उलूक टाइम्स

बुधवार, 16 जुलाई 2014

ध्यान हटाना भी कभी बहुत जरूरी होता है

कहाँ लिखा
जाता है
उस सब में से
थोड़ा सा
भी कुछ

जो हिलोरें
मार रहा
होता है
भावों की
उमड़ती
उन नदियों
के साथ
जो भावों के
समुद्र में
मिलते हुऐ भी
शांत होती हैं

लहरें उठती
जरूर हैं
पर तबाही
नहीं कहीं
होती है

जहाँ जिस
किसी के पास
सुकून होता है

लहरों के
लहरों से
मिलने का
मौका
बहुत भाव
पूर्ण होता है

सूखे हुऐ
नैनो में भी
कहीं किसी
कोने में
नमी होना
जैसा
महसूस होता है

मतलब साफ
कि रोना
होता है लेकिन
रोना शोक
का नहीं
चैन का होता है

रोना उसे
भी होता है
जिसके नैनों
में बस
पानी और
पानी होता है

नदियों का
समुद्र से
मिलन
भयानक
होता है
लहरें भी
होती हैं
तबाही भी
होती है

रोने रोने
का अंतर
बहुत ही
सूक्ष्म होता है

लिखने
लिखने का
अंतर भी
इतना ही
होता है

सब कुछ
साफ साफ
कभी नहीं
लिख पाता है
एक लिखने वाला

इधर का
छोड़ कर
उधर के
ऊपर ही
लिख लेने से
पूरा नहीं तो
अधूरा ही सही
बैचेनी को
चैन महसूस
होता है

रोज की बात
अलग होती है
बरसों में कभी
सावन हँस
नहीं बस
रो रहा होता है

'उलूक'
को कोई
सुने ना सुने
आदतन अपनी

कुछ ना कुछ
कह ही
रहा होता है ।

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

जब उधार देने में रोया करते हो तो किसलिये मित्र बनाया करते हो

मित्र बनते हो

सबसे कहते
फिरते हो

दिखाते हो
बहुत कुछ
सीना खोल
कर फिरते हो

सामने से कुछ
पीछे से कुछ
और और 

करते हो

जान तक देने
की बात सुनी
गई है कई बार
तुम्हारे मुँह से

चाँद तारे तोड़
कर लाने की
बात करते हो

कितने बेशरम
हो तुम यार

थोड़ा सा पैसा ही
तो मांगा उधार
देने से मुकरते हो

साल में
एक बार नहीं
चार पाँच बार
एक सी
बात करते हो

एक
माँगने पर
आधा दिया
करते हो

कहाँ
बेच कर
आते हो
मानवता को

एक साल
होता नहीं है
वापस माँगना
शुरु करते हो

सच में

बहुत ही
बेशरम हो यार

उधार देने में
बहुत ज्यादा
पंगा करते हो

कमजोर
दिल के
मालिक हो
और
मर्द होने का
दावा करते हो

दो चार बार
मांग लिया
क्या उधार

पाँचवी बार
से गायब
हो जाना
शुरु करते हो

मित्र
होने का
दम भरते हो

सच में

बहुत ही
बेशरम हो यार

यारों के यार
होने का दम

इतना
सब होने
के बाद भी
भरते हो ।

सोमवार, 14 जुलाई 2014

बात बनाने की रैसेपी या कहिये नुस्खा

अवयय:

1. थोड़े पैसे खर्चे के लिये,
2.  एक दो संस्थाये कुछ देने के          लिये,
3. चार पाँच एक सी सोच की              नामचीन हस्तियाँ,
4.  बिना किराये का हॉल या              बारात घर,
5. एक मेज, चार पाँच गद्दीदार कुर्सियाँ, दरी,
6. प्लास्टिक की कुछ और कुर्सियाँ, 
7. कुछ अखबार वाले मित्र,
8. घर का ही कोई एक फोटोग्राफर,
9. सरकारी कँप्यूटर, प्रिंटर, फैक्स, इंटरनेट कनेक्शन,
10. थोड़े रिश्तेदार,
11. कुछ नासमझ बेवकूफ लोग भीड़ बनाने के लिये
     और सबसे महत्वपूर्ण
12. एक गरम गरम बिकने वाला मुद्दा | 


 

बनाने की विधि:

बात 

पर बात
बनाने की विधि
सबसे 

आसान होती है

थोड़ा सा
दिमाग
अगर हो तो
बनी हुई बात
बहुत स्वादिष्ट
और बिकने में
तूफान होती है

एक
गरम मुद्दा
पर्यावरण,
वृक्षारोपण,
ग्लोबल वार्मिंग,
ब्लात्कार
या कोई भी
अपनी
इच्छा अनुसार
पकड़ कर
शुरु हो जाइये

धीमे धीमे ही
पकानी
होती हैं बातें
जरा सा भी
मत घबराइये

अपनी जैसी
सोच के
चार नामचीन
आदमियों
को पटाइये
चार कुर्सियों
के सामने
एक मेज लगाइये

सामने से फोटो
खिँचवानी है
पीछे की भीड़
कम हो तो
नहीं दिखानी है
ना ही बतानी है

काम सारा
मुफ्त में
सरकारी
करवा
ले जाइये

बिल विल
गैर सरकारी
ठप्पों के
बनवाइये

अखबारी दोस्त
कब काम आयेंगे
बात की बात पर
बाकी बातें उनसे
लिखवा कर
अखबार
के फ्रंट पेज
पर छपवाइये

फोटोकापी
अखबार की
सौ एक करके
ऊपर को और
कहीं भिजवाइये

बात पकानी बहुत
आसान होती है
जितनी चाहे
पका ले जाइये

करना कहाँ कुछ
किसी को होता है
बातें करना
और बनाना
सबसे जरूरी
होता है

अच्छे दिनों कि
कितनी सारी
बाते हुई है
आज तक
जरा पीछे
जा कर देख
कर आइये

पेड़ कहीं नहीं
लगाने होते हैं
मन के अंदर
ही अपने
जितने चाहे
जंगल बनाइये

संजीव कपूर को
खाना बनाने
के लिये याद
कर रहा है
आज के दिन
पूरा भारत देश

‘उलूक’
को बातूनी
का ही सही
एक तमगा
दे जाइये।

रविवार, 13 जुलाई 2014

क्या किया जाये कैसे बताऊँ कि कुछ नहीं किया जाता है

कहना तो नहीं
पड़ना चाहिये कि
मैं शपथ लेता हूँ
कि लेखक और
कवि नहीं हूँ
कौन नहीं लिखता है
सब को आता है लिखना
बहुत कम ही होते हैं
नाम मात्र के जो
लिख नहीं पाते हैं
लेकिन बोल सकते हैं
इसलिये कुछ ना
कुछ हल्ला गुल्ला
चिल्लाना कर ही
ले जाते हैं
अब लिखते लिखते
कुछ ना कुछ
बन ही जाता है
रेखाऐं खींचने वाला
टेढ़ी मेढ़ी तक
मार्डन आर्टिस्ट
एक कहलाता है
कौन किस मनोदशा
में क्या लिखता है
कौन खाली मनोदशा
ही अपनी लिख पाता है
ये तो बस पढ़ने और
समझने वाले को ही
समझना पड़ जाता है
एक ऐसा लिखता है
गजब का लिखता है
लिखा हुआ ही उसका
एक तमाचा मार जाता है
लात लगा जाता है
‘उलूक’ किसी की
 मजबूरी होती है
सब जगह से जब
तमाचा या लात
खा कर आता है
तो कुछ ना कुछ
लिखने के लिये
बैठ जाता है
बुरा और हमेशा बुरा
लिखने की आदत
वैसे तो बहुत
अच्छी नहीं होती है
पर क्या किया जाये
जब सड़क पर
पड़ी हुई गंदगी को
सौ लोग नाँक भौं
सिकौड़ कर थूक कर
किनारे से उसके
निकल जाते हैं
कोई एक होता ही है
जो उस गंदगी को
हाथ में उठाकर
घर ले आता है
और यही सब उसके
संग्राहलय का एक
महत्वपूर्ण सामान
हो जाता है
जो है सो है और
सच भी है
सच को सच
कहने से बबाल
हो ही जाता है
कविता तो कवि
लिखता है
उसको कविता
लिखना आता है ।

शनिवार, 12 जुलाई 2014

लिखने की भी क्लास होती है लिखते लिखते पता हो ही जाता है

कहीं भी कोई
जमीनी हकीकत
नहीं दिखती है
किसी भी पन्ने में
वैसे दिखनी भी
नहीं चाहिये
जो हकीकत है
वो सोच में
नहीं होती है
कहीं भी किसी के
उसके होने ना
होने का पता
कुछ हो जाने
के बाद ही
चलता है
मिट्टी से लिख
देने से कोई
जमीन से थोड़ा
जुड़ा हुआ दिखने
लग जाता है
खूबसूरत और
मासूम चेहरे से ही
ज्यादातर आदमी
धोखे में आ जाता है
कर नहीं सकता है
मान लिया कुछ ऊँचा
हाई क्लास की सोच
को सोचने में खाली
जेब से क्या
चला जाता है
कहा क्या किसी ने
ऊँची सोच का कोई
सरकारी कर कहीं
लगाया जाता है
याद करता क्यों नहीं
अपने से पहली
एक पीढ़ी को
और देखता क्यों नहीं
एक आगे की सीढ़ी को
कितना बदल चुका है
सब कुछ समाज में
भाई समझा कर
कुछ पाने के लिये
ये जमाना अब
कुछ भी कर
लेना चाहता है
एक तू बेशरम है
‘उलूक’
निकल कोशिश तो कर
तेरे कुछ भी लिखे में
बस वही मिडिल क्लास
नजर आता है और
तेरा सब कुछ लिखा
इसी तरह कब
कूड़ेदान में फैंकने
के लायक हो जाता है
देखने वाला कहता
कुछ नहीं है पर
इशारों में बहुत कुछ
बता ही जाता है ।