उलूक टाइम्स: सूचना का अधिकार
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शुक्रवार, 28 मार्च 2014

जब तक सोच में कुछ आये इधर उधर हो जाता है

अपने सपने का
सनीमा बना कर
बाजार में
खुले आम
पोस्टर लगा
देने वाले के
बस में नहीं
होती हैं
उँचाईयाँ  

टूटी हुई सीढ़ियों
से गुजरना
और नीचे
देख देख कर
उनसे उलझने
की उसकी मजबूरी
उसकी आदत में
शामिल होती है
झुंड में शामिल
नहीं होने का
फायदा उठाते हैं
कुछ काले सफेद
सपनों को बोकर
रँगीन सपने बनाकर
दिखाने वाले लोग
जिनके लिये बहुत
जरूरी होती हैं
खाइयाँ और कुछ
टूटी हुई सीढ़ियाँ भी
क्योंकि उन सब को
पीछे देखने की
आदत नहीं होती है
और ना ही सीढ़ियों
की टूट फूट ही
रोक पाती है
उनके कदमों को
वो देखते हैं बस
पैर रखने भर
की जगह और
चढ़ते हुऐ झुंड
का एक कंधा
जिनके हाथ
और पैर देखने
में लगी हुई
आँखों को नजर
ही नहीं आ
पाती हैं उनकी
आँखे और
इशारे इशारे में
काम हो जाता है
क्योंकि इशारे
का अधिकार
सूचना के अधिकार
में नहीं आता है
और झुँड में से
कोई एक ऊपर
चला जाता है
बीच में रह जाती है
टूटी हुई सीढ़ियाँ
जिसके आस पास
  

खिसियाया हुआ
सा “उलूक”
एक कागज और
एक कलम लिया हुआ
अपना सिर खुजाता
हुआ नजर आता है । 

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

सबसे बड़ा सच तो झूठ होता है

सच को बस छोड़कर
सब कुछ चलता हुआ दिखाई देता है

सच सबके पास होता है 
जेब में कमीज और पेंट की
हाथ में कापी और किताब में

एक के सच से दूसरे को
कोई मतलब नहीं होता है

अपने अपने सच होते हैं
सब का आकार अलग होता है
सच किसी के पैर की चप्पल या जूता होता है

एक का सच 
दूसरे के काम का नहीं होता है 
कोई किसी के सच के बारे में
किसी से कुछ नहीं कहता है

हाँ झूठ बहुत ही मजेदार होता है
सब बात करते हैं झूठ की
झूठ का आकार नहीं होता है
एक का झूठ दूसरे के भी
बहुत काम का होता है

पर किसी को पता नहीं होता है
झूठ कहाँ होता है

सूचना का अधिकार
झूठ को ढूंढने का ही हथियार होता है 
सबसे ज्यादा चलता हुआ
वही दिख रहा होता है

सच
बेवकूफ
मैं सच हूं सोच सोच कर
एक जगह ही बैठा होता है

जहाँ पहुचने की कोई सोच भी नहीं सकता है
झूठ वहाँ जरूर पहले से ही पहुंचा होता है
झूठ के पैर नहीं होते है
'उलूक'
बहकाने के लिये ही
शायद यूँ ही कह दिया होता है । 

चित्र साभार: https://www.megapixl.com/