उलूक टाइम्स: कविता
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शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

‘उलूक’ अच्छा है रात के अँधेरे में देखना दिन में रोशनी को पीटने से

 

सारी खिडकियों पर परदे खींच लेना
और देख लेना
कहीं किसी झिर्री से
घुसने की कोशिश ना कर रही हो रोशनी

फिर इत्मीनान से बैठ कर
उजाले पर एक कविता लिखना

लिखना
बंद कर के किताबें सारी
कोई एक किताब

जिसके सारे पन्नो पर लिखा हो हिसाब
हिसाब ऐसा नहीं
जिसे समझना हो किसी को
हिसाब ऐसा ना हो
जिससे पता चल रहा हो
खर्च किये गए रुपिये पैसे
या हिसाब
किसी रेजगारी को नोटों में बदलने का

वो सब लिख देना
जिसे किसी ने कहीं भी
नजरअंदाज कर देना हो पढ़ लेने से

साथ में लिखना 
कुछ प्रश्न खुद से पूछे गए
जिसका उत्तर पता नहीं हो किसी को भी

ऐसी सभी बातें 
नोट कर लेना किसी नोट बुक में
और जमा करते चले जाना

सूरज पर लिखना चाँद पर लिखना
तारों और गुलाब पर लिखना
नशे पर लिखना शराब पर लिखना

खबरदार
वो कुछ भी कहीं मत लिखना
जो हो रहा हो तेरे आसपास
तेरे घर में तेरे पड़ोस में
तेरे शहर में तेरे जिले में तेरे प्रदेश में
और तेरे बहुत बड़े से
रोज का रोज और बड़े हो रहे देश में

रोज लिखना 
लाल गुलाब हरे पेड़ सुनहरे सपने
या
कुछ गुलाबजामुन
या
कुछ भी ऐसा
जो भटका सके लिखने को
लेखकों को 
और छापने वालों को
उस सब पर
जो लिखा हुआ हो इधर उधर किधर किधर
गली गली शहर शहर

‘उलूक’ रातें अच्छी होती हैं
और वो आँखें भी
जो रात के अन्धेरें में
कोशिश करती है देखने की रोशनी
उन सब से
जो दिन के उजाले में रोशनी पीटते हैं |

चित्र साभार:  https://www.gettyimages.in/


सोमवार, 16 मई 2022

महीने की एक बकवास की कसम को कभी दो कर के भी तोड़ दिया जाता है



सब के पास होती है
अपनी कविता
सबही कवि होते हैं
कुछ लिख लेते हैं
कुछ बस सोच लेते हैं कविता

कुछ बो देते 
हैं
कुछ इन्तजार करते 
हैं
खेत के सूख लेने का

कुछ कविता के सपने देखते हैं
कुछ बिना कविता भी कवि हो लेते हैं
कुछ महाकवि के ताज पा जाते हैं
कुछ सदी के कवि हो जाते हैं

कुछ एक दिन की एक कविता कर चुक जाते हैं
कुछ बस कविता जी लेते हैं कुछ कविता सी लेते हैं
कुछ कविता उड़ा ले जाते हैं पतँग की डोर से
कुछ कविता जिता ले जाते हैं 
कविता दौड़ में  

कुछ
अपनी कविता को
पड़ोसी की कविता से मिलाते हैं
कुछ
अपने घर की कविता बाजार में  दे आते 
हैं

बहुत हैं
कविता बेच भी लेते हैं
कुछ उधार की कविताएं यूं ही सड़‌क पर बिखेर जाते हैं

अदभुद है
कविताओंं  का सँसार
गृह भी हैं यहाँ ब्लैक हॉल यही हैं
सूरज भी यहीं है पृथ्वी भी है
एस्टरोइड भी घूमते नजर आ जाते हैं

पूरा ग्रँथ तैयार हो जायेगा
अगर कोई बैठ के कविताओं के
गिरह खोलने के लिये कहीं बैठ जायेगा

कविताओं में
चुम्बक भी होते हैं
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव
कविताओं को खींचने और प्रतिकर्षित करने के काम आते हैं

दाऊद भी है यहां कश्मीर भी है आतंकवादी भी हैं
देशभक्ती पुलिस सेना और बंदूक भी
शब्दों के ऊपर मिलेगी 
भूनते मूँगफली और चना थोथा ही सही
बजते चलता रहता है 
साथ में थोथा घना

कविता को कतार में लगाना भी यहीं दिखाई देता है
कविता का बाजार सजाना भी यहीं दिखाई देता है

कविता एक लिखता है
कविता दूसरा पढ़‌ता है
तीसरा कविता पर मुहर लगाता है
चौथा दस्तखत कर ले जाता है
पाँचवा कविता अग्रसारित करता है
छटा कविता पर ही कविता कह जाता है

कविता की नदियाँ बहती हैं दूर नहीं जाना होता है
लिखी दिखी नहीं कविता के समुन्दर में तरतीब से रखी होती हैं

'उलूक’
कविता में बकवास और बकवास में कविता से उबर नहीं पाता है
कवि
कविता और कविता की किताबों को
उलटता पलटता बाजार में आता है
और चला जाता है
किसने कितनी कविता बेची किसने कितनी कविता खरीदी
हिसाब कहीं से भी नहीं मिल पाता है

सारे कवि लगे हुऐ दिखते 
हैं
मुफ्त की कविता खोदने में जहां
वहां उसे अपनी कविता की कब्र के लिये
दो गज जमीन ढूँढना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।

चित्र साभार: https://owlcation.com/humanities/Poems-about-Animals-Represtning-Death

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

माचिस की तीली कुछ सीली कुछ गीली रगड़ उलूक रगड़ कभी लगेगी वो आग कहीं जिसकी किसी को जरूरत होती है



बहुत जोर शोर से ही हमेशा
बकवास शुरु होती है

किसे बताया जाये क्या समझाया जाये
गीली मिट्टी में
सोच लिया जाता है दिखती नहीं है
लेकिन आग लगी होती है

दियासलाई भी कोई नई नहीं होती है
रोज के वही पिचके टूटे डब्बे होते हैं
रोज की गीली सीली तीलियाँ होती हैं

घिसना जरूरी होता है
चिनगारियाँ मीलों तक कहीं दिखाई नहीं देती हैं

मान लेना होता है गँधक है
मान लेना होता है ज्वलनशील होता है
मान लेना होता है घर्षण से आग पैदा होती है
मान लेना होता है आग सब कुछ भस्म कर देती है
और बची हुई बस कुछ होती है तो वो राख होती है

इसी तरह से रोज का रोज खिसक लेता है समय
सुबह भी होती है और फिर रात उसी तरह से होती है

कुछ हो नहीं पाता है चिढ़ का
उसे उसी तरह लगना होता है
जिस तरह से रोज ही
किसी की शक्ल सोच सोच कर लग रही होती है

खिसियानी बिल्ली के लिये
हर शख्स खम्बा होना कब शुरु हो लेता है
खुद की सोच ही को नोच लेने की सोच
रोज का रोज पैदा हो रही होती है

रोज का रोज मर रही होती है
तेरे जैसे पाले हुऐ कबूतर बस एक तू ही नहीं
पालने वाले को
हर किसी में तेरे जैसे एक कबूतर की जरूरत हो रही होती है

‘उलूक’ खुजलाना मत छोड़ा कर कविता को
इस तरह रोज का रोज
फिर रोयेगा
नहीं तो किसी एक दिन कभी आकर
कह कर
खुजली किसी और की खुजलाना किसी और का
बिल्ली किसी और की खम्बा किसी और का
तेरी और तेरे लिखने लिखाने की
किसे जरूरत हो रही होती है ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शुक्रवार, 4 जून 2021

कुछ अहसास होना मजबूरी है कविता खूबसूरत शब्द है बकवास जरूरी है जी भर कर भौंकना चाहता हूँ

 


लिख लिया जाये कहीं किसी कागज में
एक खयाल
बस थोड़ी देर के लिये उसे रोकना चाहता हूँ

ना कागज होता है कहीं
ना कलम होती है हाथ में
यूँ ही सब भूल जाने के लिये
भूलना चाहता हूँ

ख्वाहिशें होती हैं बहुत होती हैं
इधर से लेकर उधर तक होती हैं
उनमें से कुछ समेटना चाहता हूँ

तरतीब से लगाने में ख्वाहिशों को
पूरी हो गयी जिंदगी
उधड़े हुऐ में से
गिरी ख्वाहिशों को लपेटना चाहता हूँ

सच और सच्चाई
बहुत पढ़ लिया छपा छपाया
कुछ अधलिखी किताबों को अब ढूँढना चाहता हूँ

झूठ के पैर ही पैर देखे हैं
एक नहीं हैं कई हैं इफरात से हैं
अब बस उन्हीं में लोटना चाहता हूँ

उसकी चौखट पर सुना है बड़ी भीड़ है
दो गज की दूरी से उसपर बहुत कुछ चीखना चाहता हूँ
उसका ही किया कराया है सब कुछ
उसी के बादलों की बारिश में
जी भर कर भीगना चाहता हूँ

खोदने में लगा हूँ कबर कुछ शब्दों की
मतलब मरा मिलता है जिनका
शब्दकोश में देखना चाहता हूँ
लगे हैं कत्ल करने में
शब्द दर शब्द हर तरफ शब्दों का बेरहमी से
रुक भी लें 
मैं घुटने टेकना चाहता हूँ

लिखने वाले कुछ अलग पढ़ने वाले कुछ अलग
लिखने पढ‌ने वाले कुछ अलग से लगें
किताबें बेचना चाहता हूँ
कुछ तो लगाम लगा
अपनी चाहतों पर ‘उलूक’
सम्भव नहीं है सोच लेना
सब तो हो लिया
अब खुदा हो लेना चाहता हूँ

चित्र साभार: https://friendlystock.com/product/german-shepherd-dog-barking/

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

हमारे खून में है गिरोह हो जाना तू अलग है बता क्या और होना चाहता है

 

कितना भी
कोशिश करें 
हम
शराफत पोतने की
दिख जाता है कहीं से भी 
फटा हुआ
किसी छेद से झाँकता हुआ हमारा नजरिया

हम
कब गिरोह हो लेते हैं
हमें
पता कहाँ चलता है

हम कहा है
उसमें हो सकता है
तुम नहीं आते होगे
बुरा मत मानियेगा

हम कहा है
हमारी ओर
धनुष मत तानियेगा

हम कहने का मतलब
मैं और मेरे जैसे कुछ लोग होते हैं
जो सफेद नहीं होते हैं
सफेद पोश होते हैं

कई दिनों तक
कुछ भी नहीं लिखना
अजीब बात होती है

बकवास
करने वाले के लिये
दिन भी रात होती है

पता कहाँ चलता है

लिखने लिखाने का नशा
कब और कहां उतर जाता है

एक पैग़ का
एक पन्ना होता होगा
दूसरा पैग
हाथ में आने से पहले
हवा के साथ ही पलट जाता है

किससे कहे कोई
लिखने लिखाने में
किस सोच में डूबे हो तुम
महीना गुजर जाता है

कुछ नहीं पर
कुछ भी नहीं
लिख पाने का 
गम होना
शुरू हो जाता है

कुछ गिनी चुनीं टिप्पणियाँ
गिनती की जाती हैं
आने जाने वालों का
हिसाब भी समझ में आता है

लिखना लिखाना
कविता कहानियाँ
शेरो शायरियोँ
से गिना जाना शुरु हो लेता है

बकवास करने वालों को
गुस्सा आना
जायज नजर आता है

किसलिये मिलाना है
कविता और
कवि की दुनियाँ को
पागलों की दुनियाँ से

हर एक आदमी
बस एक आदमी है

पागल ‘उलूक’
रात के अंधेरे में
अपनी बंद आँख से
पता नहीं क्या देखना
क्या गिनना चाहता है?

चित्र साभार: https://www.pinterest.es/

बुधवार, 10 मार्च 2021

और खड़ा हो लेता है प्रतियोगिता में विद्वानों के साथ

 

किसलिये समझा रहे हो

मुझे 
पता है मुझे भी मरना ही है

लेकिन मैं आपके कहने पर
मौत को गले नहीं लगा सकता हूं

मैं मरूँगा 
तो गुरु जी के कहने पर ही 
मरूँगा

गुरु जी
मरने के रास्ते समझाने के लिये प्रसिद्ध हैं

फिर किसलिये
आप जैसे नये नवेले से सीखना मरना
 
मुझे भी तो
वैसे भी मरना ही है कभी ना कभी 

और मुझे ये भी पता है
कि मैं एक मेमना हूँ
और वो एक भेड़िया है

तुम्हें क्या परेशानी है
एक मेमने के 
भेड़िये के साथ प्रेमालाप करने से

जमाना बदल रहा है और भेड़िया भी
जमाने के हिसाब से

भेड़िया
अब कार में नहीं दिखता 
है कभी
उसकी कार घर में खड़ी रहती है

भेड़िया
अब पैदल चलता है देखते क्यों नहीं हो 

तुम्हें भी
जमाने के हिसाब से
बदलना जरूरी है

मेमने के बारे में किसलिये सोचते हो
भेड़िये को देखो ध्यान मत भटकाओ

लिखना लिखाना ठीक है
लिखा हुआ अगर कविता हो गया
तो उस से ब‌ड़ा शाप नहीं हो सकता है

बकवास करने के कुछ नुकसान
कविता हो जाना भी है
दीवार में खींची हुई  कुछ लकीरों के

और इसी तरह के
कुछ लिखे लिखाये से प्रश्न उठना शुरु होते हैं

कोई कुछ भी लिख देता है
और खड़ा हो लेता है
प्रतियोगिता में विद्वानों के साथ।

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पढ़ता कोई नहीं अपनी आँखों से सब पढ़ कर कोई और सुनाता है



बकवास करने में
कौन सा क्या कुछ चला जाता है 
फिर आजकल
कुछ कहने सुनने क्यों नहीं आता है 

सूरज रोज सुबह
और चाँद शाम को ही जब आता है 
अभी का अभी लिख दे
सोचने में दिन निकल जाता है 

खबरें बीमार हैं माना सभी
अखबार बीमार नजर आता है
नुस्खा बकवास भी नहीं होती
 बक देने में क्या जाता है 

ताला लगा है घर में
दिमाग बन्द हुआ जाता है 
खुले दिमाग वालों को
भाव कम दिया जाता है 

थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है 
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है 

सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है 
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है 

बकवास हो गया खुद एक ‘उलूक’
बकवास करना चाहता है 
खींचते ही लकीरों में चेहरा कविता का
मुँह चिढ़ाना शुरु हो जाता है।
चित्र साभार: https://favpng.com/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

थोड़े से शब्दों से पहचान हो जाना, बहुत बुरा होता है ‘उलूक’, कवि की पहचान हो कर बदनाम हो जाना

हर गधे के पास एक कहानी होती है 'उलूक'

कल फिर
कविता से
मुलाकात
हो पड़ी

बीच
रास्ते में
पता नहीं
रास्ता रोककर

ना जाने
क्यों
हो रही थी खड़ी

हमेशा ही
कविता से
बचना चाहता हूँ

फिर भी
पता नहीं

कहाँ
जा कर

किस
खराब
घड़ी में

उसी के
आगे पीछे
अगल बगल
कहीं

अपने को
उलझन में
खड़ा पाता हूँ

समझाते
समझाते
थक जाता हूँ
कवि नहीं हूँ

बस
थोड़ा बहुत
लिखना पढ़ना
कर ले जाता हूँ

सीधे सीधे
भड़ास निकालना
ठीक नहीं होता है

चोर के मुँह
चोर चोर कहकर
नहीं लिपट पाता हूँ

डरना भी
बहुत जरूरी है
सरदारों से भी
और उनके
गिरोहों से भी

नये
जमाने के

इज्जतदारों से

किसी तरह

अलग रहकर

अपनी
इज्जत

लुटने से
बचाता हूँ


बख्श
क्यों नहीं
देते होंगे

कवि
और
उनकी
कविताएं

कुछ एक
शब्दों के
अनाड़ी
खिलाड़ियों को

टूट जाते हैं
जिनसे भूलवश

कुल्हड़
भावनाओं
के यूँ ही
बेखुदी
में कभी
करते हुऐ
बेफजूल
इशारों को

पचने में
सरल सी
बातों से होती
बदहजमी को
जरा सा भी
समझ नहीं
पाता हूँ

कविताओं
की भीड़ से

दूर से ही

बस
उनसे नजरें
मिलाना
चाहता हूँ

कविता
अच्छी लगती है

पढ़ भी
ली जाती है

कभी कभी
थोड़ा बहुत
समझ में भी
आ जाती है

मजबूरियाँ
नासमझी की

बड़ी बड़ी
उलझी हुई 
लटें भी
सुलझा
कर कभी

आश्चर्यचकित

भी कर जाती हैं

पता नहीं
‘उलूक’
की
आड़ी तिरछी
लकीरें
बेशरम सी

क्यों
जान बूझ कर
कविताओं
की भीड़ में
जा जाकर
फिर फिर
खड़ी
हो जाती हैं

बहुत
असहज
महसूस
होने लगता है

ऐसे ही में
जब
एक कविता

सड़क
के बीच
खड़ी होकर
कुछ
रहस्यमयी
मुस्कुराहट
के साथ

कवि और
कविताओं
के बहाने

तबीयत
के बारे में
पूछना शुरु
हो जाती है । 


चित्र साभार:
http://www.poetrydonkey.com/

रविवार, 4 नवंबर 2018

क्यों कह देता होगा कुछ भी लिखे को कविता कोई कवि नहीं करते बकबक लिखते हैं दिमाग पर लगा कर जोर

कैसे
बनती होगी
एक कविता

रस छन्द
और
अलंकार
से
सराबोर

 कैसे
सोचता होगा
एक कवि

क्या
देखता होगा

और
किस दिशा
की ओर

कौन
पढ़ लेता होगा

आँखें
कवि की खोल
मन में अपने

हो लेता होगा
उतना ही विभोर

इन्द्रियाँ
बस में
होती होंगी
किस की इतनी

अवशोषित
कर लेता होगा

जो केवल
संगीत
छान कर
सारे शोर

किस के
पन्ने में
छपे अक्षर

नजर आना
शुरु
हो जाते होंगे
एक पाठक को

मोती जैसे
लपक रहा हो
चमक देख कर

उनकी
तरफ कोई
गोताखोर

 शायद:

अनन्त में
होता होगा
ध्यान केन्द्रित

दूर बहुत
होते होंगे
जोकर
कलाकार
चोर छिछोर

नजर पड़ती
होगी बस
सारे सफेद
कबूतरों पर

काले कौओं
को समझा कर
ले जाता होगा

समय
कहीं किसी
मोड़ की ओर

सीख:

क्यों
बैठा
रहता होगा
‘उलूक’

करने को
बकवास

देखता
घनघोर
अमावस में भी

फाड़ कर
आँखें चार
किसी पाँचवीं
दिशा की छोर

सीखता
क्यों नहीं होगा
थोड़ा सा भी
हटकर लिखना
अच्छा लिखना

मुँह
मोड़ कर
इधर उधर से

देख देख कर

कहीं
कुछ जमीन
के अन्दर

कुछ
आकाश
की ओर।

चित्र साभार: https://melbournechapter.net

शनिवार, 18 नवंबर 2017

टट्टी जिसे गू भी कहा जाता है

अजीब सी
बात है

पर
पता नहीं

सुबह से

दिमाग में
एक शब्द
घूम रहा है

टट्टी

तेरी टट्टी
मेरी टट्टी से
खुशबूदार कैसे

या

तेरी टट्टी
मेरी टट्टी से
ज्यादा
असरदार कैसे

पाठकों
को भी
लग रहा होगा

टट्टी भी

कोई
बात करने
का विषय
हो सकता है

सुबह
उठता है
आदमी

खाता है

शाम होती है
फिर से खाता है

खाता है
कम या बहुत

लेकिन
रोज सबेरे

कुछ ना कुछ
जरूर हगने
चला जाता है

जो हगता है
उसे ही टट्टी
कहा जाता है

टट्टी बात
करने का
विषय नहीं है

हर कोई
हगने

और टट्टी
जैसे शब्दों के
प्रयोग से
बचना
चाहता है

टट्टी पर या
हगने जैसे
विषय पर

गूगल करने
वाला भी

कोई एक
कविता
लिखा हुआ
नहीं पाता है

कविता
और टट्टी

हद हो गई

कविता
शुद्ध होती है
शुद्ध मानी
जाती है

टट्टी को
अशुद्ध में
गिना जाता है

अपने
आस पास
हो रहा
कुछ भी

आज
क्यों इतना ज्यादा

टट्टी
जिसे
गू भी
कहा जाता है

याद दिलाता है

‘उलूक’ को
हर तरफ
हर आदमी

अपने
आसपास का

टट्टी पाने की
लालसा के साथ

दौड़ता हुआ
नजर आता है

पागल कौन हुआ
‘उलूक’

या दौड़ता
हुआ आदमी
टट्टी के पीछे

समझाने वाला

कोई कहीं
बचा नहीं
रह जाता है ।

चित्र साभार: Weclipart

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

आज कुछ टुकड़े पुराने जो पूरे नहीं हो पाये टुकड़े रह गये

(कृपया बकवास को
कवि, कविता और
हिंदी की किसी
विधा से ना जोड़ेंं
और
टुकड़ों को ना जोड़ें,
अभिव्यक्ति कविता से हो
और कवि ही करे
जरूरी नहीं होता है ) 


सोच खोलना
बंद करना भी
आना चाहिये
सरकारी
दायरे में
ज्यादा नहीं भी
कम से कम
कुछ घंटे ही सही
>>>>>>>>>>>>

बेहिसाब
रेत में
बिखरे हुऐ
सवालों को
रौंदते हुऐ
दौड़ने में
कोई बुराई
नहीं है
गलती
सवालों
की है
किसने
कहा था
उनसे उठने
के लिये
बेवजह
बिना सोचे
बिना समझे
बिना जाने
बिना बूझे
और
बिना पूछे
उससे
जिसपर
उठना शुरु
हो चले
>>>>>>

मालूम है
बात को
लम्बा
खींच
देने से
ज्यादा
समझ
में नहीं
आता है

खींचने की
आदत पड़
गई होती
है जिसे
उससे
फिर भी
आदतन
खींचा ही
जाता है
जानता है
ज्ञानी
बहुत अच्छी
तरह से
अपने घर में
बैठे बैठे भी
अपने
आस पास
दूसरों के
घरों के
कटोरों की
मलाई की
फोटो देख
देख कर
अपने फटे
दूध को
नहीं सिला
जाता है
>>>>>>>

कोई नहीं
खोलता है
अपनी खुद
की किताबें
दूसरों
के सामने

खोलनी
भी क्यों हैं
पढ़ाने की
कोशिश
जरूर
करते
हैं लोग
समझाने
के लिये
किताबें
लोगों को

 बहुत सी
किताबें
रखी हुई
दिखती
भी हैं
किताबचियों
के आस पास
कहीं करीने
से लगी हुई
कहीं बिखरी
हुई सी
कहीं धूल
में लिपटी
कहीं साफ
धूप
दिखाई गई
सूखी हुई सी ।

>>>>>>>>>

चित्र साभार: ClipartFest

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है कुछ कहने के लिये जरूरी कुछ उदगार होते हैं



बहुत
अच्छे होते हैं 
समझदार
होते हैं 

किसी
अपने 
जैसे के लिये 
वफादार
होते हैं 

ज्यादा
के
लिये नहीं 
थोड़े थोड़े
के लिये 

अपनी
सोच में 
खंजर
और 
बात में लिये 
तलवार
होते हैं 

सच्चे
 होते हैं 

ना खुदा
के
होते हैं 
ना भगवान
के
होते हैं 

ना दीन
के
होते हैं 
ना ईमान
के
होते हैं 

बहुत
बड़ी
बात होती है 

घर में
एक
नहीं भी हों 

चोरों के
सरदार
के 
साथ साथ

चोरों के 
परिवार
के
होते हैं 

रोज
सुबह के 
अखबार
के
होते हैं 

जुबाँ से
रसीले 
होठों से
गीले 

गले
मिलने को 
किसी के भी 
तलबगार
होते हैं 

पहचानता है 
हर कोई

समाज 
के लिये
एक 
मील का पत्थर 
एक सड़क 

हवा में
 बिना 
हवाई जहाज 
उड़ने
के लिये 
भी
तैयार होते हैं 

गजब
होते हैंं 
कुछ लोग 

उससे गजब 
उनके
आसपास 

मक्खियों
की तरह 
किसी
आस में 
भिनाभिनाते 

कुछ
कुछ के 
तलबगार
होते हैं 

कहते हैं

किसी 
तरह लिखते हैं 

किसी तरह 
ना
कवि होते हैं 
ना
कहानीकार होते हैं 

ना ही
किसी उम्मीद 

और
ना किसी
सम्मान 
के
तलबगार
होते हैं 

उलूक
तेरे जैसे
देखने

तेरे जैसे
सोचने 

तेरा जैसे
कहने वाले 

लोग
और आदमी 
तो

वैसे भी
नहीं 
कहे जाने चाहिये 

संक्रमित
होते हैं 

बस बीमार

और 
बहुत ही 
बीमार होते हैं । 

चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

कविता को टेढ़ा मेढ़ा नहीं सीधे सीधे सीधा लिखा जाता है

मन करता है

किसी समय

एक
सादे सफेद
पन्ने पर

खींच दी जायें

कुछ
आड़ी तिरछी रेखायें

फिर
बनाये जायें
कुछ नियम

उन
आड़ी तिरछी
रेखाओं के
आड़े पन
और
तिरछे पन के लिये

जिससे
आसान
हो जाये
समझना

किसी भी
आड़े
और
तिरछे को

कहीं से भी
कभी भी
सीधे खड़े होकर

बहुत कुछ
बहुत
सीधा सीधा
दिखता है

मगर
बहुत ही
टेढ़ा होता है

बहुत कुछ
टेढ़ा
दिखता है

टेढ़ा
दिखाता है

जिसको
सीधा करने
के चक्कर में

सीधा
करने वाला
खुद ही
टेढ़ा
हो जाता है

टेढ़े होने
ना होने का
कहीं कोई
नियम
कानून भी
नजर
नहीं आता है

ऐसा भी
नहीं होता है

टेढ़ा
हो जाने
के कारण
कोई टेढ़ी
सजा भी
पाता है

नियम
कानून
व्यवस्था
के सवाल

अपनी
जगह
पर होते हैं

लेकिन
सीधा
सीधा है
का पता

टेढ़ों
के साथ
रहने उठने
बैठने के साथ
ही पता
चल पाता है

‘उलूक’
लिखने दे
सब को
उन के
अपने अपने
नियमों
के हिसाब से

सीधा
होने की
कतई
जरूरत नहीं है

कुछ चीजें
टेढ़ी ही
अच्छी
लगती हैं

उन्हें
टेढ़ा ही
रहने दिया
जाता है

क्यों
झल्लाता है

अगर
तेरे लिखे को
किसी से
भूल वश

कविता है
कह दिया
जाता है ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

सारे पढे‌ लिखे लिखते हैं कविता और कवि भी होते हैं

टेढ़ा मेढ़ा
लिखा हुआ
हो कहीं पर
जिसका कोई
मतलब नहीं
निकल रहा हो


जरूरी नहीं
होता है
कि वो एक
कवि का
लिखा हुआ
लिखा हो

जिसे कविता
कहना शुरु
कर दिया
जाये और
तुरन्त ही
कुछ लोग
दूसरे लिखने
पढ़ने वाले
करने लगें
चीर फाड़

जैसे गलत
तरीके
से मर गये
या
मार दिये
गये जानवर
या
आदमी को
खोल कर
देखा जाता है
मरने के बाद

जिसे कहा
जाता है
हिंदी में
शव परीक्षा

इसलिये यहाँ
पोस्टमोर्टम
कहना उचित
प्रतीत होता है

चलन में है
और
पढ़ा लिखा
वैसे भी
हिंदी में
कहे गये को
कम ही
समझता है

अब ‘उलूक’
क्या जाने
ये भी कवि है
और
वो भी कवि है

सब कविता
लिखते हैं
अपनी अपनी
इसमें दोष
किसका है

उसका
जो कवि है
या उसका
जिसको
आदत है

वो मजबूरी
में किसी
रोज कुछ
ना कुछ
जो लिख
मारता है

कभी
कुत्ते पर
कभी
चूहे पर
और कभी
उसी तरह के
किसी
जानवर पर
जिसके
नसीब में
कुर्सी लिखी
होती है

लेकिन इन
सब में
एक बात
अटल सत्य है

टेढ़ा मेढ़ा
लिखने वाला
गलती से
लिखना पढ़ना
सीख भी
गया हो
कभी झूठ
नहीं बोलता है

उससे
कभी नहीं
कहा जाता
है कि
उसका
किसी कवि
से ही
ना ही किसी
कविता से ही

भगवान
कसम
कहीं कोई
रिश्ता
होता है

सब कवि
होते हैं
जो कविता
करते हैं

सबसे बड़े
बेवकूफ
तो वही
होते हैं  ।

चित्र साभार: www.stmatthiaschool.org

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दो अप्रैल का मजाक

लिखे हुऐ के पीछे
का देखने की और
उस पीछे का
पीछे पीछे ही
अर्थ निकालने
की आदत पता नहीं
कब छूटेगी
इस चक्कर में
सामने से लिखी
हुई इबारत ही
धुँधली हो जाती है
लेकिन मजबूरी है
आदत बदली ही
कहाँ जाती है
हो सकता है
सुबह नींद से
उठते उठते
संकल्प लेने
से कोई कविता
नहीं लिखी जा
सकती हो
पर प्रयास करने
में कोई बुराई
भी नहीं है
कुछ भी नहीं
करने वाले लोग
जब कुछ भी
कह सकते हैं
और उनके इस
कहने के अंदाज का
अंदाज लगाकर
कौऐ भी किसी
भी जगह के
उसी अंदाज में
जब काँव काँव
कर लेते है
और जो कौऐ
नहीं होकर भी
सारी बात को
समझ कर
ताली बजा लेते हैं
तो हिम्मत कर
‘उलूक’ कुछ
लगा रह
क्या पता
किसी दिन
इसी तरह
करते करते
खुल जाये
तेरी भी लाटरी
किसी दिन
और तेरा लिखा
हुआ कुछ भी
कहीं भी
दिखने लगे
किसी को भी
एक कविता
हा हा हा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कोई नयी कहानी नहीं अपना वही पुराना रोना धोना ‘उलूक’ आज फिर सुना रहा था


लाऊडस्पीकर से भाषण बाहर शोर मचा रहा था

अंदर कहीं मंच पर एक नंगा 
शब्दों को खूबसूरत कपड़े पहना रहा था

अपनी आदत में शामिल कर चुके
इन्ही सारे प्रपंचों को रोज की पूजा में 

एक भीड़ का बड़ा हिस्सा घंटी बजाने
प्रांंगण में ही बने एक मंदिर की ओर आ जा रहा था

कविताऐं शेर और गजल से ढकने में माहिर अपने पापों को
आदमी आदमी को इंसानियत का पाठ सिखा रहा था

एक दिन की बात हो
तो कही जाये कोई नयी बात है 
आज पता चला 
फिर से एक बार ढोल नगाड़ों के साथ
एक नंगा हमाम में नहा रहा था

‘उलूक’ कब तक करेगा चुगलखोरी
अपनी बेवकूफियों की खुद ही खुद से

नाटक चालू था कहीं
जनाजा भी तेरे जैसों का
पर्दा खोल कर निकाला जा रहा था

तालियांं बज रही थी वाह वाह हो रही थी
कबाब में हड्डी बन कर
कोई कुछ नहीं फोड़ सकता किसी का

उदाहरण एक पुरानी कहावत का
पेश किया जा रहा था

नंगों का नंगा नाच नंगो को
अच्छी तरह समझ में आ रहा था ।

चित्र साभार: pixshark.com

शनिवार, 22 नवंबर 2014

लिखता लिखता ही पढ़ना भी सीख लेगा

जिस दिन
सीख लेगा
लिखना
बता उस दिन
क्या लिखेगा
अभी बताने
में भी कोई
हर्ज नहीं है
कविता
लिखेगा
या फिर कोई
गजल
लिखेगा
तब तक
ऐसा वैसा
भी लिखेगा
वो भी चलेगा
लिखना सीखने
के लिये जो
भी लिखेगा
वही तो
एक दिन
लिखना
सिखाने
के लिये
भी लिखेगा
लिखना एक
अलग बात है
लिखने वाला
बस लिखेगा
पढ़ना एक
अलग बात है
पढ़ने वाला
बस पढ़ेगा
लिखना पढ़ना
साथ करने
की कोशिश
जो भी करेगा
ना लिख
पायेगा कुछ
ना ही पढ़ेगा
लिखना सीख
ले कुछ
लिख लिखा
कर कुछ
दिनों तक
लिखना
सीख लेगा
जब ‘उलूक’
पूरा का पूरा
आधा
कम से कम
पढ़ना भी
सीख लेगा ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

रविवार, 13 जुलाई 2014

क्या किया जाये कैसे बताऊँ कि कुछ नहीं किया जाता है

कहना तो नहीं
पड़ना चाहिये कि
मैं शपथ लेता हूँ
कि लेखक और
कवि नहीं हूँ
कौन नहीं लिखता है
सब को आता है लिखना
बहुत कम ही होते हैं
नाम मात्र के जो
लिख नहीं पाते हैं
लेकिन बोल सकते हैं
इसलिये कुछ ना
कुछ हल्ला गुल्ला
चिल्लाना कर ही
ले जाते हैं
अब लिखते लिखते
कुछ ना कुछ
बन ही जाता है
रेखाऐं खींचने वाला
टेढ़ी मेढ़ी तक
मार्डन आर्टिस्ट
एक कहलाता है
कौन किस मनोदशा
में क्या लिखता है
कौन खाली मनोदशा
ही अपनी लिख पाता है
ये तो बस पढ़ने और
समझने वाले को ही
समझना पड़ जाता है
एक ऐसा लिखता है
गजब का लिखता है
लिखा हुआ ही उसका
एक तमाचा मार जाता है
लात लगा जाता है
‘उलूक’ किसी की
 मजबूरी होती है
सब जगह से जब
तमाचा या लात
खा कर आता है
तो कुछ ना कुछ
लिखने के लिये
बैठ जाता है
बुरा और हमेशा बुरा
लिखने की आदत
वैसे तो बहुत
अच्छी नहीं होती है
पर क्या किया जाये
जब सड़क पर
पड़ी हुई गंदगी को
सौ लोग नाँक भौं
सिकौड़ कर थूक कर
किनारे से उसके
निकल जाते हैं
कोई एक होता ही है
जो उस गंदगी को
हाथ में उठाकर
घर ले आता है
और यही सब उसके
संग्राहलय का एक
महत्वपूर्ण सामान
हो जाता है
जो है सो है और
सच भी है
सच को सच
कहने से बबाल
हो ही जाता है
कविता तो कवि
लिखता है
उसको कविता
लिखना आता है ।