था

नंगों का नंगा नाच नंगो को
अच्छी तरह समझ में आ रहा था ।

चित्र साभार: pixshark.com

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

भगवान जी भगवान जी होते हैं और नंगे नंगे होते हैं भगवान जी का नंगों से कोई रिश्ता नहीं होता है नंगा भगवान से बड़ा होता है


किसी को कैसे बताऊं अपना धर्म
नहीं बता सकता 

कुछ लोग मेरे धर्म के
शुरु कर चुके हैं रक्त पीना 
वो मुर्गा नहीं खाते हैं ना ही वो बकरी खाते हैं 

समझ में
बस एक बात नहीं आती है 
कि वो कुत्ता क्यों नहींं खाते हैं 
वो कुत्तों से प्यार भी नहीं करते हैं 
ना ही कुत्ते उनको देख अपनी पूँछ हिलाते हैं 

मुझे अपने सर के बाल नोचने हैं 

वो व्हिस्की के नशे में कुछ लोगों को आदेश दे रहे हैं 
भाई तेरी पूँछ और मेरी पूँछ का बाल हरा है 

शुरु हो जा नोचना
गंजो के सिर के बालों को 
सबसे अच्छा होता है 

पैसा उसका धर्म है किसी को नहीं पता होता है 

नंगा होना अपराध नहीं है 
पैसा है तो नंगा हो जा मुनि कहलायेगा 
पैसा नहीं है भिखारी कहलायेगा 

नियम कानून कोर्ट नंगो के लिये नहीं होती है 
नंगों की जय जयकार होती है 

काश कोई नंगा मेरा भी बाप होता 
मैं भी शायद कहीं आबाद होता। 

चित्र साभार: www.fotosearch.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जानवर पढ़ के इस लिखे लिखाये को कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा


नंगों के लिये कपड़े लिख देने से
ढका कुछ भी नहीं जायेगा
कुछ नहीं किया जा सकता है
कुछ बेशर्मियों के लिये
जिन्हें ढकने के लिये
पता होता है कपड़ा ही छोटा पड़ जायेगा

आँखों को ढकना सीखना सिखाना
चल रहा होता है सब जगह जहाँ
मालूम होता है अच्छी तरह
एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से भी काम चल जायेगा

दिखता है सबको सब कुछ
दिख गया लेकिन किसी से नहीं कहा जायेगा
ऐसे देखने वालों की आँखों का देखना
देखने का चश्मा कहाँ मिल पायेगा

दिखने को लिखना बहुत ही आसान है
मगर यहीं पर हर कोई
गंवार और अनपढ़ बन जायेगा

लिखता रहेगा रात भर अंधेरे को ‘उलूक’
हमेशा ही सवेरे के आने तक 
सवेरा निकलेगा उजाले के साथ
आँखों में धूप का चश्मा बहुत काला मगर लगायेगा

जल्दी नहीं आयेगा समझ में कुछ
कुछ समय खुद ही समय के साथ सिखायेगा

नंगेपन को ढकना नहीं है
लिखना सीखना है ज्यादा जरूरी
लिखते लिखते नंगापन ही एक फैशन भी हो जायेगा

कपड़ा सोचना कपड़ा लिखना
कपड़े का इतिहास बने या ना बने
बंद कुछ पढ़ने से खुला सब पढ़ना
हमेशा ही अच्छा कहा जायेगा ।

चित्र साभार: www.picsgag.com

बुधवार, 10 सितंबर 2014

सुबह की सोच कुछ हरी होती है शाम लौटने के बाद पर लाल ही लिखा जाता है

सैलाब में
बहुत कुछ
बह गया

उसके
आने की
खबर
हुई भी नहीं

सुना है
उसके
अखबार में ही
बस
छपा था कुछ

सैलाब
के आने
के बारे में

मगर
अखबार
उसी के
पास ही कहीं
पड़ा रह गया

कितने कितने
सैलाब
कितनी मौतें
कितनी लाशें

सब कुछ
खलास

कुछ
दिन की खबरें

फिर
उसके बाद
सब कुछ सपाट

और
एक सैलाब
जो अंदर कहीं
से उठता है

कुछ बेबसी का
कुछ मजबूरी का

जो
कुछ भी
नहीं बहा पाता है

अंदर
से ही कहीं
शुरु होते होते

अंदर
ही कहीं
गुम भी हो जाता है

जब
नजर आता है

एक नंगा
शराफत के साथ
कुछ लूटता है

खुद
नहीं दिखता है

कहीं
पीछे से कहीं

गली से
इशारे से
बिगुल फूँकता है

कुछ
शरीफों के
कपड़े उतरवा कर

कुछ
बेवकूफों को
कबूतर बना कर

लूट
करवाता है

लूट
के समय
सूट पहनता है

मंदिर
के घंटे
बजवाता है

पंडित जी
को दक्षिणा
दे जाता है

दक्षिणा
भी उसकी
खुद की कमाई
नहीं होती है

पिछ्ली
लूट से
बचाई हुई होती है

लूट
बस नाम
की होती है

और
बहुत
छोटी छोटी
सी ही होती हैं

चर्चा में
सरे आम
कहीं नहीं होती हैं

अच्छी
जाति का
कुत्ता होने से जैसे
कुछ नहीं हो जाता है

घर में
कितनी भी
मिले अच्छी
डबलरोटी

सड़क में
पड़ी हड्डी को
देख कर झपटने से
बाज नहीं आ पाता है

सैलाब
की बात से
शुरु हुई थी बात
सैलाब कहीं भी
नजर नहीं आता है

गीत
लिखने की
सोचना सच में
बहुत मुश्किल
काम होता है

ऐसे
समय में ही
समझ में
आ पाता है

नंगई को
नंगई के
साथ ही चलना है

‘उलूक’
बहाता रहता है
सैलाब कहीं
अंदर ही अंदर अपने

एक नहीं
हजारों बार
समझा भी
दिया जाता है

चुल्लू भर
अच्छी सोच
का पानी

बहना
शुरु होने
से पहले ही
नंगई की आँच से
सुखा दिया जाता है ।

चित्र साभार: http://dst121.blogspot.in/

मंगलवार, 27 मई 2014

बस थोड़ी सी मुट्ठी भर स्पेस अपने लिये


बचने के लिये
इधर उधर रोज देख लेना
और कुछ कह देना कुछ पर
आसान है

अचानक सामने टपक पड़े
खुद पर उठे सवाल का
जवाब देना आसान नहीं है

जरूरी भी नहीं है प्रश्न कहीं हो 
उसका उत्तर कहीं ना कहीं होना ही हो

एक नहीं ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न
जिनका सामना नहीं किया जाता है

नहीं झेला जाता है
किनारे को कर दिया जाता है
कूड़ा कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है

कूड़ेदान के ढक्कन को फिर
कौन उठा कर उसमें झाँकना दुबारा चाहता है

जितनी जल्दी हो सके
कहीं किसी खाली जगह में फेंक देना ही
बेहतर विकल्प 
समझा जाता है

सड़ांध से बचने का एकमात्र तरीका
कहाँ फेंका जाये

निर्भर करता है
किस खाली जगह का उपयोग
ऐसे में 
कर लिया जाये

बस यही खाली जगह या स्पेस
ही होता है एक बहुत मुश्किल प्रश्न

खुद के लिये जानबूझ कर अनदेखा किया हुआ

पर हमेशा नहीं होता है
उधड़ ही जाती है जिंदगी रास्ते में कभी यूँ ही
और खड़ा हो जाता है यही प्रश्न बन कर

एक बहुत बड़ी मुश्किल बहुत बड़ी मुसीबत
कहीं कुछ खाली जगह अपने आप के लिये

सोच लेना शुरु किया नहीं कि
दिखना शुरु हो जाती हैं कंटीली झाड़ियाँ

कूढ़े के ढेरों पर लटके हुऐ बेतरतीब
कंकरीट के जंगल जैसे
मकानों की फोटो प्रतिलिपियों से भरी हुई जगहें
हर तरफ चारों ओर
मकानों से झाँकती हुई कई जोड़ी आँखे

नंगा करने पर तुली हुई
जैसे खोज रही हों सब कुछ
कुछ संतुष्टी कुछ तृप्ति पाने के लिये

पता नहीं पर शायद होती होगी
किसी के पास कुछ
उसकी अपनी खाली जगह
उसके ही लिये

बस बिना सवालों के
काँटो की तार बाड़ से घिरी बंधन रहित

जहाँ से बिना किसी बहस के
उठा सके कोई
अपने लिये अपने ही समय को
मुट्टी में
जी भर के देखने के लिये
अपना प्रतिबिम्ब

पर मन को भी नंगा कर
उसके 
आरपार देख कर मजा लेने वाले
लोगों से भरी इस दुनियाँ में
नहीं है 
सँभव होना
ऐसी कोई जगह जहाँ अतिक्रमण ना हो

यहाँ तक
जहाँ अपनी ही खाली जगह को
खुद ही घेर कर हमारी सोच
घुसी रहती है

दूसरों की खाली जगहों के पर्दे
उतार फेंकने के पूर जुगाड़ में
जोर शोर से ।

चित्र सभार: https://nl.pinterest.com/

शनिवार, 22 मार्च 2014

शब्दों के कपड़े उतार नहीं पाने की जिम्मेदारी तेरी हो जाती है

हमाम में आते 
और जाते रहना
बाहर आकर कुछ और कह देना
आज से नहीं सालों साल से चल रहा है
कमजोर कलेजे पर खुद का जोर ही नहीं चल रहा है

थोड़ी सी हिम्मत 
किसी रोज  बट भी कभी जाती है
बताने की बारी आती है तो
गीले हो गये पठाके की तरह फुस्स हो जाती है

नंगा होना हमाम 
के अंदर
शायद 
जरूरी होता है हर कोई होता है
शरम थोड़ी सी भी नहीं आती है
कपड़े पहन कर पानी की बौछारें
वैसे भी कुछ कम कम ही झेली जाती हैं

बहुत से कर्मो 
के लिये
शब्द 
ही नहीं होते कभी पास में
शब्द के अर्थ होने से भी
कोई बात समझ में आ जानी जरूरी नहीं हो जाती है

सभी नहाते हैं 
नहाने के लिये ही हमाम बनाने की जरूरत हो जाती है
शब्दों को नँगा कर लेने जैसी बात
किसी से 
कभी भी कहीं भी नहीं कही जाती है

हमाम में 
नहाने वाले से
इतनी बात जरूर सीखी जाती है
खुद कपड़े उतार भी ले कोई सभी अपने 'उलूक'
आ ही जानी चाहिये
इतने सालों में तेरे खाली दिमाग में
बात को कपड़े पहना कर बताने की कला
बिना हमाम में रहे और नहाये
कभी 
भी नहीं किसी को आ पाती है ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मेरी संस्था मेरा घर मेरा शहर या मेरा देश कहानी एक सी

उसे लग रहा है
मेरा घर शायद
कुछ बीमार है
पता लेकिन नहीं
कर पा रहा है
कौन जिम्मेदार है
वास्तविकता कोई
जानना नहीं चाहता है
बाहर से आने वाले
मेहमान पर तोहमत
हर कोई लगाता है
बाहर से दिखता है
बहुत बीमार है
शायद किसी जादूगर
ने किया जैसे वार है
पर घाव में पडे़ कीडे़
किसी को नजर
कहाँ आते हैं
हमारे द्वारा ही तो
छुपाये जाते हैं
वो ही तो घाव के
मवाद को खाते हैं
अंदर की बात
यहाँ नहीं बताउंगा
घर का भेदी
जो कहलाउंगा
खाली कुछ सच
कह बैठा अगर
हमाम के बाहर भी
नंगा हो जाउंगा
असली जिम्मेदार
तो मैं खुद हूँ
किसी और के
बारे में क्या
कुछ कह पाउंगा
लूट मची हो जहाँ
अपने हिस्से के लिये
जरूर जोर लगाउंगा ।