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बुधवार, 3 जनवरी 2024

रोज पढ़े फिर याद करे ‘उलूक’ उल्लू का अखबार


उल्लू के अखबार में छपे सफ़ेद ही समाचार
काले पढ़ नहीं पाते कुछ गोरे डालें बस अचार

काला काला देखता सफ़ेद देखता एक के चार
इन्द्रधनुष छुट्टी ले बैठा बंद कर पानी की बौछार

मतलब लिखता बेमतलब का रोज बजाता पौने चार
किसने पढ़ना किसने गुनना पत्ते खेल रहे सरकार

जोकर के हाथों में सब कुछ इक्के गुलाम बादशाह बेकार
याद करें कुछ बाराहखडी कुछ करें दिन फिरने का इंतज़ार

फिर से फिर फिर आयेंगे अच्छे दिन बारम्बार हर बार
खींच तान कर नींद निकालो चिन्ता चिता मान कर यार

लिख कर मिटा मिटा कर लिख रेत रेत सपने हजार
रोज पढ़े फिर याद करे ‘उलूक’ उल्लू का अखबार

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 14 नवंबर 2020

बकवासी ‘उलूक’ फिर से निकली है धूप अँधेरे से निकल दीवाली दिन में सही कुछ नया कर ही डाल

 


चल
कुछ तो निकाल

बहुत दिन हो गये
अब
कुछ भी सही
आज
फिर से लिख डाल 

आदत
रोज बकने की ना दबा

कब्र खोद
हड्डियाँ शब्दों की सही
मरी ही निकाल 

फटी
जेब ले खंगाल

बड़े नोटों को दे
श्रद्धाँजलि
चिल्लर ही सही
तबीयत से उछाल 

सम्भाल दे
ना अनकही
कूड़ा कूड़ा हो कमाल

सड़े को
फिर ना सड़ा
मसाला कुछ मिला

अचार ही सही
कुछ तो बना डाल 

जन्मदिन
बापू चाचा ताऊ

बहुत हो गये
नया शगूफा निकाल

दिवाली मना
पठाके ही नहीं 
सब कुछ जला डाल

कहाँ है कॉरोना
किस बात का है रोना

मुँह खोल हाथ मिला
गले मिल प्यार जता

किस बात की
नाराजगी
भीड़ जुलूस ही सही
पहन सर ही पर रुमाल

उल्लुओं की कथायें
उल्लू की जुबानी

पंडाल
एक लगा
बातें बना कर उड़ा
कुछ दावतें ही दे डाल 

बहुत
हो चुकी सच्चाई 
झूठ के पैर दिखा डाल

डट ले
गद्दी सम्भाल
बहुत दिन रह लिया चुप
चल
बड़ी जीभ निकाल
 
रोज का रोज ना कही
हफ्ते पंद्रह दिन
ही सही
कुछ तो कर बबाल

चल
कुछ तो निकाल
बहुत दिन हो गये
अब

कुछ भी सही
‘उलूक’
आज फिर से
कुछ तो लिख डाल ।

चित्र साभार: https://pooh.fandom.com/

शनिवार, 29 सितंबर 2018

निशान किये कराये के कहीं दिखाये नहीं जाते हैं

शेर
होते नहीं हैं
शायर
समझ नहीं पाते हैं

कुछ इशारे
गूँगों के समझ में
नहीं आते हैं

नदी
होते नहीं हैं
समुन्दर
पहुँच नहीं पाते हैं

कुछ घड़े
लबालब भरे
प्यास नहीं बुझाते हैं

पढ़े
होते नहीं हैं
पंडित
नहीं कहलाते हैं

कुछ
गधे तगड़े
धोबी के
हाथ नहीं आते हैं

अंधे
होते नहीं हैं
सच
देखने नहीं जाते हैं

कुछ
आँख वाले
रोशनी में
चल नहीं पाते हैं

अर्थ
होते नहीं हैं
मतलब
निकल नहीं पाते हैं

कुछ भी
लिखने वाले को
पढ़ने नहीं जाते हैं

काम
करते नहीं हैं
हरामखोर
बताये नहीं जाते हैं

कुछ
शरीफों के
समाचार
बनाये नहीं जाते हैं

लिखते
कुछ नहीं हैं
पढ़ने
नहीं जाते हैं

करते
चले चलते हैं
बहुत कुछ

‘उलूक’
निशान
किये कराये के
दिखाये नहीं जाते हैं ।

चित्र साभार: www.fotolia.com

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

पट्टे के रंग के जादू में किसलिये फंसना चाह रहा है बता कहीं दिखा कोई उल्लू जो रंगीन पट्टा पहन कर किसी गुलिस्ताँ को उजाड़ने जा रहा है

एक पट्टा
गले में
पहन लूँ

कई दिन से
विचार आ रहा है

रंग उसका
क्या होना चाहिये

 बस यही
समझ में
नहीं आ रहा है

जमाने में रहकर
जमाने से कितना
पिछड़ गया हूँ

हर पट्टा
पहना हुआ
जैसे मुझे ही
चिढ़ा रहा है

किसम
किसम के हैं
सारे इंद्रधनुषी हैं

सभी पहने हुऐ हैं
एक रंग के पट्टे हैं

आभासी जंजीर
भी नजर आ रही है

मालिक है
जो चाहे करे

भौंकना तो
कम से कम
सिखा रहा है

रंग
इन्द्रधनुष
का एक
पता नहीं
किसके लिये
और क्यों
बौरा रहा है

‘उलूक’
उल्लू है
बना रह

किसी शाख
पर बैठ कर
गुलिस्ताँ को
उजाड़ने
तो तू भी
जा रहा है

किसी
एक रंग के
पट्टे को
पहन कर कोई
उसी रंग में
रंगीन कुछ
भौंकना चाह रहा है

तेरा जी
किस लिये
मिचला रहा है
यही गले से
नीचे उतर
नहीं पा रहा है

एक पट्टा
किसी का भी
तू भी अपने लिये
क्यों नहीं
बना पा रहा है

यही
एक प्रश्न
बिना उत्तर का
यहाँ वहाँ
पगला रहा है ?

चित्र साभार: http://clipartmag.com

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

किसी दिन सोचा कुछ और लिखा कुछ और ही दिया जाता है

सब कुछ तो नहीं
पर कुछ तो पता
चल जाता है
ऐसा जरूरी तो नहीं
फिर भी कभी
महसूस होता है
सामने से लिखा हुआ
लिखा हुआ ही नहीं
बहुत कुछ और
भी होता है
अजीब सी बात
नहीं लगती है
लिखने वाला
भी अजीब
हो सकता है
पढ़ने वाला भी
अजीब हो सकता है
जैसे एक ही बात
जब बार बार
पढ़ी जाती है
याद हो जाती है
एक दो दिन के लिये
ही नहीं पूरी जिंदगी
के लिये कहीं
सोच के किसी
कोने में जैसे
अपनी एक पक्की
झोपड़ी ही बना
ले जाती है
अब आप कहेंगे
झोपड़ी क्यों
मकान क्यों नहीं
महल क्यों नहीं
कोई बात नहीं
आप अपनी सोच
से ही सोच लीजिये
एक महल ही
बना लीजिये
ये झोपड़ी और महल
एक ही चीज
को देख कर
अलग अलग
कर देना
अलग अलग
पढ़ने वाला
ही कर पाता है
सामने लिखे हुऐ
को पढ़ते पढ़ते
किसी को आईना
नजर आ जाता है
उसका लिखा
इसके पढ़े से
मेल खा जाता है
ये भी अजीब बात है
सच में
इसी तरह के आईने
अलग अलग लिखे
अलग अलग पन्नों में
अलग अलग चेहरे
दिखाने लग जाते है
कहीं पर लिखे हुऐ से
किसी की चाल ढाल
दिखने लग जाती है
कहीं किसी के उठने
बैठने का सलीका
नजर आ जाता है
किसी का लिखा हुआ
विशाल हिमालय
सामने ले आता है
कोई नीला आसमान
दिखाते दिखाते
उसी में पता नहीं कैसे
विलीन हो जाता है
पता कहाँ चल पाता है
कोई पढ़ने के बाद की
बात सही सही कहाँ
बता पाता है
आज तक किसी ने
भी नहीं कहा
उसे पढ़ते पढ़ते
सामने से अंधेरे में
एक उल्लू
फड़फड़ाता हुआ
नजर आता है
किसने लिखा है
सामने से लिखा 
हुआ कुछ कभी 
पता ही नहीं 
लग पाता है 
ऐसे लिखे हुऐ 
को पढ़ कर 
शेर या भेड़िया 
सोच लेने में
किसी का
क्या जाता है ।
http://www.easyvectors.com

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

अपने दिमाग ने अपनी तरह से अपनी बात को अपने को समझाया होता है

कल का लिखा
जब कोई नहीं
पढ़ पाया होता है

फिर क्यों आज
एक और पन्ना

और उठा कर
ले आया होता है

कितनी बैचेनी
हो जाती है
समझ में ही
नहीं आती है

बस यही बात
कई बार
बात के ऊपर
बात रखकर
जब फालतू में
इधर से उधर
घुमाया होता है

पता होता है
होता है बहुत कुछ
बहुत जगहों पर

पर तेरे यहाँ का
हर आदमी तो जैसे
एक अलग देश से
आया हुआ होता है

तेरी समस्याओं
का समाधान
शायद होता हो
कहीं किसी
हकीम के पास

आम आदमी
कहीं भी किसी
चिकित्सक ने
तेरी तरह का नहीं
बताया होता है

नहीं दिख रहा है
कोई बहुत दिनों से
काम में आता हुआ

अलग अलग दल के
महत्वपूर्ण कामों
के लिये बहुत से
लोगों को बहुत सी
जगहों पर भी तो
लगाया होता है

हैलीकाप्टर उतर
रहा हो रोज ही
उस खेत में जहाँ पर

अच्छा होता है
अगर  किसी ने
धान गेहूँ जैसा
कुछ नहीं कहीं
लगाया होता है

आसमान
से उड़ कर
आने लगते हैं
गधे भी कई बार 


उलूक ऐसे में ही
समझ में आ जाता है
तेरी बैचेनी का सबब

खुदा ने
इस जन्म में
तुझे ही बस
एक गधा नहीं
खाली बेकार
का लल्लू
यानि उल्लू
इसीलिये शायद
बनाया होता है

अपनी अपनी
किस्मत
का खेल है प्यारे

कुछ ही
भिखारियों
के लिये
कई सालों में
एक मौका

बिना माँगे
भीख मिल
जाने का
दिलवाया
होता है ।  

बुधवार, 12 मार्च 2014

तेरा जैसा उल्लू भी तो कोई कहीं नहीं होता

                                                                        
अब भी समय है
समझ क्यों नहीं लेता
रोज देखता रोज सुनता है
तुझे यकीं क्यों नहीं होता

ये जमाना
निकल गया है बहुत ही आगे
तुझे ही रहना था बेशरम इतने पीछे
कहीं पिछली गली से ही कभी चुपचाप
कहीं को भी
निकल लिया होता

बहुत बबाल करता है 
यहाँ भी और वहाँ भी
तरह तरह की
तेरी शिकायतों के पुलिंदे में 
कभी कोई छेद क्यों नहीं होता

सीखने वाले
हमेशा लगे होते हैं
सिखाने वालों के आगे पीछे
कभी तो सोचा कर
तेरे से सीखने वाला कोई भी
तेरे आस पास क्यों नहीं होता
  
बहुत से अपने को
 मानने लगे हैं अब सफेद कबूतर
सारे कौओं को पता है ये सब
काले कौओ के बीच में रहकर
काँव काँव करना
बस एक तुझसे ही क्यों नहीं होता

पूँछ उठा के
देखने का जमाना ही नहीं रहा अब तो
एक तू ही पूँछ की बात हमेशा पूछता रहता है
जान कर भी
पूँछ हिलाना अब सामने सामने कहीं नहीं होता

गालियाँ खा रहे हैं सरे आम सभी कुत्ते
सब को पता है
आदमी से बड़ा कुत्ता कहीं भी नहीं होता

कभी तो सुन लिया कर दिल की भी कुछ "उलूक"
दिमाग में बहुत कुछ होने से कुछ नहीं होता ।

चित्र साभार: https://vector.me/

गुरुवार, 6 मार्च 2014

एक अरब से ऊपर के उल्लू हों चार पाँच सौ की हर जगह दीवाली हो

कहाँ जायेगा
कहाँ तक जायेगा
वही होना है
यहाँ भी
जिसे छोड़ कर
हमेशा तू
भाग आयेगा
भाग्य है अरब
से ऊपर की
संख्या का
दो तीन चार
पाँच सौ
के फैसलों पर
हमेशा ही
अटक जायेगा
उधर था वहाँ भी
इतने ही थे
इधर आया
यहाँ भी
उतने ही हैं
फर्क बहुत बारीक है
वहाँ सामने दिखते हैं
यहाँ बस कुछ शब्द
फैले हुऐ मिलते हैं
कुर्सी हर जगह है खाली
हर जगह होती है
वहाँ भी बैठ
लेता है कोई भी
यहाँ भी बैठ
लेता है कोई भी
परिक्रमा करने
वाले हर जगह
एक से ही होते हैं
कुर्सी पर बैठे हुऐ
के ही फैसले ही
बस फैसले होते हैं
कुर्सियां बहुत सी
खाली हो गई होती हैं
मामले गँभीर
सारे शुरु होते हैं
कहीं भी कोई अंतर
नहीं होता है
हर जगह एक
भारतीय होता है
अपने देश में
होता है तो ही
कुछ होश खोता है
दूसरे देश में
होने से ही बस
गजब होता है
इसलिये होता है
कि वहाँ का
कुछ कानून
भी होता है
यहाँ होता है तो
कानून उसकी
जेब में होता है
घर हो आफिस हो
बाजार हो लोक सभा हो
विधान सभा हो
कलाकारों का दरबार हो
ब्लागिंग हो ब्लागरों
का कारोबार हो
एक सा होता है
चाहे अखबारों का
कोई समाचार हो
एक अरब की
जनसंख्या पर
कुछ सौ का ही
कुछ एतबार हो
यहीं होता है
कुछ अनोखा
हर नुक्कड़ पर
जश्ने बहार हो
काँग्रेस हो
चप्पा चप्पा वाली हो
केजरीवाल की
बिकवाली हो
एक अरब से
ऊपर के लोगों को
फिर से वही
चार पाँच सौ के
हाथों ही होने
वाली दीवाली हो
कुर्सी भरी रहे
किसने भरी
किससे भरी
मेज को कौन सी
परेशानी कहीं भी
होने वाली हो
हर किसी के
लिखने के अंदाज
का क्या करेगा
“उल्लूक”
तेरी कलम से
निकलने वाली
स्याही ही कुछ
अजीब रंग जब
दिखाने वाली हो ।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

क्यों तू लिखे हुऐ पर एक्सपायरी डाल कर नहीं जाता है


ऐसा कुछ भी नहीं है जो लिखा जाता है
आदत पड़ जाये किसी को तो क्या किया जाता है

बहुत दिन तक नहीं चलता है
लिखे हुऐ को किसी ने नहीं देखा कहीं
रेफ्रीजिरेटर में रखा जाता है

दुबारा पलट कर देखने वैसे भी तो कोई नहीं आता है
एक बार भी आ गया तब भी तो बहुत गजब हो जाता है

बिकने वाला सामान भी नहीं होता है
फिर भी पहले से ही मन बना लिया जाता है

एक्स्पायरी एक दिन की ही है
बताना भी 
जरूरी नहीं हो जाता है

दाल चावल बीन कर हर कोई खाना चाहता है
कुछ होते है जिन्हें बस कीड़ोँ को ही गिनने में मजा आता है

रास्ते में ही लिखता हुआ चलने वाला
मिट जाने के डर से भी लौट नहीं पाता है

शब्द फिर भी कुचला करते हैं
आसमान पढ़ते हुऐ चलने वाला भी
उसी रास्ते से आता जाता है

बड़ी बड़ी बातें समझने वाले और होते हैं
जिनके लिखने लिखाने का हल्ला
कुछ लिखने से बहुत पहले ही हो जाता है

"कदर उल्लू की उल्लू ही जानता है
चुगत हुमा को क्या खाक पहचानता है"

उलूक की महफिल में ऐसा ही एक शेर
किसी उल्लू के मुँह से ही यूँ ही नहीं फिसल जाता है ।

चित्र साभार: http://www.amzbolt.com/blog/Decoding-best-before-and-expiry-date-labels/index.aspx

शनिवार, 26 जनवरी 2013

डाक्टर नहीं कहता कबाड़ी का लिखा पढ़ने की कोशिश कर



आसानी से
अपने आस पास की मकड़ी हो जाना

या फिर एक केंचुआ मक्खी या मधुमक्खी
पर आदमी हो जाना सबसे बड़ा अचम्भा

उसपर जब चाहो
मकड़ी कछुऎ बिल्ली कुत्ते उल्लू
या एक बिजली का खम्बा छोटा हो या लम्बा

समय के हिसाब से
अपनी टाँगों को यूं कर ले जाना

उस पर मजे की बात
पता होना कि कहाँ क्या हो रहा है
पर
ऎसे दिखाना जैसे सारा जहाँ
बस उसके लिये ही तो रो रहा है

वो एहसान कर
हंसने का ड्रामा तो कर रहा है
शराफत से निभाना

गाली को गोली की तरह पचाना
सामने वाले को
सलाम करते हुऎ बताते चले जाना
समझ में सबकुछ ऎसे ही आ जाना

पर दिखाना
जैसे 
बेवकूफ हो सारा का सारा जमाना
टिप्पणी करने में हिचकिचाना

क्योंकी
पकडे़ जाने का क्यों छोड़ जाना
एक कहीं निशाना

चुपके से आना पढ़ ले जाना
मुस्कुराना और बस सोच लेना

एक बेवकूफ को
अच्छा हुआ कि कुछ नहीं पढ़ा
अपनी ओर से कुछ भी बताना ।

चित्र साभार: https://www.thequint.com/

बुधवार, 7 नवंबर 2012

ले खा एक स्टेटमेंट अखबार में और दे के आ

पागल उल्लू

आज फिर

अपनी
औकात
भुला बैठा

आदत
से बाज
नहीं आया

फिर
एक बार
लात खा बैठा

बंदरों के
उत्पात पर
वक्तव्य
एक छाप

बंदरों के
रिश्तेदारों के

अखबार
के दफ्तर
दे कर
आ बैठा

सुबह सुबह
अखबार में

बाक्स में
खबर
बड़ी सी
दिखाई
जब पड़ी

उल्लू के
दोस्तों के
फोनो से

बहुत सी
गालियाँ
उल्लू को
सुनाई पड़ी

खबर छप
गई थी

बंदरों के
सारे
कार्यक्रमों
की फोटो
के साथ

उल्लू
बैठा था
मंच पर

अध्यक्ष
भी बनाया
गया था

बंदरों के
झुंड से
घिरा हुआ

बाँधे
अपने
हाथों
में हाथ ।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पकौड़ी


दर्द जब होता है हर कोई दवाई खाता है
तुझे क्या ऎसा होता है कलम उठाता है ।

रोशनी के साथ मिलकर ही इंद्रधनुष बनाता है
अंधेरे में आँसू भी हो तो पानी हो जाता है ।

सपना देखता है एक तलवार चलाता है
लाल रंग की स्याही देखते ही डर जाता है ।

सोच को चील बना ऊँचाई पर ले जाता है
ख्वाब चीटियों से भरा देख कर मुर्झाता है ।

हुस्न और इश्क की कहानी बहुत सुनाता है
अपनी कहानी मगर हमेशा भूल जाता है ।

बहुत सोचने समझने के बाद समझाता है
समझने वाला हिसाब लेकिन खुद लगाता है ।

दुखी होता है जब जंगल निकल जाता है
डाल पर उल्लुओं को देख कर मुस्कुराता है ।

रोज का रोज मान लिया जलेबी बनाता है
पकौड़ी बन गई कभी किसी का क्या जाता है ।
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जलेबी तो हो गयी पकौड़ी अब इस पर 
रविकर जी की टिप्पणी का मजा लीजिये




रोज जलेबी खा रहा, हो जाता मधुमेह |
इसीलिए दिखला रहा, आज पकौड़ी नेह |

आज पकौड़ी नेह, खूब चटकारे मारे |
लेता जम के खाय, रात बार बड़ा डकारे |

सके न चूरन फांक, जगह जो पूरी फुल है |
बैठा जाके शाख, यही तो इसका हल है ||
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चित्र साभार: peurecipes.blogspot.com

रविवार, 19 अगस्त 2012

खबर

बहुत से समाचार
लाता है रोज
सुबह का अखबार
कहाँ हुई कोई घटना
किस का टूटा टखना
मरने मारने की बात
लैला मजनूँ की बारात
कौन किसके साथ भागा
कहाँ पड़ गया है डाका
ज्यादातर खबर होती हैं
देखी हुई होती हैं
और पक्की होती हैं
सौ में पिचानवे
सच ही होती हैं
इन सब में से
मजेदार होती है
वो खबर जो कहीं
तैयार होती है
रात ही रात में बिना
कोई बीज को बोये
सुबह को एक ताड़
का पेड़ होती हैं
इस के लिये पड़ता है
किसी को कुछ
कुछ खुद बताना
चार तरह के लोगों से
चार कोनों में शहर के
एक जोर का ऎसा
भोंपू बजवाना
जिसकी आवाज का हो
किसी को भी सुनाई
में ना आना
जोर का हुआ था शोर
ये बात बस अखबार से ही
पता किसी को चल पाना
या कुछ बंदरों को जैसे
केलों के पेडो़ के
सपने आ जाना
बंदरों के सपनो की बातें
सियारों के सोर्स से
पता चल जाना
इसी बात को
गायों का भी
रम्भा रम्भा
कर सुनाना
पर अलग अलग
अखबार में
केलों के साईज का
अलग अलग हो जाना
बता देती है खबर किस
खेत में उगाई गयी है
मूली के बीच को बोकर
गन्ना बनाई गयी है
पर मूली गन्ने
और बंदर के केले को
किसी को भी
कहाँ खाना होता है
पता ये चल जाता है
कि किस पैंतरेबाज को
खबर पढ़ने वालों को
उल्लू बनाना होता है
बेखबर होते हैं ज्यादातर
खबर पढ़ने वाले भी
उनको कुछ समझ में
कहाँ आना होता है
पेंतरेबाजों को तो अपना
उल्लू कैसे भी सीधा
करवाना ही होता है ।

शनिवार, 9 जून 2012

उल्लू की रसोई

रोज
कोशिश
करता हूँ

कुछ
ना कुछ
पका ही
ले जाता हूँ

खुद
खाने के
लिये नहीं
यहाँ परोसने
के लिये
ले आता हूँ

कुछ
खाने वाले
खीर को
आईसक्रीम
बताते हैं

चीनी
डाली है
कहने पर
नमक तेज
डाल दिया
तक
कह जाते हैं

अब
रसोईया
वही तो
पका पायेगा

जिस
चीज का
कच्चा माल
अपने आस पास
उसे मिल जायेगा

खाने
वाले को पसंद
आये तो ठीक
नहीं भी आये
तब भी परोस तो
दिया ही जायेगा

कोई
थोड़ा खायेगा
कोई पूरा
खा जायेगा

कोई कोई
थाली को
सरका कर के
किनारे से
निकल जायेगा

किसी के मन
बहुत ज्यादा
भा गया
खाना मेरा
तो रोटियाँ
अपनी थाली
के लिये भी
उठा ले जायेगा
मेरा क्या जायेगा? 

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

झपट लपक ले पकड़

जमाना
वाकई में
बड़ी तेजी से
बदलता
जा रहा है

कौआ
कबूतर को
राजनीति
सिखा रहा है

कबूतर
अब चिट्ठियाँ
नहीं पहुंचाया
करता है

कौवा भी
कबूतर को
खाया नहीं
करता है

कौवा
उल्लुओं का
शिकार करने
की नयी
जुगत
बना रहा है

कौवा
कबूतर
भेज कर
उल्लूओं को
फंसा रहा है

ये पक्षियों
को क्या होता
जा रहा है

पारिस्थितिकी
को क्यों इस तरह
बिगाड़ा जा रहा है

"आदमी की
संगत का असर 

पक्षियों का
राजनीतिक
सफर"

मूँछ मे
ताव देता
एक प्रोफेसर
टेढ़े टेढ़े मुंह से
हंसता हुवा
यू जी सी की
संस्तुति हेतु
एक करोड़
की परियोजना
बना रहा है।