उलूक टाइम्स: बेशरम
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शनिवार, 29 मई 2021

किसने कहा है बकवास पढ़ना जरूरी है ‘उलूक’ की ना लिखा कर कहकर मत उकसाओ


उड़ रहे हैं काले कौऐ आकाश दर आकाश
कबूतर कबूतर चिल्लाओ
कौन बोल रहा है सच
रोको उसे ढूँढ कर एक गाँधी कहीं जा कर के कूट आओ

इस से पूछो उस से पूछो
कहीं से भी पूछ कर कुछ उसके बारे में पता लगाओ
कैसे आगे हो सकता है कोई उसका अपना उससे
कहीं तो जा कर के कुछ आग लगाओ 

कुछ मर गये कुछ आगे मरेंगे
अपने ही लोग हैं सबकी फोटो सब जगह जा लगाओ
कुछ रो लो कुछ धो लो कुछ पैट्रोल ले लो हाथ में और जोर से आग आग गाओ 

उल्लू लिख रहा है एक अखबार हद है
कुछ तो शरम करो और कुछ तो शरमाओ
रोको उसे कुछ ना कुछ करके
इस से पहले सब लिख ले बेशरम कुछ कपड़े दिखाओ 

उसका लिखा है किसने समझना है तुम भी जानते हो
बेकार का दिमाग मत लगाओ
पढ़ने कोई नहीं आता है
बस देखने आता है कौन कौन पढ़ गया आके
समझ जाओ

सकारात्मक होना बहुत अच्छी बात है कौन रोकता है
तुम अपनी कुछ सुनाओ
बहुत ही नकारात्मक है वही लिख फिर रहा है रोक लो
कह दो इतनी भीड़ ना बनाओ

कुत्ता सोच लो दिमाग में कौन रोकता है
पट्टा और जँजीर की सोच भी जरूरी है
भागने ना दो किसी की सोच को लगाम कुछ अपनी लगाओ

अपनी अपनी सोचना बहुत ही जरूरी है
इस से पहले मौत आगोश में ले जाये कोरोना के बहाने
कुछ नोच लो कुछ खसोट लो यूँ ही कहीं से कुछ भी

रो लेना गिरीसलीन लगा के आँखों के नीचे जार जार
अखबार हैं ना
कहना नहीं पड़ेगा किसी से भी फोटो खींच कर के ले जाओ

‘उलूक’ सब परेशान हैं
तेरी इस बकवास करने की आदत से
कहते भी हैं हमेशा तुझसे कहीं और जा कर के दिमाग को लगाओ

तुझे भी पता है औकात अपनी
कितनी है गहरी नदी तेरी सोच की
मरना नहीं होता है जिसमें शब्द को
तैरना नहीं भी आये
गोता लगाने के पहले चिल्लाता है
आओ डूब जाओ।

चित्र साभार: https://pngio.com/images/png-b2702327.html

रविवार, 20 सितंबर 2020

खाली लिखने लिखाने से कुछ नहीं होना है गिरोह खुद ही होना होगा या किसी गिरोह में शामिल होना ही पड़ेगा

 


आसान
नहीं होता है
एक गिरोह हो जाना

बहुत
मुश्किल है
बिना गिरोह में शामिल हुऐ
कुछ
अपने मन से
सही कुछ
कहीं कर ले जाना

जमाना
आज गिरोहों का है

सरदार कौन है
कौन सदस्य है
किसे पूछना है

अपनी इच्छा से हो सके
कोई
अपने फायदे का काम बस यही सोचना है

गिरोह
हो जाने के
कोई नियम कायदे नहीं होते हैं

क्रमंचय या संचय का
प्रयोग करना होता है
काम कैसे हो जायेगा
बस यही सोचना और यही देखना होता है

बाहर से चेहरे में लिखा
बहुत कुछ नजर आये तब भी
आँख बंद कर
उससे कहीं पीछे की ओर देखना होता है

दल
दल बदल
झंडा डँडा सब दिखाने के होते हैं
काम कराने के तरीके के रास्तों के
अलग कुछ फसाने होते हैं

अकेला आदमी
कुछ अच्छी सोच लिये
अच्छे काम कर पाने के सपने खोदता है

उसी आदमी की
अच्छाई की तस्वीर को
कहीं एक गिरोहबाज
तेल पोत लेने के फसाने ढूंढता है

अच्छे अच्छा और अच्छाई
अभिशाप हो लेते हैं
तेल पोतने वाला
किसी और गिरोह का सहारा ले कर
अच्छाई की कबर खोदता है

जमाना गिरोह
और
गिरोहबाजों का चल रहा है

समझदार
कोई भी
अपने हिसाब के किसी गिरोह के
पैर धोने के लिये
उसके
आने जाने के ठिकाने ढूंढता है

‘उलूक’ कुछ करना कराना है तो
गिरोह होना ही 
पड़ेगा

खुद ना कर सको कुछ
कोई गल नहीं
किसी गिरोहबाज को
करने कराने के लिये
कहना कहाना ही 
पड़ेगा

हो क्यों नहीं लेता है
कुछ दिन के लिये बेशरम
सोच कर अच्छाई 

हमाम में
सबके साथ नहाना है  
खुले आम कपड़े खोल के
सामने से तो आना ही पड़ेगा।


चित्र साभार: https://clipart-library.com/
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Alexa Traffic Rank World: 121703 इंडिया: 11475 20/09/2020 08:31 पीएम 
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मंगलवार, 18 अगस्त 2020

तो बेशरम उलूक कब छोड़ेगा तू लिखना बकवास छोड़ ही दे ये नादानी है

 

अरे 
सब तो
लिख रहे हैं 
कुछ ना कुछ 
मेरे लिखे से क्या परेशानी है 

मैं तो
कब से
लिख रहा हूँ 
मुझे खुद पता नहीं है 
मेरे लिखे लिखाये में कितना पानी है 

मेरे
लिखने से
किसलिये परेशान हैं 

आपके लिये
उठाने वाले  कलम
गिन लीजियेगा हजूर

हर
डेढ़ शख्स
फिदा है आप पर 
बाकी आधा
है या नहीं भी किसलिये सोचना 
है

लिख दीजियेगा
आँकड़े की कोई बे‌ईमानी है 

मेरा लिखना
मेरा देखना
मेरी अपनी बीमारी है 

अल्लाह करे
किसी को ना फैले
ये कोरोना नहीं रूमानी है

सब
देख कर लिखते हैं
फूल खिले अपने आसपास के 
झाड़ पर
लिखने की
मेरे जैसे खड़ूस ने खुद ही ठानी है 

सब अमन चैन तो है
सुबह के अखबार क्यों नहीं देखता है 

कहाँ भुखमरी है
कहाँ गरीबी है कहाँ कोई बैचेन है 

तेरे शहर की
हर हो रही गलत बात पर
नजर डालने वाला

जरूर
 कोई चीनी है
या पाकिस्तानी  है

पता नहीं
क्या सोचता है
क्या लिखता है
पागलों के शहर का एक पागल
काँग्रेस और भाजपा तो
आनीजानी है 


शहर
पागल नहीं है
हवा पानी में
कुछ मिला कर रखा है किसी ने
ना कहना
कितनी बेईमानी 
है 

कत्ल से लेकर
आबरू लूटने की भी 
नहीं छपी
इस शहर की कई कहानी है 


कोई
कुछ नहीं
कहता है यहाँ ‘उलूक’
यही तो
एक अच्छे शहर की निशानी है 


चित्र साभार: https://nohawox.initiativeblog.com/

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

मत खोज लिखे से लिखने वाले का पता


कोई
नहीं लिखता है

अपना पता
अपने लिखे पर

शब्द
बहुत होते हैं
सबके पास

अलग बात है

शब्दों
की गिनती
नदी नालों में
नहीं होती है

लिखना
कोई
युद्ध नहीं होता है

ना ही
कोई
योजना परियोजना

लिखना
लिखाना
पढ़ना पढा‌ना

लिखा
लाकर
समेटा
एक बड़े से
परदे पर
ला ला कर
सजाना

लिखना
प्रतियोगिता
भी नहीं होता है

लिखे पर
मान सम्मान
ईनाम
की
बात करने से
लिखने
का
आत्म सम्मान
ऊँचा
नहीं होता है

लिखा
लिखने वाले के
आस पास
हो रहे कुछ का
आईना
कतई
नहीं होता है

जो
लिखा होता है

उससे
होने ना होने
का
कोई सम्बंध
दूर दूर तक
नहीं होता है

सब
लिखते हैं
लिखना
सबको आता है

सबका
लिखा
सब कुछ
साफ साफ
लिखे लिखाये
की खुश्बू
दूर दूर तक
बता कर
फैलाता है

बात अलग है
अचानक
बीच में
मोमबत्तियाँ
लिखे लिखाये पर
हावी होना
शुरु हो जाती हैं

आग लिखना
कोई नयी बात
नहीं होती है

हर कोई
कुछ ना कुछ

किसी ना किसी
तरह से
जला कर

उसकी
रोशनी में
अपना चेहरा
दिखाना चाहता है

‘उलूक’
बेशरम है
उसको पता है
 आईने में
सही चेहरा
कभी
 नजर
नहीं आता है

इसलिये
वो खुद
 अपनी
बकवास लेकर

अपनी
पहचान
के साथ
मैदान पर
उतर आता है | 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/



गुरुवार, 15 अगस्त 2019

लिखना जरूरी है तरन्नुम में मगर ठगे जाने का सारा बही खाता हिसाब



लिखना
जरूरी है

तरन्नुम
में मगर

ठगे
जाने का
सारा

बही
खाता हिसाब

कौन
जानता है

सुर मिले
और
बन पड़े

गीत
एक
धुप्पल में
कभी

यही बकवास

आज ही
के दिन
हर साल

ठुमुकता
चला आता है

पुराने
कुछ
सूखे हुऐ
घाव कुरेदने

फिर
एक बार
ये अहसास


भूला
जाता है
ताजिंदगी

ठगना
खुदा तक को 
खुद का

बुलंद कर खुदी

कहाँ
छुपता है
 जब
निकल पड़ती है

किसी
बेशरम की कलम

खोदकर
किसी
पुरानी कब्र से
 खुद
अपनी भड़ास

निकलते हैं
कपड़े
झक सफेद
कलफ इस्त्री किये

किसी
खास एक दिन
पूरे साल में

धराशायी
करते हुऐ
पिछले
कई सालों के

कीर्तिमान
ठगी के पुराने
खुद के खुद ही
बेहिसाब

फिर भी
जरूरी है
‘उलूक’

बिता लेना
शुभ दिन
के
तीन पहर
किसी तरह
यूँ ही

बधाईयाँ

मंगलकामनाओं
के
बण्डल बाँधकर

चौथे पहर
लिख लेना
फिर
सारा
सब कुछ
ठगी
उठाईगिरी

या
और भी
कुछ
अनाप शनाप।

चित्र साभार: https://biteable.com

बुधवार, 19 जून 2019

बरसों लकीर पीटना सीखने के लिये लकीरें कदम दर कदम

बरसों
लकीर पीटना

सीखने
के लिये लकीरें

समझने
के लिये लकीरें

कहाँ
से शुरु
और
कहाँ
जा कर खतम

समझ लेना
नहीं समझ पाना

बस लकीरें

समझते हुऐ
शुरु होने और
खतम होने का है

बस वहम और वहम

जो घर में है
जो मोहल्ले में है
जो शहर में है

वही सब
हर जगह में है

और
वही हैं
सब के
रहम-ओ-करम

सबके
अपने अपने
झूठ हैं जो सच हैं

सबके
अपने सच हैं
जरूरत नहीं है
बताने की

सबने
खुद को दी है
खुद की ही कसम

लिखना लिखाना
चाँद सूरज तारे दिखा ना

जरूरत
नहीं होती है
देखने की
दर्द-ए-लकीर पीट चल

मत किया कर रहम

पिटती लकीर है
मजे में फकीर है
सो रहा जमीर है
अमीर अब और अमीर है

कलम
लिखती नहीं है
निकलता है
उसका दम

कविता कहानी
शब्दों की जवानी

कितने
दिलाती है ईनाम

कौन है
भगवान
इधर का
और कौन है
उधर का

इन्तजार कर

भक्ति में
कहीं किसी की
कुछ तो रम

बड़े बड़े
तीरंदाज हैं
दिखाते हैं
समझाते हैं
नबाब हैं

हरकतें
दिख जाती हैं
टिप्पणी में
किस जगह से
किस सोच
के आप हैं

शोर
करते चलिये
नंगों के लिये
हमाम हर जगह हैं
नहीं होते हैं कम

अंधा ‘उलूक’ है
देखता बेवकूफ है
ना जाने क्या क्या
शरम बेशरम

लिखता
जरूर है

कविता
कहानी
लिखने का

नहीं उसे
सहूर है

पता नहीं
कौन पाठक है

पाँच हजार
पाँवों के निशान

रोज दिखते
जरूर 
 हैं 
उनको नमन ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

सोमवार, 24 सितंबर 2018

बेकार की ताकत फालतू में लगाकर रोने के लिये यहाँ ना आयें

पता नहीं
ये मौके
फिर

कभी और
हाथ में आयें

चलो
कुछ भटके
हुओं को

कुछ और
भटकायें

कुछ
शरीफ से
इतिहास

पन्नों में
लिख कर लायें

बेशरम सी
पुरानी
किताबों को

गंगा में
धो कर के आयेंं

करना कराना
बदसूरत सा
अपना ना बतायें

खूबसूरत तस्वीरें
लाकर गलियों
में फेंक आयें

अच्छा लिखा
अच्छे आदमी
अच्छी
महफिल सजायें

तस्वीरें
झूठी समय की

समय की
नावों में रख
कर के तैरायें

अपने थाने
अपने थानेदार

अपने गुनाह
सब भुनायें

कल बदलती
है तस्वीर

थोड़ा उधर
को चले जायें

मुखौटे ओढ़ें नहीं
बस मुखौटे
ही खुद हो जायें

आधार पर
आधार चढ़ा कर
आधार हो जायें

मौज में
लिखे को
समझने के
लिये ना आयें

सारी बातें
सीधे सीधे
लिखकर
बतायें

‘उलूक’
जैसों की
बकबक को
किनारे लगायें

सच
का मातम
मनाना भी
किसलिये

खुश होकर
मिलकर
झूठ का
झंडा फहरायें ।

चित्र साभार: https://www.colourbox.com/

सोमवार, 3 सितंबर 2018

कुछ बरसें कुछ बरसात करें बात सुनें और बात सुनायें बातों की बस बात करें



किसी को लग पड़ कर कहीं पहुचाने की बात करें
रास्ते काम चलाऊ उबड़ खाबड़ बनाने की बात करें

कौन सा किसी को कभी कहीं पहुँचना होता है
पुराने रास्तों के बने निशान मिटाने की बात करें

बात करने में संकोच भी नहीं करना होता है
पुरानी किसी बात को नयी बात पहनाने की बात करें

बात है कि छुपती ही नहीं है दूर तक चली जाती है
बेशरम बात को कुछ शरम सिखाने की बात करें

खुद के धंधों में कुछ बेवकूफ होते हैं लगे ही रहते हैं
किसी और के धंधे को अपनी दुकान से पनपाने की बात करें

अपने घर के अपने बच्चे खुद ही बहुत समझदार होते हैं
दूसरों के बच्चों को अपनी बात से चलाने की बात करें

बातों का सिलसिला है सदियों से इसी तरह चलता है
कुछ बात की बरसात करें कुछ बरसात की बात करें

‘उलूक’देर रात गये बैठ कर उजाले की बात लिखता है
रहने भी दें किसलिये एक बेवकूफ की गफलतों की बात करें।

चित्र साभार: http://cliparting.com

रविवार, 24 दिसंबर 2017

लिखने वाले को लिखने की बीमारी है ये सब उसके अपने करम हैं । वैधानिक चेतावनी: (कृपया समझने की कोशिश ना करें)

डूबेगी नहीं
पता है
डुबाने वाला
पानी ही
बहुत
बेशरम है

बैठे हैं
डूबती हुई
नाव में लोग

हर चेहरे पर
फिर भी नहीं
दिख रही है
कोई शरम है

पानी नाव
में ही
भर रहा है
नाव वालों के
अपने भी
करम हैं

डुबोने वाले को
तैरने वालों के भी
ना जाने क्यों
डूब जाने
का भरम है

अच्छाई से
परेशान होता है
बुराई पर
नरम दिखता है
दिखाने के लिये
थानेदार
बना बैठा है

थाने का हर
सिपाही भी
नजर आता है
जैसे बहुत गरम है

लिखा होता है
बैनर होता है
आध्यात्मिक
होता है

ईश्वरीय होता है
विश्वविद्यालय होता है
सब कुछ परम है

याद आ गयी
तो देखने चल दिये
पता चलता है
 कुछ भी नहीं है
बस एक बहुत
बड़ा सा एक हरम है

अजीब है रिवायते हैं
किसी को पता
भी नहीं होता है
क्या करम है
क्या कुकरम हैं

बस देखता
रहता है ‘उलूक’
दिन में भी अंधा है
रात की चकाचौंध
का उसपर भी
कुछ रहम है ।

आभार: गूगल

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ प्रश्नों की जवाब हो जाये कोई कुछ पूछ भी ना पाये

छोटे छोटे
अपने आस
पास के
उलझे प्रश्नों
से उलझते
उलझते
हमेशा
उलझ जाने
वाले को
सुलझने
सुलझाने
के सपने
देख लेने
की आदत
डाल लेनी
ही चाहिये

बड़े देश
के बड़े
प्रश्नों को
उठाने
वालों को
थोड़ी सी
ही सही
शरम तो
आनी ही
चाहिये

अच्छा होता है
प्रेस काँफ्रेंस
के उत्तरों को
सुन कर
मनन कर
कंठस्थ
कर लेना
या
उठा लेना
जवाब
कहीं किसी
किताब
अखबार
या रद्दी की
टोकरी से
और
फिर शुरु
कर देना
खोलना
दुकान पर
दुकान
जवाबों की
इस गली
से लेकर
उस गली तक

प्रश्न उठे
कहीं से भी
उसके उठने
से पहले
दाग देना
ढेर सारे
जवाब

इतने जवाब
की दब दबा
कर मर ही
जायेंं सारे
प्रश्न घुट
घुट कर

मर जाने
के बाद भी
सुनिश्चित
कर लिया
जाये
ठोक कर
दो चार
और
जवाब
ऊपर से
ताकि
एन्काउंटर
पूरा हो जाये

फिर भी
बच जाये
जो बेशरम
प्रश्न इतना
सब होने
के बाद भी

उसे जवाबों
से घेर कर
इतना बेइज्जत
कर दिया जाये
कि कर ले जाये
कहीं भी जा
कर आत्महत्या
इस तरह कि
मरते मरते
खुद ही एक
जवाब हो जाये

प्रश्न की मौत
का मातम ही
जवाबों का
जश्न हो जाये

‘उलूक’
भूल से
भी ना
कह पाये
नहीं आया
समझ में
जवाब

जो सुने
जैसा सुने
जिधर से
सुने बस
ऊपर से
नीचे और
नीचे से
ऊपर की
तरफ हाँ
हाँ की
गरदन
हिलाये
बिना
पलकें
झपकाये ।

चित्र साभार: CartoonStock

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

विवेकानन्द जी आपसे कहना जरूरी है बधाई हो उस समय जब आपकी सात लाख की मूर्ति हमने अपने खेत में आज ही लगाई हो

अखबार खरीद कर
रोज घर लाने की
आदत पता नहीं
किस दिन तक
यूँ ही आदत
में शामिल रहेगी
पहले दिन से ही
पता रहती है जबकि
कल किसकी कबर
की खबर और
किस की खबर
की कबर बनेगी
मालूम रहता है
आधा सच हमेशा
आधे पन्ने में
लिख दिया जाता है
वैसे भी पूरी बात
बता देने से
बात में मजा भी
कहाँ रह जाता है
एक पूरी कहानी
होती है
एक मंदिर होता है
और वो किसी
एक देवता के
लिये ही होता है
देवता की खबर
बन चुकी होती है
देवता हनीमून से
नहीं लौटा होता है
मंदिर की भव्यता
के चर्चे से भरें होंगे
अखबार ये बात
अखबार खरीदने
वाले को पता होता है
मंदिर बनने की जगह
टाट से घिरी होती है
और एक पुराना
कैलैण्डर वहाँ
जरूर टंका होता है
वक्तव्य दर वक्तव्य
मंदिर के बारे में भी
और देवता
के बारे में भी
उनके होते हैं
जिनका देवताओं
पर विश्वास कभी
भी नहीं होता है
रसीदें अखबार में
नहीं होती हैं
भुगतान किस को
किया गया है
बताना नहीं होता है
किस की
निविदा होती है
किस को
भुगतान होता है
किस का
कमीशन होता है
किस ने
देखना होता है
कुत्तों की
जीभें होती हैं
बिल्लियों का
रोना होता है
‘उलूक’
तेरी किस्मत है
तुझे तो हमेशा
ही गलियों में
मुहँ छिपा कर
रोना होता है |

चित्र साभार : http://marialombardic.blogspot.com/

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

वैसे तो फेसबुक पर जो भी चाहे एक खाता खुलवा सकता है

लिखने लिखाने
के विषयों पर

क्या कहा
जा सकता है

कुछ भी कभी भी
खाली दिमाग को

फ्यूज होते
बल्ब के जैसे
चमका सकता है

कभी
घर की
एक बात
उठ सकती हैं

कभी
पड़ोसी का
पड़ोसी से पंगा

एक मसालेदार
मीनू बना सकता है

काम करने
की जगह पर
एक नहीं
कई पाकिस्तान
बनते बिगड़ते ही हैं

रोज का रोज
नवाज शरीफ
के भेजे आम
एक आम आदमी
कहाँ पचा सकता है

घर पर
आता भी हो
अगर
अखबार रोज

सामने के पन्ने
की खबरों पर
ज्यादा कुछ नहीं
कहा जा सकता है

उल्टी खोपड़ी वाले
उल्टा शुरु करते हैं
पढ़ना अखबार को

हमेशा ही
पता होता है
बस उन्हें ही

पीछे का पन्ना
कुछ ना कुछ
नया गुल
जरूर खिला
सकता है

‘अमर उजाला’
के पेज सोलह पर
आज ही छ्पी
शोध की खोज से
अच्छा विषय
क्या हो सकता है

लगा

ये तो
अच्छे खासों से
कुछ नया
कुछ करवा
सकता है

भारत
की खबरें
पकते पकाते
कच्ची पक्की
भले ही
रह सकती हैं

अमेरिका
से पका कर
भेजा हुआ ही
बिना जले भुने
भी आ सकता है

कहा गया है
बहुत दावे के साथ

‘शर्मीले लोग
फेसबुक पर बिताते
हैं ज्यादा वक्त’

दो सौ
प्रतिशत
सत्य है

और
बेशरमों को
ये
वक्तव्य
बहुत
बड़ी
राहत भी

दिलवा
सकता है


‘उलूक’
बेशरम
भी है


और

फेसबुक
पर भी

बिताता है
ज्यादा समय

किसी ने
कहाँ
किया

है शोध

कि
शोध
करने वालों
का हर तीर

निशाने
पर
जा
कर
ठिकाना
बना सकता है । 



चित्र: गूगल से साभार ।  

सोमवार, 7 जुलाई 2014

आता रहे कोई अगर बस प्रश्न पूछने के लिये आता है

बेशरम
भिखारी को
भी शरम
आती जाती है
जब कोई
पूछना शुरु
हो जाता है
उन सब
चीजों के
बारे में
जो नहीं
होती हैं
पास में
पूछने
वाले के

पास होते हैं
हकीकत
से लेकर
सपने सभी

जो भी मिल
जाता है
आज
बाजार में
नकद की
जरूरत
होती ही नहीं
सब कुछ
उपलब्ध
है जब
उधार में

उधारी का रहना
उधारी का गहना
उधारी की सवारी
उधारी की खुमारी
उधारी के ख्वाब
उधारी का रुआब

और
एक बेचारा
सपनों का मारा
जाती है उसकी
मति भी मारी
नहीं ले
पाता है जब
कुछ भी उधारी

झेलता है
प्रश्नो की
तीखी बौछार
पूछ्ने वाला
पूछना कुछ
नहीं चाहता है
बैचैनी उधारी
के साथ
मुफ्त में नकद
खरीद लाता है
चैन उधार में
मिलता नहीं कहीं

उस भिखारी
से पूछने
चला आता है
जो उधारी
नहीं ले पाता है
चैन से पीता है
चैन से खाता है

‘उलूक’
अपनी नजर
से ही
देखा कर
खुद को

किसी की
नजर में
किसी के
भिखारी
हो भी
जाने से
कौन
भीख में
चैन दे
पाता है
उधारी की
बैचेनी
खरीद कर
क्यों
अपनी नींद
उड़ाना
चाहता है
पूछ्ने से
क्या डरना
अगर कोई
पूछ्ने भी
चला
आता है ।

गुरुवार, 1 मई 2014

क्या किया जाये अगर कभी मेंढक बरसात से पहले याद आ जाते हैं



कूँऐं के 

अंदर से चिल्लाने वाले मेढक की 

आवाज से परेशान क्यों होता है 

उसको
आदत होती है शोर मचाने की 

उसकी तरह का
कोई दूसरा मेंढक 
हो सकता है वहाँ नहीं हो 
जो समझा सके उसको 

दुनिया गोल है
और बहुत विस्तार है उसका
यहाँ से शुरु होती है और
पता नहीं कहाँ कहाँ तक फैली हुई है 

हो सकता है 
वो नहीं जानता हो कि किसी को 
सब कुछ भी पता हो सकता है 

भूत भविष्य और वर्तमान भी 

बहुत से मेंढक 
कूँऐं से कूद कर 
बाहर भी निकल जाते हैं 
जानते हैं कूदना बहुत ऊँचाई तक 

ऐसे सारे मेंढक 
कूँऐं के बाहर निकलने के बाद 
मेंढक नहीं कहलाते हैं 

एक मेंढक होना 
कूँऐं के अंदर तक ही ठीक होता है 

बाहर 
निकलने के बाद भी मेंढक रह गया 
तो फिर
बाहर आने का क्या मतलब रह जाता है 

वैसे 
किसी को ज्यादा फर्क भी नहीं 
पड़ना चाहिये 

अगर 
कोई मेंढक अपने हिसाब से कहीं टर्राता है 
किसी के 
चुप चुप कहने से बाज ही नहीं आता है 

होते हैं बहुत से मेंढक 
जरा सी आवाज से चुप हो जाते हैं 

और 'उलूक'
कुछ सच में 
बहुत बेशरम और ढीट होते हैं 

जिंदगी भर बस टर्राते ही रह जाते हैं ।

चित्र साभार:
https://www.shutterstock.com/

बुधवार, 12 मार्च 2014

तेरा जैसा उल्लू भी तो कोई कहीं नहीं होता

                                                                        
अब भी समय है
समझ क्यों नहीं लेता
रोज देखता रोज सुनता है
तुझे यकीं क्यों नहीं होता

ये जमाना
निकल गया है बहुत ही आगे
तुझे ही रहना था बेशरम इतने पीछे
कहीं पिछली गली से ही कभी चुपचाप
कहीं को भी
निकल लिया होता

बहुत बबाल करता है 
यहाँ भी और वहाँ भी
तरह तरह की
तेरी शिकायतों के पुलिंदे में 
कभी कोई छेद क्यों नहीं होता

सीखने वाले
हमेशा लगे होते हैं
सिखाने वालों के आगे पीछे
कभी तो सोचा कर
तेरे से सीखने वाला कोई भी
तेरे आस पास क्यों नहीं होता
  
बहुत से अपने को
 मानने लगे हैं अब सफेद कबूतर
सारे कौओं को पता है ये सब
काले कौओ के बीच में रहकर
काँव काँव करना
बस एक तुझसे ही क्यों नहीं होता

पूँछ उठा के
देखने का जमाना ही नहीं रहा अब तो
एक तू ही पूँछ की बात हमेशा पूछता रहता है
जान कर भी
पूँछ हिलाना अब सामने सामने कहीं नहीं होता

गालियाँ खा रहे हैं सरे आम सभी कुत्ते
सब को पता है
आदमी से बड़ा कुत्ता कहीं भी नहीं होता

कभी तो सुन लिया कर दिल की भी कुछ "उलूक"
दिमाग में बहुत कुछ होने से कुछ नहीं होता ।

चित्र साभार: https://vector.me/

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

इस देश में जो शरमाता है वही बेशरम कहलायेगा

पता था ईमानदार
बनकर सरकार
नहीं चला पायेगा
भ्रष्टाचार से चलते
हों जहाँ घर तक
उस देश में कैसे
तुझे ज्यादा दिन
तक मौज मनाने
का आसान मौका
दे दिया जायेगा
अच्छा किया जो
इस्तीफा दे दिया
अब सारे ईमानदारी
के ठेकेदारों के
नाम से दुबारा
टेंडर खुलवाया जायेगा
आम आदमी की टोपी
और आम आदमी का
गाना गा कर आंखिर
कितनी दूर तक
कोई चल पायेगा
बहुत अच्छा किया
जो भी किया
चल सड़क पर आजा
फिर से कुछ नये
क्राँतिकारी गीत सुनायेगा
मीडिया फिर से
टी आर पी के जुगाड़
के लिये तेरी कुछ
नई कहाँनियाँ कुछ
नये नाटक बनायेगा
इस देश में बस
वही टिक पायेगा
जो मुँह में राम
बगल में छुरी दबायेगा
हर मौहल्ले में
जिस देश की
होती है पुराने
चोरों की बहुत
सी गलियाँ
वहाँ किसी भी
नये प्रयोग करने
वाले को इसी तरह
लात मार मार कर
भगा दिया जायेगा
उसके बाद भगाने
वालों का जत्था ही
लगा कर राम और
रहीम के मुखौटे
बेवकूफ जनता को
ईमानदारी से वोट
देने के लिये उकसायेगा
अच्छा किया तूने
बहुत अच्छा किया
पर क्या तू फिर से
गधे की सवारी करने
के लिये दुबारा
गधों के दरबार में
कभी और किसी
दिन हाजिरी लगायेगा
हो सकता है
कुछ तरस खा कर
अगली बार गधा
तुझे हल्की दुलत्ती
लगा कर ही
खुश हो जायेगा
कर फिर कुछ कर
हमारे पास भी
कोई काम
धाम नहीं है
फिर से कुछ
बकवास करने
का एक मौका
हमारे हाथ में
तब भी आ जायेगा ।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

मछली एक भी जिंदा रहेगी तालाब की मुसीबत ही बनेगी !

तुझे
बहुत दिनो से कुछ हो रहा है 

ऎसा कुछ
मुझे महसूस हो रहा है 

बहुत सी बातेंं
लोग आपस में कर रहे हैं 

तेरे सामने कहने से
लगता है डर रहे हैं 

मेरी
समझ में
थोड़ा थोड़ा कुछ आ रहा है 

आजकल
तू हर जगह
गाड़ी के ब्रेक और एक्सीलेटर
अपने हाथ में लेकर
क्यों जा रहा है 

किसी के
पीछे पहुँच कर
ब्रेक लगा रहा है 
किसी के
आगे से एक्सीलेटर
जोर से दबा रहा है 

समझता
क्यों नहीं है 
ऎसे क्या
किसी को तू रोक पायेगा 

जो कर रहे हैं
खुले आम बहुत कुछ 
काबू में
ऎसे ही कर ले जायेगा 

और क्या
ऎक्सीलेटर दे कर
किसी को भी
तू चला ले जायेगा 

खाली खाली
किसी से ऎसी क्यों उम्मीदें अपनी जगायेगा 
जो किसी को रोकने
तेरे साथ दौड़ा दौड़ा चला आयेगा 

ईमानदार
होने का मतलब
बेशरम होना होता है

ये बात
ना जाने तू
कब समझ में अपनी लायेगा 

शरम
तो बस
एक बेशरम को ही आती है 
जो सामने सामने
चेहरे पर झलक जाती है 

तेरी सूरत
हमेशा से रोनी नजर आती है 
नजर डाल
उस तरफ ही
सारी लाली चली जाती है 

दर्द
बढ़ते बढ़ते दवा हो जाता है 
ये ही सोच के
तू भी थोड़ा सा बेशरम
क्यों नहीं हो जाता है 

तेरी
सारी परेशानियां
उस दिन खत्म हो जायेंगी 
जिस दिन से तुझे भी शरम थोड़ी
आनी शुरु हो जायेगी 

सारी
मछलियाँ तालाब की
तब एक सी हो जायेंगी 

एक सड़ी मछली
गंदा करती है तालाब वाली
कहावत ही बेकार हो जायेगी 

उसी दिन से पाठ्यक्रम में
नई लाईने डाल दी जायेंगी 

जिस दिन
सारी मछलियाँ
सड़ा दी जाती हैं 

तालाब की बात
उस दिन के बाद से
बिल्कुल भी
कहीं नहीं की जाती है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

शनिवार, 23 मार्च 2013

बेशरम उलूक है तू नहीं !

सबको
आता है 

बहुत
आता है

हवा देना
किसी भी बात को

नहीं आता है
लेकिन
कह देना
खुद बा खुद
उसी बात को

हर बात पर
ढूँता है वो
एक मुँह

जो कह डाले
खुले आम
उस बात को

उसकी
इसी बात
से वो खास
हो जाता है

कल तक
आम होता है
आज बादशाह
हो जाता है

बात उसकी
कहने वाला
भी बहुत
खास हो
जाता है

वो बहुत
सालों से
इसी तरह
कर रहा है
बातों की बातें

बहुत
बेशरम है वो
लेकिन
कपडे़ शानदार
पहन के आता है

देखने वाले
इज्जत से पेश
आते हैं

सारे के सारे
आस पास वाले
किसी को पता
भी नहीं होता है

घर जाता है
तो तबियत से
जूते खाता है

अब क्या क्या
कहानी सुनाये
‘उलूक’
किस किस को
यहाँ आ के

उसको तो
आदत है
कहने की

जो
किसी से
कहीं नहीं
कभी
कहा जाता है ।

सोमवार, 21 जनवरी 2013

राम नहीं खोल सकता कोई वैंडर तेरे नाम का टेंडर

सोच रहा था
कल से

इस पर
कुछ भी नहीं
लिखना
विखना चाहिये

करने
वाले को
कौन सा इसे
पढ़ ही लेना है

मुझे भी
बस चुप ही
रहना चाहिये

पर
मिर्ची खाने पर
पानी पीना कभी
 ही जाता है

सू सू
की आवाज
बंद भी
कर ली जाये

तब भी
मुँह लाल
होना तो
सामने वाले को
दिख ही जाता है

इसलिये
रहा नहीं गया

जब देखा
स्वयंवर
टाला ही
जा चुका है

सारे के सारे

बनाये गये
रामों को

दाना
डाला जा चुका है

बेशरम
राम बनने का
जुगाड़ लगा रहे थे

देख
भी नहीं रहे थे

राम
की मुहर जब

ना
जाने कब से

वो
अपने पास ही
दिखा रहे थे

अब जब राम
भगवान होते हैं
पता था इन सबको

फिर
ये कैसे
सीता को
पाने के सपने
देखे जा रहे थे

खेमे पर खेमे
किसलिये बना रहे थे

सुग्रीव
भी बेचारे
इधर से उधर
जाने में अपना
समय पता नहीं
क्यों गंवा रहे थे

रावण
के परिवार की तरह
राज काज जब
संभाला जा रहा था

लोगों को
दिखाने के लिये
रावण का पुतला भी
निकाला जा रहा था

सीता के
अपहरण के लिये
राम बनकर ही मौका
निकाला जा रहा था

कैसे
हो जायेगा
स्वयंवर
उसके बिना मूर्खो

जब
उसने अभी तक

अपना
रामनामी चोला
अभी नहीं उतारा था ।