उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आज की ट्रेन में ‘उलूक’ कुछ ज्यादा डिब्बे लगा रहा है वैसे भी गरीब रथ में कौन आना चाह रहा है

पुरानी से लेकर नई
किताबों के कमरे में
उन के ऊपर जमी
धूल में कुछ फूल
बनाने का मन हुआ
कुछ फूल कुछ पत्तियाँ
कुछ कलियाँ कुछ काँटे
क्या बनाऊँ क्या नहीं
किस से पूछा जाये
कौन बताये कौन छाँटे
कुछ ऐसा ही चल रहा था
खाली दिमाग में कि
धूल उड़ी आँख में घुसी
नाक में घुसी आँख बंद हुई
फिर छींके आना शुरु हुई
छींके बंद होने का
नाम नहीं ले रही थी
किताबें जैसे देख
देख कर यही सब
दबी जुबान से
हँस रही थी
जैसे कह रही हों
बेवकूफ
अभी तक कागज के
मोह में पड़ा हुआ है
लिखा हुआ होने से
क्या होता है
जब से लिखा गया था
तब से अब तक
वैसे का वैसा ही
यहीं एक जगह पर
अड़ा हुआ है
दुनियाँ बदल रही है
किताबों के शीर्षक
सारे के सारे
काम में लाये जा रहे हैं
इधर उधर जहाँ भी
जरूरत पड़ रही है
चिपकाये जा रहे हैं
साहित्य किसी का भी हो
किसी के काम का
नहीं रह गया है
जिसने लिखा है कहा है
उसके नाम को बस
कह देने से ही सब
कुछ हो जा रहा है
जो कहा जा रहा है
आशा की जा रही है
आप की समझ में
अच्छी तरह से
आ जा रहा है
नहीं आ रहा है
कोई बात नहीं
उदाहरण भी यहीं
और अभी का अभी
दिया जा रहा है
जैसे गांंधी पटेल
भगत सिंह
विवेकानंद या
कोई और भी
पुराना आदमी
उसने क्या कहा
कहने की जरूरत
अब नहीं है
उसकी फोटो
दिखा कर
मूर्ति बनाकर
काम शुरु
हो जा रहा है
वही जैसा
हमेशा से
पार्वती पुत्र
गणेश जी
के साथ किया
जा रहा है
सुना है सफाई
कर्मचारियों को
अब कम्प्यूटर
सिखाया
जा रहा है
झाड़ू देने
का काम तो
प्रधानमंत्री से
लेकर अस्पताल
के संत्री को तक
कहीं ना कहीं करना
बहुत जरूरी हो गया है
अखबार से लेकर
टी वी से लेकर
रेडियो सेडियो में
सुबह शाम
के भजनों के
साथ आ रहा है
‘उलूक’
तेरी मति भी
सटक गई है
नहीं होने के
बावजूद भी
पता नहीं
अच्छे खासे
चल रहे देश
के काम में
तू रोज रोज
कुछ ना कुछ
उटपटाँग सा
अपने जैसा
चावल के
कीड़ों की तरह
बीन ला रहा है
किताबों को
रद्दी में बेच
क्यों नहीं देता
सोना नहीं है
जो सोच रहा है
पुरानी होने पर कोई
करोड़पति होने इन्ही
सब से जा रहा है
अब जो जहाँ हो रहा है
होता रहेगा
पुरानी किताबों की जगह
कुछ नई तरह की बातों
का जमाना आ रहा है
कुछ दिन चुपचाप
रहने वाले के और
कुछ दिन शोर
मचाने वाले के
बारी बारी से अब
आया करेंगे
एक झाडू‌ बेचने वाला
सबको बहुत प्यार से
बता रहा है
आज ऐसा
क्यों लिखा तूने
यहाँ पर पूछना
नहीं है मुझसे
क्योंकि मेरी
समझ में भी
कुछ नहीं आ रहा है
और ये भी पता है
इस सब को समझने
को कोई भी नासमझ
यहाँ नहीं आ रहा है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

अभी ये दिख रहा है आगे करो इंतजार क्या और नजर आता है

हमाम
के चित्र 

बाहर
ही बाहर
तक दिखाना
तो समझ
में आता है

पता नहीं
कैमरे वाला
क्यों
किसी दिन
अंदर तक
पहुँच जाता है

कब कौन
सी बात को
कितना
काँट छाँट
कर दिखाता है

सामने बैठे
ईडियट
बाक्स के

ईडियट
‘उलूक’ को
कहाँ कुछ
समझ में
आता है

बहुत बार
बहुत से
झाडुओं
की कहानी

झाडू‌
लगाने वालों
के मुँह से
सुन चुका
होना ही
काफी
नहीं होता है

गजब की
बात होती है
जब झाड़ू
लगाने वाला
झाड़ू लगाने
से पहले
खुद ही कूड़ा
फैलाता है

बहुत
अच्छी तरह
से आती है
कुछ बाते
कभी कभी
समझ में
बेवकूफों
को भी

पर क्या
किया जाये

कुछ
बेवकूफों के
कहने
कहाने पर

बेवकूफ
कह रहा है
क्यों सुनते हो

बात में
दम नजर
नहीं आता है
जैसा ही
कुछ कुछ
कह दिया
जाता है

और
कुछ लोग
कुछ भी नहीं
समझते हैं
या समझना
ही नहीं
चाहते हैं

भेड़ के
रेहड़ के
भेड़ हो
लेते हैं

पता
होता है
उनको
बहुत ही
अच्छी
तरह से

भीड़ की
भगदड़
में मरने
में भी
मजा
आता है

कोई माने
या ना माने
बहुत
बोलने से
कुछ
नहीं भी
होता है

फिर भी
बोलते बोलते

कलाकारी से
एक कलाकार

बहुत सफाई से
मुद्दे चोरों के भी

चुरा चुरा कर
चोरों को ही
बेच जाता है ।

चित्र साभार: imageenvision.com

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

आदमी आदमी का हो सके या ना हो सके एक गधा गधे का नजदीकी जरूर हो जाता है



“अंशुमाली रस्तोगी जी” का
आज 
दैनिक हिन्दुस्तान में छपा लेख 

“इतना सधा हूँ कि सचमुच गधा हूँ” 
पढ़ने के बाद । 

अकेले नहीं
होते हैं आप


महसूस 
करते हैं
और कुछ
नहीं कहते हैं

रिश्तेदारियाँ
घर में ही हों
जरूरी 
नहीं होता है

आपका 
हमशक्ल
हमख्याल 
कहीं और
भी होता है

आपका
बहुत
नजदीकी
रिश्तेदार
भी होता है

बस
आपको ही
पता नहीं
होता है

एक नहीं
कई बार

बहुत
सी बात

यूँ ही
कहने से
रह जाती हैं

सोच की
अंधेरी
कोठरी में

जैसे कहीं
खो जाती हैं

सुनने
समझने
वाला

कोई
कहीं नहीं
होता है

कहने
वाला कहे
भी किससे

कितना
अकेला
अकेला

कभी कभी
एक अकेला
होता है

और
ऐसे में
कभी

अंजाने में
कहीं से

किसी की
एक चिट्ठी
आ जाती है

जिसमें
लिखी
हुई बातें

दिल को
गदगद
कर जाती हैं

कहीं पर
कोई और
भी है

अपना जैसा
अपना
अपना सा

सुन कर
आखों में
कुछ नमी
छा जाती है

‘अंशुमाली’
कहता है

कोई उसे
गधा कहे तो

अब
सहजता
से लेता है

बहुत दिनों
के बाद
गधे की याद

‘उलूक’
को भी
आ जाती है

गधा
सच में
महान है

ये बात
एक बार
फिर से
समझाती है

खुद के
गधे से
होने से

कोई
अकेला नहीं
हो जाता है

और
भी कई
होते हैं गधे

इधर
उधर भी
कई कई
जगहों पर

सुनकर ही
दिल खुश
हो जाता है

बहुतों
के बीच

एक गधा
यहाँ देखा
जाता है

इसका
मतलब
ये नहीं
होता है

कि
दूसरा गधा
दूसरी जगह
कहीं नहीं
पाया जाता है ।

चित्र साभार: www.gograph.com

सोमवार, 3 नवंबर 2014

आज आपके पढ़ने के लिये नहीं लिखा है कुछ भी नहीं है पहले ही बता दिया है

एक छोटी सी बात
छोटी सी कहानी
छोटी सी कविता
छोटी सी गजल

या और कुछ
बहुत छोटा सा

बहुत से लोगों को
लिखना सुनाना
बताना या फिर
दिखाना ही
कह दिया जाये
बहुत ही अच्छी
तरह से आता है

उस छोटे से में ही
पता नहीं कैसे
बहुत कुछ
बहुत ज्यादा घुसाना
बहुत ज्यादा घुमाना
भी साथ साथ
हो पाता है

पर तेरी बीमारी
लाईलाज हो जाती है
जब तू इधर उधर का
यही सब पढ़ने
के लिये चला जाता है

खुद ही देखा कर
खुद ही सोचा कर
खुद ही समझा कर

जब जब तू
खुद लिखता है
और खुद का लिखा
खुद पढ़ता है
तब तक कुछ
नहीं होता है

सब कुछ तुझे
बिना किसी
से कुछ पूछे

बहुत अच्छी तरह

खुद ही समझ में
आ जाता है

और जब भी
किसी दिन तू
किसी दूसरे का
लिखा पढ़ने के लिये
दूसरी जगह
चला जाता है

भटक जाता है
तेरा लिखना
इधर उधर
हो जाता है

तू क्या लिख देता है
तेरी समझ में
खुद नहीं आता है

तो सीखता क्यों नहीं
‘उलूक’

चुपचाप बैठ के
लिख देना कुछ
खुद ही खुद के लिये

और देना नहीं
खबर किसी को भी
लिख देने की
कुछ कहीं भी

और खुद ही
समझ लेना अपने
लिखे को

और फिर
कुछ और लिख देना
बिना भटके बिना सोचे

छोटा लिखने वाले
कितना छोटा भी
लिखते रहें

तुझे खींचते रहना है
जहाँ तक खींच सके
कुत्ते की पूँछ को

तुझे पता ही है
उसे कभी भी
सीधा नहीं होना है

उसके सीधे होने से
तुझे करना भी क्या है
तुझे तो अपना लिखा
अपने आप पढ़ कर
अपने आप
समझ लेना है

तो लगा रह खींचने में
कोई बुराई नहीं है
खींचता रह पूँछ को
और छोड़ना
भी मत कभी

फिर घूम कर
गोल हो जायेगी
तो सीधी नहीं
हो पायेगी ।

चित्र साभार: barkbusterssouthflorida.blogspot.in