उलूक टाइम्स: दुकान
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

इतना लिख कि लिख लिख कर कारवान लिख दे


चल रहने दे सब जमीन की बातें
कभी तो कोशिश कर थोड़ा सा आसमान लिख दे
लिखते लिखते घिस चुकी सोच
छोड़ एक दिन बिना सोचे पूरा एक बागवान लिख दे

ला लिखेगा जमा किया महीने भर का
जैसे एक दिन में कोई पूरा कूड़ेदान लिख दे
किसलिये करनी है इतनी मेहनत 
कौन कहता है तुझसे चल एक बियाबान लिख दे

सबको लिखना है सबको आता है लिखना 
तू अपना लिख पूरा इमतिहान लिख दे
किसने बूझना है लिखे को किसे समझना है 
आधा लिख चाहे पूरा दीवान लिख दे

होता रहा है होता रहेगा आना जाना यहां भी वहां भी 
रास्ते रास्ते निशान लिख दे
तू ना सही कोई और शायद कर ले कोशिश लौटने की फिर यहीं 
खाली उनवान लिख दे

आदत है तो है मगर ठीक नही है लिखना इस तरह से खीच कर 
पूरी लम्बी एक जुबान लिख दे
निकले कुछ तो मतलब कभी लिखे का तेरे ‘उलूक’ 
मत लिखा कर इस तरह कि दुकान लिख दे

चित्र साभार: https://www.indiamart.com/

रविवार, 1 सितंबर 2019

कभी खरीदने आना होता है कभी बेचने जाना होता है आना जाना बना कर ही संतुलन बनाना होता है


कुछ
शब्दों को
इधर

कुछ
शब्दों को
उधर

ही तो
लगाना होता है

बकवास
करने में
कौन सा
किसी को

व्याकरण
साथ में
समझाना
होता है

कौमा
हलन्त चार विराम
अशुद्धि
चंद्र बिंदू
सीख लेना
बोनस
बनाना होता है

उनके लिये
जिन्हें
एक ही बात से
दो का मतलब
निकलवाना होता है

रोज का रोज
उगल दिया जाना

जमाखोरों
की
जमात में जाने से
खुद को
बचाना होता है

केवल
संडे मार्केट में
दुकान
लगाने वाले के लिये

एक
बड़ी मुश्किल
माल को
ठिकाने
लगाना होता है

लोकतंत्र में
कुछ भी
बेच लेने वाले
के
बोलबाले
का
दिवाना
सारा जमाना होता है

‘उलूक’
खाली
हो जायेगी
दुकान
कहना छोड़

सपने में
भी
खाली
देख लेने
वाले को

सबसे पहले
अन्दर
जाना होता है ।

चित्र साभार: https://www.ttu.ee

बुधवार, 28 अगस्त 2019

दिखाता नहीं है शक्ल के शीशे में कुछ मगर आईना आँखों का चमक रहा होता है



जो
लिखना
होता है

उसी को
छोड़ कर

कुछ कुछ
लिख रहा होता है 

नहीं
लिखा सारा

लिखे
लिखाये
के पीछे खड़ा
छुपा
दिख रहा होता है 

ना
सामान होता है
ना
दुकान होती है
मगर

थोड़ा रोज
बिक रहा होता है 

आदत
से मजबूर
बिकने की
बाजार में
बिना टाँगें भी
टिक रहा होता है 

नसीब
होता है
उस
पढ़ाने वाले का

अपने
पढ़ने वालों से
पिट रहा होता है 

उपद्रव मूल्य
होता है
दोनों का
जहाँ

उपद्रव
खुद ही
अपने से
निपट रहा होता है 

परम्परायें नयी
मूल्य नये
परिभाषायें नयी

नयी गीता
नयी रामायण में
सब कुछ नया
सिमट रहा होता है 

नये कृष्ण
नये राम
नये गाँधी
नये बलराम

सब
इक्ट्ठा किये
जा रहे होते हैं

एक
जगह पर
ला ला कर
फिर भी 

बेशरम
‘उलूक’

हमाम के
अन्दर
के
सनीमा में भी

कपड़ों
की
तस्वीरों
से

पता नहीं
किसलिये

चिपट
रहा होता है ?

चित्र साभार: 



बुधवार, 30 जनवरी 2019

जरूरत नहीं है समझने की बहुत लम्बे समय से इकट्ठा किये कूड़े की उल्टी आज आ ही जा रही है


(उलूक को बहुत दूर तक दिखायी नहीं  देता है । कृपया दूर तक फैले देश से जोड़ कर मूल्याँकन करने का कष्ट ना करें। जो  लोग  पूजा में व्यस्त हैं  अपनी आँखे बंद रखें। बैकुण्ठी  के फिर से अवतरित होने के लिये मंत्र जपने शुरु करें)


कई
दिन हो गये

जमा करते करते

कूड़ा
फैलाने की

हिम्मत ही नहीं
आ पा रही है

दो हजार
उन्नीस में


सुना गया है


चिट्ठाकारी
पर
कोई

ईनाम

लेने के लिये

लाईन लगाइये


की मुनादी

करवायी
जा रही है


कई दिन से
ख्वाब में

मक्खियाँ ही
मक्खियाँ
नजर आ रही हैं


गिनना शुरु
करते ही
पता
चल रहा है

कुछ मकड़ी
हो चुकी हैं

खबरची
की खबर
बता रही है


मक्खियाँ
मकड़ी होते ही

मेज की
दूसरी ओर
चली जा रही हैं


साक्षात्कार
कर रही हैं

सकारात्मकता
के पाठ

कैसे
पढ़ाये जायेंगे

समझा रही हैं


मक्खियों
का राजा
मदमस्त है

लग रहा है
बिना अफीम
चाटे ही

गहरी नींद
आ रही है


खून
चूसने में
मजा नहीं है

खून
सुखाने के

तरीके
सिखा रही हैं


मकड़ियाँ
हो चुकी

मक्खियों के
गिरोह के

मान्यता प्राप्त
होने का सबूत

खबरचियों
की टीम
जुटा रही है


मकड़ी
नहीं हो सकी
मक्खियाँ

बुद्धिजीवियों
में अब
गिनी
जा रही हैं


इसलिये
उनके
कहने सुनने

लिखने पढ़ने
की बात

की बात
करने की

जरूरत ही
नहीं समझी
जा रही है


अखबार में

बस
मकड़ियों
की खबर

उनके
सरदार
के इशारों
से ही
छापी
जा रही है


गिरोह
की बैठकों
में तेजी
आती हुयी
नजर आ रही है


फिर किसी
बड़ी लूट की

लम्बी योजना पर
मुहर लगवाने के लिये

प्रस्ताव की
कापियाँ

सरकार
के पास
भेजी
जा रही हैं


अंग्रेजों के
तोड़ो और
राज करो
के सिद्धांत का

नया उदाहरण
पेश करने
की तैयारी है


एक
पुरानी दुकान की
दो दुकान बना कर

दो दुकानदारों
के लिये दो कुर्सी

पेश करने की
ये मारामारी है


गिरोह
की खबरें
छापने के लिये

क्या
मिल रहा है
खबरची को

खबर
नहीं बता रही है


हो सकता है

लम्बी लूट
की योजना में

उनको भी
कहा गया हो

उनकी भी
कुछ भागीदारी है


थाना कोतवाली
एफ आई आर
होने का
कोई डर हो

ऐसी बात
के लिये
कोई जगह
छोड़ी गयी हो

नजर
नहीं आ रही है


गिरोह
के मन मुताबिक
लुटने के लिये तैयार

प्रवेश
लेने वाले
अभ्यर्थियों की

हर साल
एक लम्बी लाईन

खुद ही
खुदकुशी
करने के लिये
जब
आ ही जा रही है


‘उलूक’
तू लिख

‘उलूक’
तू मत लिख

कुछ अलग
नहीं होना है
किसी भी जगह

इस देश में
सब वही है

सबकी
सोच वही है

तेरी खुजली

तुझे ही
खुजलानी है

इतनी सी अक्ल

तुझे पता नहीं

क्यों नहीं
आ पा रही है ।

चित्र साभार:
https://www.canstockphoto.com

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

पता ही नहीं चलता है कि बिकवा कोई और रहा है कुछ अपना और गालियाँ मैं खा रहा हूँ

शेर
लिखते होंगे
शेर
सुनते होंगे
शेर
समझते भी होंगे
शेर हैं
कहने नहीं
जा रहा हूँ


एक शेर
जंगल का देख कर
लिख देने से शेर
नहीं बन जाते हैं

कुछ
लम्बी शहरी
छिपकलियाँ हैं

जो आज
लिखने जा रहा हूँ

भ्रम रहता है
कई सालों
तक रहता है

कि अपनी
दुकान का
एक विज्ञापन

खुद ही
बन कर
आ रहा हूँ

लोग
मुस्कुराहट
के साथ मिलते हैं

बताते भी नहीं है
कि खुद की नहीं
किसी और की
दुकान चला रहा हूँ

दुकानें
चल रही हैं
एक नहीं हैं
कई हैं

मिल कर
चलाते हैं लोग

मैं बस अपना
अनुभव बता रहा हूँ

किस के लिये बेचा
क्या बेच दिया
किसको बेच दिया
कितना बेच दिया

हिसाब नहीं
लगा पा रहा हूँ

जब से
समझ में आनी
शुरु हुई है दुकान

कोशिश
कर रहा हूँ
बाजार बहुत
कम जा रहा हूँ

जिसकी दुकान
चलाने के नाम
पर बदनाम था

उसकी बेरुखी
इधर
बढ़ गयी है बहुत

कुछ कुछ
समझ पा रहा हूँ

पुरानी
एक दुकान के
नये दुकानदारों
के चुने जाने का

एक नया
समाचार
पढ़ कर
अखबार में
अभी अभी
आ रहा हूँ

कोई कहीं था
कोई कहीं था

सुबह के
अखबार में
उनके साथ साथ
किसी हमाम में
होने की
खबर मिली है
वो सुना रहा हूँ

कितनी
देर में देता
है अक्ल खुदा भी

खुदा भगवान है
या भगवान खुदा है
सिक्का उछालने
के लिये जा रहा हूँ

 ‘उलूक’
देर से आयी
दुरुस्त आयी
आयी तो सही

मत कह देना
अभी से कि
कब्र में
लटके हुऐ
पावों की
बिवाइयों को
सहला रहा हूँ ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com

बुधवार, 25 जुलाई 2018

दिमाग बन्द करते हैं अपने चल पढ़ाने वाले से पढ़ कर के आते हैं

बहुत
लिख लिया
एक ही
मुद्दे पर
पूरे महीने भर

इस
सब से
ध्यान हटाते हैं


शेरो शायरी
कविता कहानी
लिखना लिखाना
सीखने सिखाने
की किसी दुकान
तक हो कर
के आते हैं

कई साल
हो गये
बकवास
करते करते
एक ही
तरीके की

कुछ नया
आभासी
सकारात्मक
बनाने
दिखाने
के बाद
फैलाने का भी
जुगाड़ अब
लगाते हैं

घर में
लगने देते हैं आग
घुआँ सिगरेट का
समझ कर पी जाते हैं

बची मिलती है
राख कुछ अगर
इस सब के बाद भी

शरीर
में पोत कर खुद ही
शिव हो जाते हैं

उसके
घर की तरफ
इशारे करते हैं

जाम
इल्जाम के बनाते हैं

नशा हो झूमे शहर
बने एक भीड़ पागल
इस सब के पहले

अपने घर के पैमाने
बोतलों के साथ
किसी मन्दिर की
मूरत के पीछे
ले जाकर छिपाते हैं

बरसात
का मौसम है
बादलों में चल रहे
इश्क मोहब्बत की
खबर एक जलाते हैं

कहीं से भी
निकल कर आये
कोई नोचने बादलों को

पतली गली
से निकल कर कहीं
किनारे
पर बैठ नदी के
चाय पीते हैं
और पकौड़े खाते हैं

ये कारवाँ
वो नहीं रहा ‘उलूक’
जिसे रास्ते खुद
सजदे के लिये ले जाते हैं

मन्दिर मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च की
बातें पुरानी हो गयी हैं

चल किसी
आदमी के पैरों में
सबके सर झुकवाते हैं ।

चित्र साभार: www.thecareermuse.co.in

सोमवार, 23 जुलाई 2018

अपना वित्त है अपना पोषण है ‘उलूक’ तेरी खुजली खुद में किया तेरा अपना ही रोपण है

(21/07/2018 की पोस्ट:‘शरीफों की बस्ती है  कुछ नहीं होना है एक नंगे चने की बगावत से’ की अगली कड़ी है ये पोस्ट। इसका देश और देशप्रेम से कुछ लेना देना नहीं है। उलूक की अपनी दुकान की खबर है जहाँ वो भी कुछ सरकारी बेचता है )
पहले से
पता था

कुछ नया
नहीं होना था

खाली टूटी
मेज कुर्सियाँ
सरकार की
दुकान में

सरकारी
हिसाब किताब
जैसा ही
कुछ होना था

सरकारी
दुकान थी
सरकार के
दुकानदार थे

सरकारी
सामान था

 किसी के
अपने घर का
कौन सा
नुकसान
होना था

दुकानदार
को भी
आदेशानुसार

कुछ देर
घड़ियाली
ही तो रोना था

दुकान
फिर से
खुलने की
खुशखबरी
आनी थी

दो दिन बस
बंद कर रहे हैं
की खबर
फैलानी थी

दुकान
बंद हो रही है
दुकानदारों की
फैलायी खबर थी

अखबार वाले
भी आये थे
अच्छी पकी
पकायी खबर थी

दस्तखत की
जरूरत नहीं थी
दुकान वालों
की लगायी
दुकान की
ही मोहर थी

सरकारी
दुकान के अन्दर
खोली गयी
व्यक्तिगत
अपनी अपनी
दुकान थी

बन्द होने की
खबर छपने से
दुकानदारों की
निकल रही जान थी

तनखा
सरकारी थी
काम सरकारी था
समय सरकारी
के बीच कुछ
अपना निकाल
ले जाने की
मारामारी थी

‘उलूक’
देख रहा था
उल्लू का पट्ठा
उसे भी देखने
और देखने
के बाद लिखने
की बीमारी थी

बधाई थी
मिठाई थी
शरीफों की
बाँछे फिर से
खिल आयी थी
दुकान की
ऐसी की तैसी
पीछे के
दरवाजों में
बहुत जान थी ।

चित्र साभार: www.gograph.com

बुधवार, 13 सितंबर 2017

हजार के ऊपर दो सौ पचास हो गये बहुत हो गया करने के लिये तो और भी काम हैं

कुछ रोज के
दिखने से
परेशान हैं
कुछ रोज के
लिखने से
परेशान हैं
गली से शहर
तक के सारे
आवारा कुत्ते
एक दूसरे
की जान हैं

किस ने
लिखनी हैं
सारी
अजीब बातें
दिल खोल कर
छोटे दिल की
थोड़ा सा
लिख देने से
बड़े दिल
वाले हैरान हैं

बकरियाँ
कर गयी हैं
कल से तौबा
घास खाने से
खड़ी कर अपनी
पिछली टाँगे
एक एक की
एक नहीं कई हैं
घर में ही हैं
खुद की ही हैं
घास की दुकान हैं

पढ़ना लिखे को
समझना लिखे को
पढ़कर समझकर
कहना किसी को
नयी बात कुछ
भी नहीं है इसमें
आज की आदत है
आदत बहुत आम है

 कोई
शक नहीं
‘उलूक’
सूचना मिले
घर की दीवारों
पर चिपकी
किसी दिन
शेर लिखना
उल्लुओं का नहीं
शायरों का काम है ।

 चित्र साभार: Fotosearch

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

फैसले के ऊपर चढ़ गई अधिसूचना एक पैग जरा और खींच ना

उच्च न्यायालय
राष्ट्रीय राज मार्ग
शटर गिराये
शराब की दुकानें
पता नहीं क्यों
अबकि बार

शहर की
बदनाम गली
गली से सटी
स्कूल की
चाहरदीवार


दोनों के बीच
में फालतू में
तनी खड़ी
बेकार
बेचती बाजार

बाजार में
फड़बाजों का शोर

आलू बीस के
ढाई किलो
आलू बीस
के तीन किलो
ले लो जनाब ले लो

मौका हाथ से
निकल जायेगा
कल तक सारा
आलू खत्म
हो जायेगा
फिर भी गरीब
खरीदने को
नहीं तैयार

शराब की
किल्लत की मार

सड़क पर
लड़खड़ाते
शाम के समय
घर को वापस जाते
दिहाड़ी मजदूर

जेब पहले से
ज्यादा हलकी
चौथाई के पैसे
की जगह
पूरे के पैसे
देने को मजबूर

चुनाव में पिया
धीरे धीरे
उतरता हुआ नशा
पहाड़ के जंगलों में
जगह जगह बिखरी
खाली बोतलें
पता नहीं चला
अभी तक
पिलाने वाले
और पीने वाले
में से कौन फंसा

पुरानी सरकार
की पुरानी बोतलों
का पुराना पानी
नयी सरकार की
नयी बोतलों
की चढ़ती जवानी

अभी अभी पैदा
हुये विकास की
दौड़ती
कड़क सड़क
को भड़कते हुऐ
लचीला करती
अधिसूचना

राष्ट्रीय राजमार्गों
के खुद के
रंगीन कपड़ों को
उनका
खुद ही नोचना

जीभ से अपने ही
होंठों को खुद ही
तर करता

शराफत की मेज
में खुली विदेशी
सोचता ‘उलूक’

चार स्तम्भों को
एक दूसरे को
नोचता हुआ
आजकल सपने
में देखता ‘उलूक’

चित्र साभार: The Sanctuary Model

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

शव का इंतजार नहीं शमशान का खुला रहना जरूरी होता है

हाँ भाई हाँ
होने होने की
बात होती है
कभी पहले सुबह
और उसके बाद
रात होती है
कभी रात पहले
और सुबह उसके
बाद होती है
फर्क किसी को
नहीं पड़ता है
होने को जमीन से
आसमान की ओर
भी अगर कभी
बरसात होती है
होता है और कई
बार होता है
दुकान का शटर
ऊपर उठा होता है
दुकानदार अपने
पूरे जत्थे के साथ
छुट्टी पर गया होता है
छुट्टी लेना सभी का
अपना अपना
अधिकार होता है
खाली पड़ी दुकानों
से भी बाजार होता है
ग्राहक का भी अपना
एक प्रकार होता है
एक खाली बाजार
देखने के लिये
आता जाता है
एक बस खाली
खरीददार होता है
होना ना होना
होता है नहीं
भी होता है
खाली दुकान को
खोलना ज्यादा
जरूरी होता है
कभी दुकान
खुली होती है और
बेचने के लिये कुछ
भी नहीं होता है
दुकानदार कहीं
दूसरी ओर कुछ
अपने लिये कुछ
और खरीदने
गया होता है
बहुत कुछ होता है
यहाँ होता है या
वहाँ होता है
गन्दी आदत है
बेशरम ‘उलूक’ की
नहीं दिखता है
दिन में उसे
फिर भी देखा और
सुना कह रहा होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

सोमवार, 21 सितंबर 2015

दुकान के अंदर एक और दुकान को खोला जाये


जब दुकान खोल ही ली जाये 
तो फिर क्यों देखा जाये इधर उधर 
बस बेचने की सोची जाये 

दुकान का बिक जाये तो बहुत ही अच्छा 
नहीं बिके अपना माल किसी और का बेचा जाये 

रोज उठाया जाये शटर एक समय 
और एक समय आकर गिराया भी जाये 

कहाँ लिखा है जरूरी है 
रोज का रोज कुछ ना कुछ बिक बिका ही जाये 

खरीददार 
अपनी जरूरत के हिसाब से 
अपनी बाजार की अपनी दुकान पर आये और जाये 

दुकानदार 
धार दे अपनी दुकानदारी की तलवार को 
अकेला ना काट सके अगर बीमार के ही अनार को 

अपने जैसे लम्बे समय के 
ठोके बजाये साथियों को साथ में लेकर 
किसी खेत में जा कर हल जोत ले जाये 

कौन देख रहा है क्या बिक रहा है 
किसे पड़ी है कहाँ का बिक रहा है 
खरीदने की आदत से आदतन कुछ भी कहीं भी खरीदा जाये 

माल अपनी दुकान का ना बिके 
थोड़ा सा दिमाग लगा कर पैकिंग का लिफाफा बदला जाये 

मालिक की दुकान के अंदर खोल कर एक अपनी दुकान 
दुकान के मालिक का माल मुफ्त में 
एक के साथ एक बेचा जाये 

मालिक से की जाये मुस्कुरा कर मुफ्त के बिके माल की बात 

साथ में बिके हुऐ दुकान के माल से 
अपनी और ठोके पीटे साथियों की पीछे की जेब को 
गुनगुने नोटों की गर्मी से थोड़ा थोड़ा रोज का रोज 
गुनगुना सेका जाये । 

चित्र साभार: www.fotosearch.com

सोमवार, 15 जून 2015

मुद्दा पाप और मुद्दा श्राप

पापों
को धोने
का साबुन
अगर बाजार में
उतारा जायेगा

कोई बतायेगा

आज
के दिन
उस साबुन
का नाम

किसके
नाम पर
रखा जायेगा

साबुन
बिकेंगे
अपने ही पूरे
देश में

या
विदेशों में
ले जा कर भी
बेचा जायेगा

सीधे सीधे
खरीदेगा
आदमी
साबुन

खुद
अपने लिये
जा कर
किसी दुकान से

या
राशन कार्ड में
दिलवाया जायेगा

बहुत
सी बातें हैं
नई नई
आती हैं

अंदाज नहीं
लग पाता है
किसको कितना
भाव दिया जायेगा

पाप
के साथ
श्राप भी
बिकने
की चीज है
बड़ी काम की
पुराने युगों की

श्राप
देने लेने
का फैशन भी
क्या कभी
लौट कर आयेगा

पापी
बेचेगा श्राप
खुद बनाकर
अपनी दुकान पर

या
गलती से
किसी ईमानदार
के हाथ में
ठेका लग जायेगा

कितने
तरह के श्राप
बिकेंगे बाजार में

किसके
नाम का श्राप
सबसे खतरनाक
माना जायेगा ?

चित्र साभार: churchhousecollection.blogspot.com

गुरुवार, 14 मई 2015

समझदार एक जगह टिक कर अपनी दुकान नहीं लगा रहा है

किसलिये
हुआ जाये
एक अखबार

 क्यों सुनाई
जाये खबरें
रोज वही
जमी जमाई दो चार

क्यों बताई
जाये शहर
की बातें
शहर वालों को हर बार

क्यों ना
कुछ दिन
शहर से
हो लिया जाये फरार

वो भी यही
करता है
करता आ
रहा है

यहाँ जब
कुछ कहीं
नहीं कर
पा रहा है

कभी इस शहर
तो कभी उस शहर
चला जा रहा है

घर की खबर
घर वाले सुन
और सुना रहे हैं

वो अपनी खबरों
को इधर उधर
फैला रहा है

सीखना चाहिये
इस सब में भी
बहुत कुछ है
सीखने के लिये ‘उलूक’

बस एक तुझी से
कुछ नहीं
हो पा रहा है

यहाँ बहुत
हो गया है
अब तेरी
खबरों का ढेर

कभी तू भी
उसकी तरह
अपनी खबरों
को लेकर

कुछ दिन
देशाटन
करने को
क्यों नहीं
चला जा रहा है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

इक्तीस दिसम्बर इस साल नहीं आ पाये सरकार के इस फरमान का मान रखें


ख्याल रखें
नया साल इस साल  मनाने की सोच कर
अपने लिये पैदा नहीं करें कोई बबाल
तुगलक और उसके फरमानों की फेहरिस्त
लिख लिखा कर
कहीं पैंट की जेब में सँभाल रखें

इक्तीस दिसम्बर को पूजा करें
हनुमान जी का ध्यान धरें
राम नामी माला ओढ़ कर
तुलसी माला के 108 दाने
दूध में धो कर धूप में सुखाकर
जनता को कुछ नया कर दिखाने का
मन ही मन ठान रखें

बीमार नहीं होना है छुट्टी नहीं लेनी है
पीने पिलाने का कार्यक्रम करें कोई रोक नहीं है
परदा लगा कर एक मोटा
इक्तीस को छोड़ कर किसी और दिन 
अपने घर से कहीं दूर किसी और की गली में करते समय 
ध्यान से अपने चेहरे पर एक रुमाल रखें

जनता के लिये जनता के द्वारा 
जनता के बीच जनता के साथ
तुगलक के नये वर्ष की तुगलकी एक जनवरी 
साल के किसी तीसरे या चौथे महीने से शुरु करते हुऐ
उम्मीदों को खरीदने बेचने की एक
नई दुकान की नई पहल के नये फरमान का
कुछ तो मान रखें ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

रविवार, 31 अगस्त 2014

बन रही हैं दुकाने अभी जल्दी ही बाजार सजेगा

सपने देखने
में भी सुना है
जल्दी ही एक
कर लगेगा

सपने बेचने
खरीदने का
उद्योग

इसका मतलब
कुछ ऐसा लगता है
खूब ही फलेगा
और फूलेगा

लम्बी दूरी की
मिसाइल की
तरह बहुत दूर
तक मार करेगा

आज का देखा
एक ही सपना
कई सालों तक
जिंदा भी रहेगा

कुछ ही
समय पहले
किसने सोचा था
ऐसा भी
इतनी जल्दी ही
ये होने लगेगा

कितनी
बेवकूफी
कर रहे थे
इससे पहले
के सपने
दिखाने वाले लोग

अब पछता
रहे होंगे
सोच सोच के

टिकाऊ सपने
बना के दिखाने
वाले का धंधा

इतनी जोर शोर से
थोड़े से समय में ही
चल निकलेगा

सपने आते ही
आँख बंद
करने लगा था
‘उलूक’ भी
कुछ दिनो से

लगता है
ये सब
सुन कर अब
सोने के बाद
अपनी आँखे
आधी या पूरी
खुली रखेगा ।

चित्र: गूगल से साभार ।

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

दुकानों की दुकान लिखने लिखाने की दुकान हो जाये

क्या ऐसा भी
संभव है
कि किसी दिन
लिखने लिखाने
के विषय ही
खत्म हो जायें
क्या लिखें
किस पर लिखें
कैसे लिखें
क्यों लिखें
जैसे विषय भी
दुकान पर किसी
बिकना शुरु हो जायें
लिखने लिखाने
के भी शेयर बनें
और स्टोक मार्केट में
खरीदे और बेचे जायें
लेखकों के बाजार हों
लेखकों की दुकान हों
लेखकों के मॉल हों
लेखक माला माल हों
लेखक ही दुकानदार हों
लेखक ही खरीददार हों
माँग और पूर्ति
के हिसाब से
लिखने लिखाने की
बात होना शुरु हो जाये
जरूरतें बढ़े
लिखने लिखाने
पढ़ने पढ़ाने की
लेखक व्यापारी और
लेखन बड़ा एक
व्यापार हो जाये
सपने देखने से
किसने किसको
रोका है आज तक
क्या पता
माईक्रोसोफ्ट या
गूगल की तरह
लिखना लिखाना
सरे आम हो जाये
‘उलूक’ नजर अपनी
गड़ाये रखना
क्या पता तेरे लिये भी
कभी अपनी उटपटांग
सोच के कारण ही
किसी लिखने लिखाने
वाली कम्पनी के
अरबपति सी ई ओ
होने का पैगाम आ जाये ।
(लेखकों की राय
आमंत्रित है
'उलूक' नहीं
गूगल पूछ रहा है
आजकल सबको
मेल भेज भेज कर :) )

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

एक ही जैसी कहानी कई जगह पर एक ही तरह से लिखी जाती है कोई याद दिलाये याद आ जाती है

घर से शहर की
तरफ निकलते
एक चौराहा
हमेशा मिलता है
जैसे बहुत ही
नजदीक का कोई
रिश्ता रखता है
चौराहे के पास
पहुँचते ही हमेशा
सोचा जाता है
किस रास्ते से
अब चला जाये
सोचा ही जाता है
एक थोड़ा सा लम्बा
पर धीमी चढ़ाई
दूसरी ऊँची सीढ़ियाँ
नाम बावन सीढ़ी
पता नहीं कभी
रही होंगी बावन
पर अब गिनते
गिनते छप्पन
कभी ध्यान हटा
गिनने से तो
अठावन भी
हो जाती हैं
दो चार सीढ़ियाँ
ऊपर नीचे गिनती
में हो जाने से
कोई खास परेशानी
होती हो ऐसी भी
बात कभी कहीं
नजर नहीं आती है
पर कुछ जगहें
बहुत सी खास
बातों को लिये हुऐ
एक इतिहास ही
हो जाती हैं
भूगोल बदलता
चला जाता है
कुछ पुरानी बातें
कभी अचानक
एक दिन कब
सामने आ कर
खड़ी हो जाती हैं
बता के नहीं
आ पाती हैं
'बाबू जी दो रुपिये
दो चाय पियूँगी'
नगरपालिका की
एक पुरानी
सफाई कर्मचारी
हाथ फैलाती थी
पैसे मिले नहीं
आशीर्वादों की झड़ी
शुरु हो जाती थी
क्या मजबूरी थी
क्यों आती थी
उसी जगह पर
एक गली
शराब की दुकान
की तरफ भी
चली जाती थी
बहुत से लोग
निकलते थे
निकलते ही
चले जाते थे
कुछ नहीं देते थे
बस कहते जाते थे
क्यों दे रहे हो
शाम होते ही ये
शराब पीने को
चली जाती है
पर कभी देखी
नहीं किसी जगह
कोई औरत भी
लड़खड़ाती है
बहुत दिन से
खयाल किया है
इधर बुढ़िया अब
नजर नहीं आती है
सीढ़िया चढ़नी
ही पड़ती हैं
अक्सर चढ़ी जाती हैं
छोर पर पहुँचते
पहुँचते अँगुलियाँ
जेब में सिक्के
टटोलने शुरु
हो जाती हैं
पान से लाल
किये होठों वाली
उस औरत का
ख्याल आते ही
नजर शराब की
दुकान की तरफ
जाने वाली गली
की तरफ अनजाने
में मुड़ जाती हैं
पता नहीं किस
की सोच का
असर सोच
को ये सब
करवाती है ।

रविवार, 12 जनवरी 2014

मिर्ची क्यों लग रही है अगर तेरी दुकान के बगल में कोई नयी दुकान लगा रहा है

माना कि
नयी
दुकान एक

पुरानी
दुकानों के 
बाजार में
घुस कर

कोई
खोल बैठा है

पुराना ग्राहक
इतने से में ही
पता नहीं
क्यों आपा
खो बैठा है

खरीदता है
सामान भी
अपनी ही
दुकान से
धेले भर का

नयी
दुकान के
नये ग्राहकों को

खाली पीली

धौंस
पता नहीं

क्यों
इतना देता है


अपने
मतलब
के समय

एक दुकानदार
दूसरे
दुकानदार को

माल
भी
जो चाहे दे देता है


ग्राहक
एक का

बेवकूफ जैसा

दूसरे के
ग्राहक से

खाली पीली
में
ही
उलझ लेता है


पचास साठ
सालों से

एक्स्पायरी
का सामान

ग्राहकों को
भिड़ा रहे हैं


ऐसे
दुकानदारों के

कैलेण्डर

ग्राहक

अपने अपने
घर पर

जरूर लगा रहे हैं

माल सारा
दुकानदारों

के खातों में ही
फिसल के जा रहा है

बाजार
चढ़ते चढ़ते

बैठा दिया
जा रहा है


नफा ही नफा
हो रहा है


पुरानी
दुकानों को

थोड़ा बहुत
कमीशन


ग्राहकों में
अपने अपने

पहुंचा दिया
जा रहा है


ग्राहक
लगे हैं
अपनी
अपनी
दुकानो के

विज्ञापन
सजाने में


कोई
अपने घर का

कोई
बाजार का
माल
यूं ही
लुटा रहा है


क्या फर्क
पड़ता है

ऐसे में

अगर कोई

एक नई दुकान
कुछ दिन के
लिये
ही सही
यहाँ लगा रहा है


खरीदो
आप अपनी
ही
दुकान का
कैसा भी सामान


क्यों
चिढ़ रहे हो

अगर कोई
नयी दुकान

की तरफ
जा रहा है


बाजार
लुट रही है

कब से
पता है तुम्हें भी


फिर
आज ही
सबको

रोना सा
क्यों आ रहा है


बहुत जरूरी
हो गया है

अब इस बाजार में

एक
अकेला कैसे

सारी बाजार
को लूट कर


अपनो में ही
कमीशन

बटवा रहा हैं

तुम करते रहो धंधा 

अपने इलाके में
अपने हिसाब से

एक नये
दुकानदार की

दुकानदारी

कुछ दिन

देख लेने में
किसी का क्या
जा रहा है ?

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

दुकान नहीं थी फिर भी दुकानदार कह कर बुलाया

अगला
बहुत
गुस्से में
मुझे आज
नजर आया

इस
बात पर कि
फंला ने उसको

दुकानदार
कह कर बुलाया

पूछने का
तमीज जैसे
पूछने वाला
अपने घर
छोड़ के हो आया

धंधा
कैसा
चल रहा है
जैसे प्रश्न

एक
शरीफ
के सामने
दागने की हिम्मत

पता नहीं
कैसे कर पाया

ये भी
नहीं सोच पाया

इतनी सारी
उपाधियां
जमा करने
के कारण ही
तो कोई
नीचे से ऊपर
तक है पहुंच पाया

बड़बड़
करते हुऐ
उसके निकलते ही

सामने से
मुझे अपने
अंदर से
निकलता हुआ

एक
दुकानदार
नजर आया

मौका
मिलते ही

कुछ
बेच डालने
के हुनरमंद
लोगों का
खयाल आया

थोड़ा ईमान
थोड़ा जमीर
बेचने का मौका

आज
के समय पर
थोड़ा थोड़ा तो

हर
किसी ने
कभी
ना कभी
है पाया

ये बात
अलग है

एक
पक्की दुकान

बनाने
की हिम्मत
कोई नहीं कर पाया

क्योंकि
रोज के धंधे
की ईमानदारी
के बुर्के की
आड़ को

छोड़ने का
रिस्क लेने का

थोड़ा सा
साहस

बस
नहीं कर पाया ।