उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

जब तक सोच में कुछ आये इधर उधर हो जाता है

अपने सपने का
सनीमा बना कर
बाजार में
खुले आम
पोस्टर लगा
देने वाले के
बस में नहीं
होती हैं
उँचाईयाँ  

टूटी हुई सीढ़ियों
से गुजरना
और नीचे
देख देख कर
उनसे उलझने
की उसकी मजबूरी
उसकी आदत में
शामिल होती है
झुंड में शामिल
नहीं होने का
फायदा उठाते हैं
कुछ काले सफेद
सपनों को बोकर
रँगीन सपने बनाकर
दिखाने वाले लोग
जिनके लिये बहुत
जरूरी होती हैं
खाइयाँ और कुछ
टूटी हुई सीढ़ियाँ भी
क्योंकि उन सब को
पीछे देखने की
आदत नहीं होती है
और ना ही सीढ़ियों
की टूट फूट ही
रोक पाती है
उनके कदमों को
वो देखते हैं बस
पैर रखने भर
की जगह और
चढ़ते हुऐ झुंड
का एक कंधा
जिनके हाथ
और पैर देखने
में लगी हुई
आँखों को नजर
ही नहीं आ
पाती हैं उनकी
आँखे और
इशारे इशारे में
काम हो जाता है
क्योंकि इशारे
का अधिकार
सूचना के अधिकार
में नहीं आता है
और झुँड में से
कोई एक ऊपर
चला जाता है
बीच में रह जाती है
टूटी हुई सीढ़ियाँ
जिसके आस पास
  

खिसियाया हुआ
सा “उलूक”
एक कागज और
एक कलम लिया हुआ
अपना सिर खुजाता
हुआ नजर आता है ।