लिखना
सीख ही
रहा है
अभी भी
कई सालों से
लिखने वाला
क्या
लिख रहा है
क्यों
लिख रहा है
अभी तो
पूछना
ही नहीं है
शेर गजल
कविता भी
पढ़ रहा है
लिखी लिखाई
बहुत सी कई
शेर सोचने
और गजल
लिखने की
अभी तो
हैसियत
ही नहीं है
मत बाँध लेना
उम्मीद भी
किसी दिन
नया कुछ
लिखे
देखने की
सूरतें सालों
साल हो गये हैं
कहीं भी
कोई भी
अभी तो
बदली
ही नहीं हैं
किताबों में
लिख दी
गयी हैं
जमाने भर
की सभी
बातें कभी के
किसलिये
लिखता है
खुराफातें
जो किताबों
तक अभी
भी पहुँची
ही नहीं हैं
कल
लिख रहा था
आज
लिख रहा है
कल भी
लिखने के लिये
आ जायेगा
होना जब
कुछ भी
नहीं है
तो लिखने
की भी
जरूरत
ही नहीं है
अच्छा नहीं है
लिये घूमना
खाली गिलास
खाली बोतलों
के साथ
लिखने के
लिये शराबें
‘उलूक’
कुछ ना कुछ
पी रहा है
हर कोई
अपने
हिसाब का
समझाता
हुआ
जमाने को
पीने
पिलाने की
कहीं भी अब
इजाजत
ही नहीं है ।
चित्र साभार: Childcare
लिखे
हुऐ को
सात बार
पढ़ कर
जनाब
पूछ्ते हैं
ओये
तू कहना
क्या चाहता है
साफ साफ
असली
बात को
दो चार
सीधे साधे
शब्दों में ही
बता कर
क्यों नहीं
जाता है
बात को
लपेट कर
घुमा कर
फालतू की
जलेबी
बना कर
किसलिये
लिखने को
रोज का रोज
यहाँ पर
आ जाता है
सुनिये जनाब
जिसकी जितनी
समझ होती है
वो उतना ही तो
समझ पाता है
बाकि बचे का
क्या करे कोई
कूड़ेदान में ही
तो जा कर के
फेंका जाता है
ये भी सच है
कूड़ेदान पर
झाँकने के लिये
आज बस वो
ही आता है
जिसकी
समझ में
गाँधी की फोटो
के साथ लगा हुआ
एक झाड़ू से
सजा पोस्टर
और
उसको बनवाने
वाले की मंशा का
पूरा का पूरा खाँचा
आराम से घुस कर
साफ सफाई का
धंधा फैलाने के
मन्सूबे धीरे धीरे
पैर उठा कर
सपने के ऊपर
सपने को चढ़ाता है
कबाड़ी
कबाड़ देखता है
कबाड़ी
कबाड़ छाँटता है
कबाड़ी
कबाड़ खरीदता है
कबाड़ी
कबाड़ बेचता है
कबाड़ी
के हाथों से
होकर उसके
बोरे में पहुँचकर
चाहे धर्म ग्रंथ हो
चाहे माया मोह हो
सारा सब कुछ
कबाड़ ही हो जाता है
कबाड़ी
उसी सब से
अपनी रोजी चलाता है
भूख को जगाता है
रोटी के सपने को
धीमी आँच में
भूनता चला जाता है
इसी तरह का
कुछ ऐसा कबाड़
जो ना कहीं
खरीदा जाता है
ना कहीं
बेचा जाता है
ना किसी को
नजर आते हुऐ
ही नजर आता है
एक कोई
सरफिरा
उसपर
लिखना ही
शुरु हो जाता है
‘उलूक’
क्या करे
हजूरे आला
अगर कबाड़ पर
लिखे हुऐ उस
बेखुश्बूए
अन्दाज को
कोई खुश्बू
मान कर
सूँघने के लिये
भी चला आता है ।
चित्र साभार: http://www.maplegrovecob.org
मत नाप
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से
नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ
बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं
ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का
इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना
बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं
बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं
कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं
लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं
बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है
बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है
कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था
उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था
रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है
कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है
जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।
चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in
रहने भी दे
हमेशा
खुद से ही
बहस मत
कर लिया कर
कुछ औरों का
लिखना भी
कभी तो देख
भी लिया कर
अपना अपना
भी लिख रहे हैं
लिखने वाले
तू भी कभी
कुछ अपना ही
लिख लिया कर
इधर उधर
देखना
थोड़ी देर के
लिये ही सही
कभी आँखें ही
कुछ देर
के लिये सही
बन्द भी
कर दिया कर
कभी कुछ नहीं तो
हो भी
सकने वाला
एक सपना ही
लिख दिया कर
लिखे हुऐ कुछ में
समय कितनों के
लिखे में दिखता है
ये भी कभी कुछ
देख लिया कर
हमेशा
घड़ी देखकर
ही लिखेगा क्या
कभी चाँद तारे
भी देख लिया कर
सब का लिखा
घड़ी नहीं होता है
बता पायेगा क्या
कितने बज रहे हैं
अपने लिखे हुऐ
को ही देख कर कभी
रोज का ना सही
कभी किसी जमाने
के लिखे को
देखकर ही
समय उस समय
का बता दिया कर
घड़ी पर
लिखने वाले
बहुत होते हैं
घड़ी घड़ी
लिखने वाले
घड़ी लिख लें
जरूरी नहीं
कभी
किसी दिन
किसी की
घड़ी ना सही
घड़ी की
टिक टिक
पर ही कुछ
कह दिया कर
समय
सच होता है
सच लिखने
वाले को
समय दूर
से ही सलाम
कर देता है
समय
लिखने वाले
और समय
पढ़ने वाले
होते तो हैं
मगर
थोड़े से होते हैं
कभी समय
समझने वालों
को समझकर
समय पर
मुँह अँधेरे
भी उठ
लिया कर
अपनी
नब्ज अपने
हाथ में होती है
सब नाप
रहे होते हैं
थोड़े से
कुछ होते हैं
नब्ज दूसरों
की नापने वाले
उन्हें डाक्टर कहते हैं
कभी
किसी दिन
किसी डाक्टर
का आला ही
पकड़ लिया कर
‘उलूक’ देखने
सुनने लिखने
तक ठीक है
हर समय
फेंकना
ठीक नहीं है
औरों
को भी कभी
कुछ समय
के लिये
समय ही सही
फेंकने दिया कर ।
चित्र साभार: http://www.toonvectors.com
किस लिये
इतना
बैचेन
होता है
देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी
वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है
उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है
सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है
नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है
सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से
जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है
तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है
किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है
कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ
तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है
तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है
शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है
‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये
कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है
सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर
एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।
चित्र साभार: shutterstock.com