उलूक टाइम्स

शनिवार, 15 मार्च 2014

होली को होना होता है बस एक दिन का सनीमा होता है

मित्रों के
लिये कम
दुश्मनों से
गले मिलने
के लिये
कुछ ज्यादा
होनी होती है
होली कई 
कई सालों
के गिले शिकवे
दूर करने की
एक मीठी सी
गोली होती है
बस एक दिन
के लिये
“आप” होते हैं
एक “हाथ”
में “कमल”
एक हाथ
में “लालटेन”
भी होनी होती है
“हाथी” की सूँड
से रंगों की बरसात
हरे सफेद नारंगी
रंग के “तिरंगे”
को “लाल” रंग
से सलामी
लेनी होती है
सफेद टोपी
किसी की भी हो
रंग भरी हो
आड़ी तिरछी हो
सभी के सिर पर
होनी होती है
“साईकिल” के
सवारों की
मेजबानी “कार”
वालों को
लेनी होती है
कहीं “गैससिलेण्डर”
कहीं “पतंग”
कहीं कहीं
जेब काटने
की “कैंची”
एक होनी
होती है
एक दिन
ही होता है
बिना पिये
जिस दिन
हर किसी
को भाँग
चढ़ी होनी
होती है
नेता कौन
अभिनेता कौन
मतलब ही नहीं
होना होता है
जनता हूँ
जनता को
एसा कुछ भी
कहीं भी नहीं
कहना होता है
बस एक ही दिन
प्यार मनुहार और
गिले शिकवे दूर
करने के लिये
होना होता है
जिसके होने को
हर कोई “होली”
होना कहता है
ना हरा होना
होता है ना
लाल होना होता है
जो होना होता है
बस काला और
सफेद होना होता है
एक दिन के
कन्फ्यूजन से
करोड़ों को
हजारों दिन
आगे के लिये
रोना होता है
होली हो लेती
है हर बार
चढ़े हुए रंगों
को उतरना
ही होता है
बाकी के
पाँच साल
का हर दिन
“उलूक”
देश की
खाल खीँचना
और
निचोड़ना
होता है
बुरा होता
भी है तो
बुरा नहीं
लगना होता है
होली की
शुभकामनाऐं
ले दे कर
सबको सब से
"बुरा ना मानो होली है"
बस कहना
होता है ।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

इस बार भी चढ़ जायेगा रंग कहाँ कुछ नहीं बतायेगा

होली के
रंगो के बीच
भंग की
तरँगो के बीच
रंग में रंग
मत मिला
मान जा
एक ही
रंग में रह
कोशिश कर
तिरंगा रंगों
का मत फहरा
रंगो का भी
होता है ककहरा
हरे को रहने
ही दे हरा
लाल बोल कर
रँग को रंग
से मत लड़ा
जिस रंग
में रंगा है
उसी रंग
से खेल
दो चार दिन
का सब्र कर
सालों साल
की मेहनत
पर ना डाल
मिट्टी या तेल
एक दिन
मुस्कुरायेगा
गले से लगायेगा
आशीर्वाद ढोलक
की थापों के साथ
एक नहीं कई
कई दे जायेगा
हो हो होलक रे
करता हुआ रंग
हवा में उड़ेगा
कुछ ही देर
फिर थोड़ा
मिट्टी में मिलेगा
कुछ पानी की
फुहारों के साथ
बह जायेगा
रंग बदलने वाला
क्या करेगा
बस यही नहीं
किसी के समझ
में आ पायेगा
रेडियो कुछ कहेगा
टी वी कुछ दिखायेगा
रंगों का गणित
बहुत सरल तरीके
से हल किया हुआ
अखबार भी बतायेगा
हर कोई कहेगा
जायेगा तो “आप”
के साथ ही
इस बार जायेगा
रंग रंग में मिलेगा
पता भी नहीं चलेगा
होली हुई नहीं
सब कुछ बदल जायेगा
जिसका चढ़ेगा रंग
वही बस वही
बाप हो जायेगा
रंग को रंग
ही रहने दे
अगर मिलायेगा
समझ ले बाद में
तेरे ही सर
चढ़ के बोलेगा
होली का होला
कब हो गया
“उलूक” तू बस
ऊपर से नीचे
देखता रह जायेगा ।

गुरुवार, 13 मार्च 2014

रंगो का त्यौहार क्या कुछ रंगहीन हो गया है

कहाँ हैं रंग
कहाँ है इंद्रधनुष
कहाँ है पानी
की बौछारें
भीगता बाहर
का ही नहीं
था सब कुछ
अंदर भी छूटती
थी कुछ फुहाँरे
दो चार दिन
का नहीं कोई
खेल होता था
महीने महीने का
जमता था अखाड़ा
सुनाई देती थी
ढोलक की थापें
और मजीरे की
मीठी मीठी आवाजें
रात रात भर
बिना पिये ही
होता था नशा
उतरता कब था
नहीं  होता था
किसी को पता
घर घर से
निकाल निकाल
कर बच्चे जवान
और बूढ़ो का
किया जाता था
गलियों में जमावाड़ा
गालियाँ भी होती थी
गीतों की टोली
भी होती थी
चंदा भी माँगा
जाता था
दे देता था
हर कोई
खुशी खुशी कभी
मुँह भी टेड़ा
नहीं बनाता था
पता नहीं
क्या हो गया है
समय के साथ
जैसे सब कुछ
कहीं खो गया है
कह रहे हैं
सब के सब
रंग भी हैं
फुहारें भी हैं
होली भी है
पर शायद
“उलूक”
तुझे ही
कुछ कुछ
कहीं हो गया हैं
इंद्रधनुष ही नहीं
बनता है कहीं
भी आसपास तेरे
रंगों का सब कुछ
जैसे बस काला
सफेद हो गया है
जाकर अपनी
आँखों का टेस्ट
करवा ले
मुझे पक्का
लगने लगा है
होली अपनी
जगह पर
अपनी जैसी ही
हो रही है
बस एक तू
ही शायद
कलर ब्लाइंड
हो गया है ।

बुधवार, 12 मार्च 2014

तेरा जैसा उल्लू भी तो कोई कहीं नहीं होता

                                                                        
अब भी समय है
समझ क्यों नहीं लेता
रोज देखता रोज सुनता है
तुझे यकीं क्यों नहीं होता

ये जमाना
निकल गया है बहुत ही आगे
तुझे ही रहना था बेशरम इतने पीछे
कहीं पिछली गली से ही कभी चुपचाप
कहीं को भी
निकल लिया होता

बहुत बबाल करता है 
यहाँ भी और वहाँ भी
तरह तरह की
तेरी शिकायतों के पुलिंदे में 
कभी कोई छेद क्यों नहीं होता

सीखने वाले
हमेशा लगे होते हैं
सिखाने वालों के आगे पीछे
कभी तो सोचा कर
तेरे से सीखने वाला कोई भी
तेरे आस पास क्यों नहीं होता
  
बहुत से अपने को
 मानने लगे हैं अब सफेद कबूतर
सारे कौओं को पता है ये सब
काले कौओ के बीच में रहकर
काँव काँव करना
बस एक तुझसे ही क्यों नहीं होता

पूँछ उठा के
देखने का जमाना ही नहीं रहा अब तो
एक तू ही पूँछ की बात हमेशा पूछता रहता है
जान कर भी
पूँछ हिलाना अब सामने सामने कहीं नहीं होता

गालियाँ खा रहे हैं सरे आम सभी कुत्ते
सब को पता है
आदमी से बड़ा कुत्ता कहीं भी नहीं होता

कभी तो सुन लिया कर दिल की भी कुछ "उलूक"
दिमाग में बहुत कुछ होने से कुछ नहीं होता ।

चित्र साभार: https://vector.me/

मंगलवार, 11 मार्च 2014

झेल सके तो झेल “उलूक” ने छ: सौवीं बक बक दी है आज पेल

काम की बात
करने में ही
होती हैं बस
कठिनाईयाँ
कुछ लोग
बहुत अच्छा
लिखते हैं
पढ़ते ही
बज उठती
है चारों तरफ
शहनाईयाँ
कुछ भी
कह लेने में
किसी का कुछ
नहीं जाता है
एक दो तीन
होते होते
पता कहाँ
चलता है
एक दो नहीं
छ: का सैकड़ा
हो जाता है
ना पेड़ खिसकता
है कहीं कोई
ना ही पहाड़
एक किसी से
सरक पाता है
सब लोग लगे
होते हैं कुछ
ना कुछ ही
करने धरने में
कहीं ना कहीं
कुछ लोगों से
कुछ भी नहीं
कहीं हो पाता है
लिखना सबसे
अच्छा एक काम
ऐसे लोगों को
ही नजर आता है
एक जमाने में
भरे जाते थे
जिनसे कागज
किसी कापी
या डायरी के
साल होते होते
सामने सामने का
नजारा एक कबाड़ी
का कापियों को
खरीद ले जाना
हो जाता है
वो जमाना भी
गया जमाना
हो चुका कभी का
आज के दिन
कापी की जगह
ब्लाग हो जाता है
पहले के लिखे का
भी कोई मतलब
नहीं निकाला
किसी ने कहीं
आज निकलता
भी है तो कोई
कहाँ बताता है
टिप्पणी करने का
चलन भी शुरु हुऐ
कुछ ही दिन तो
हुऐ हैं कुछ
ही समय से
कुछ करते हैं
कुछ ही जगहों पर
कुछ नहीं करते
हैं कहीं भी
कुछ को लिखा
क्या है ये ही
समझ में नहीं
आ पाता है
खुश है “उलूक”
पलट कर
देखता है जब
छ: सौ बेकार
की खराब कारों के
काफिले से
उसका गैरेज
भर जाता है ।