उलूक टाइम्स: गांंधी
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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

कुछ तो खुरच कागज को खून ना सही खुरचन ही सही भिगोने के लिये लाल रंग के पानी की कहानी की

बहुत दिन हो गये
सफेद पन्ने
को छेड़े हुऐ
चलो आज फिर से
कोशिश करते हैं
पिचकारियॉ उठाने की

गलत सोच का
गलत आदमी होना
बुरा नहीं होता है प्यारे
सही आदमी की
संगत से
कोशिश किया कर
थोड़ा सा दूर जाने की

जन्नत उन्हीं की होती है
जहॉ खुद के होने का भी
नहीं सोचना होता है

मर जायेगा एक दिन
जिंदा रहते कभी तो
कोशिश कर लिया कर
एक खाली कफन उठाने की

हफ्ते दस दिन
लिखना छोड़ देने से
कमीने कमीनी
सोच का लिखना
छोड़ने वाले नहीं
करने वाले बहुत
ज्यादा कमीने हैं
इतना काफी है
एक कमीने की
कलम को
कमीनापन
दिखाने की

नंगे होने का मतलब
कपड़े उतार देने से होता है
किताबें समझाती हैं

पचास साल लग गये
बहुत होता है बेवकूफ

कपड़े और नंगे
समझने में
असली कलाकारी
नंगई की
दिखाई देती है
होती भी है
देश की ही नहीं
विदेशियों के भी
ताली बजाने की

‘उलूक’ नहीं लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ बात मरने की
कौन बेवकूफ कर रहा है
बात आज उसकी है
जिसकी बात बात से
बात निकल आती है
लाशें बिछवाने की

‘उलूक’ तू लगा रह
तेरे ‘उलूकपने’ की
दुकान पर बिकने
वाली शराफत की
गली कभी भी
गांंधी की आत्मा
मरने मरने तक
तो नहीं आने की।

चित्र साभार: www.nycfacemd.com

सोमवार, 30 जनवरी 2017

दो मिनट का मौन सायरन का तीस जनवरी के ग्यारह बजे

रोज के नौ
और
पाँच बजे के
सायरन
के अलावा

आज ग्यारह
और
ग्यारह
बज कर
दो मिनट
पर दो
बार बजे
सायरन के
बीच के
दो मिनट

सायरन
मौन रहा
श्रद्धांजलि
देता रहा
हर वर्ष
की तरह

सड़क पर
दौड़ती
गाड़ियाँ
करती रही
चुनाव प्रचार

बजाती
रही भोंपू
चीखता रहा
भाड़े का
उद्घोषक

श्रद्धा के साथ
अपने गांंधी
का चित्र
लगाये
अपने कोट
के बटन
के बगल में

गांंधी
कभी एक
हुआ होगा
आज कई
हो गये हैं

जीवित
गांंधी का
श्रद्धांजलि
देना
गाँधी को
गाँधियों की
सभा में
ध्वनिमत से
हाथ खड़े
कर पारित
भी नहीं

समय रहते
श्रद्धा के साथ
कर ही लेना
चाहिये अपना
श्राद्ध खुद ही
गया जाकर

शास्त्र
सम्मत है
‘उलूक’
हिचक मत

सायरन
ग्यारह
बजे का
कब तक
इसी
तरह बजेगा

दो मिनट
का मौन
रखते हुऐ
किस गांंधी
के लिये
कौन
जानता है ?

चित्र साभार: www.thehindubusinessline.com

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

गांंधी बाबा देखें कहाँ कहाँ से भगाये जाते हो और कहाँ तक भाग पाओगे

गांंधी जी

मैं कह
ही रहा था

कल परसों
की ही
बात थी

कब तक
बकरी की
माँ की तरह
खैर मनाओगे

दो अक्टूबर
तुम्हारी
बपौती नहीं है

किसी दिन
मलाई में
गिरी मक्खी
की तरह
निकाल कर
कहीं फेंक
दिये जाओगे

हो गया शुरु
तुम्हारा भी
देश निकाला

आ गई है खबर
सरकार ने सरकारी
आदेश है निकाला

‘गांंधी आश्रम’
के सूचना पटों
से अभी
निकाले जाओगे

‘खादी भारत’
होने जा रहा है
नया नामकरण

खादी
बुनने बुनाने
की किताबों
से भी भगा
दिये जाओगे

काम
हो रहा है
हर जगह तेजी से

नाम से
नाम को

हर जगह
मिटता मिटाता
लुटता लुटाता

अब आगे
यही सब
देख पाओगे

बहुत
कर लिये मौज
बाबा गांंधी

इतिहास
की किताबों से
खोद निकाल कर

जल्दी ही
खेतों के
गड्ढों में भी
बो दिये जाओगे

देख रहा है
‘उलूक’

बहुत कुछ
देखना है

अच्छा
होने वाला
अच्छे दिनों में

राष्ट्रपिता
की कुर्सी पर
जल्दी ही
किसी नेता जी को

ऊपर से अपने
बैठा हुआ पाओगे ।


चित्र साभार: news.statetimes.in

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

जन्म दिन अभी तक तो तेरा ही हो रहा है आज के दिन कौन जाने कब तक

कुछ देर के लिये
याद आया तिरंगा

उससे अलग कहीं
दिखी तस्वीर
संत की
माने बदल गये

यहाँ तक आते आते
उसके भी इसके भी

एक
डिजिटल हो गया
दूसरे की याद भी
नहीं बची कहीं

दिखा थोड़ा सा बाकी
अमावस्या के चाँद सा

समय के साथ साथ
कुछ खो गया

सोच सोच में पड़ी
कुछ डरी डरी सी

कहीं किसी को
अंदाज
आ गया हो
सोचने का
श्राद्ध पर्व
पर जन्मदिन
के दिन का

दिन भी सूखा
दिन हो गया
याद आया कुछ
सुना सुनाया

कुछ कहानियाँ
तब की सच्ची
अब की झूठी

बापू
कुछ नहीं कहना
जरूरतें बदल गई
हमारी वहाँ से
यहाँ तक आते आते

तेरे जमाने
का सच
अब झूठ

और झूठ
उस समय का
इस समय का
सबसे बड़ा सच भी
निर्धारित हो गया

जन्मदिन
मुबारक हो
फिर भी बहुत बहुत

बापू
दो अक्टूबर
का दिन अभी तो
तेरा ही चल रहा है

भरोसा नहीं है
कब कह जाये कोई
अब और आज
से ही इस जमाने के
किसी नौटंकी बाज की
नौटंकी का दिन हो गया ।

चित्र साभार: caricaturez.blogspot.com

शनिवार, 13 जून 2015

शुरुआत हो चुकी है बापू अभी तो बस नोट से जा रहे हैं

जब से सुना है
बापू दस रुपिये
के नये छपे नोट
में नजर नहीं
आ रहे हैं
कल्पना करने में
कुछ नहीं जाता है
देखने की कोशिश
कर रहा हूँ
एक चित्र
बना कर
बिगाड़ कर
सुधार कर
रंग भी
भर रहा हूँ
मगर रंग हैं
कि कूची से
ही शर्मा रहे हैं
लाल हरे पीले
काले सफेद
हो जा रहे हैं
इतनी बड़ी
बात भी नहीं है
तिरंगे के रंग
भी तो अब
अलग अलग
झंडों में दिखाये
जा रहे हैं
कहीं गेरुऐ हैं
कहीं हरे हैं
कहीं सफेद ही
बेच दिये
जा रहे हैं
अभी तो
दस रुपिये के
नोट से ही
हटाये जा रहे हैं
जल्दी ही
सपने में ही नहीं
होगा बस सच होगा
और तेरे देखते
देखते ही होगा
‘उलूक’ जब
दिखेगा कि
बापू की मूर्तियों
को वर्दी पहने हुऐ
कुछ अनुशाशित लोग
क्रेन से उठवा उठवा
कर थाने के मालखाने
में जमा करवा रहे हैं ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

बापू इस पुण्यतिथी पर आप ही कुछ नया कर लीजिये

बापू अब तो
कुछ नया
कर लीजिये
बहुत पुरानी
हो गई
धोती आपकी
नई डिजायन
कर करवा कर
डिजायनर
कर लीजिये
इतना गरीब
भी नहीं रहा
अब देश कि
आप धोती से
ही बदन
छुपाते रहें
आठ दस लाख
की सिल्क धोती
कम से  कम
पहन कर
जनता के
सामने आने
की अपनी
आदत कर लीजिये
जन्मदिन के तोहफे
जन्मदिन पर फिर
सुझा देंगे आपको
अभी बहुत दिन हैं
पुण्यतिथी पर
पहनियेगा नहीं भी
कोई बात नहीं
खरीद कर
बिकवाने की बात
ही कर लीजिये
गुजरात की या
हिंदुस्तान की सफेद
धोती हो ये भी
जरूरी नहीं
कौन पूछ रहा है
ग्लोबलाइजेशन
का फंडा सिखा
कर लंदन से ही
आयात कर लीजिये
हमने तो ना
आप को देखा बापू
ना ही आपकी
धोती को कभी
कहीं नजर तो
आइये कभी
धोती हाथ में
लेकर ही सही
आमना सामना
तो कर लीजिये
आदत हो गई है
‘उलूक’ को अब
झूठ के साथ
सफल प्रयोग
कर लेने की
कुछ हमें कर
लेने दीजिये नया
नये जमाने की
नयी चोरियाँ
आप बस फोटो में
बने रहने की
अपनी आदत अब
पक्की कर लीजिये ।

चित्र साभार: shreyansjain100.blogspot.com

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

गांंधी सुना है आज अफ्रीका से लौट के घर आ रहा है

घर वापसी
किस किस की
कहाँ कहाँ से और
कब कब होनी है
कोई भी हो
लौट ही तो रहा है
तेरी सूरत किसलिये
रोनी रोनी है
नया क्या कोई
कुछ करने जा रहा है
तेरे चेहरे पर पसीना
क्यों आ रहा है
गांंधी जी
ना मैंने देखे
ना तूने देखे
बस सुनी सुनाई
बात ही तो है
क्या कर गये
क्या कह गये
किस ने समझा
किस ने बूझा
चश्मा लाठी
चप्पल बचा के
रखा हुआ है और
हमारे पास ही तो है
कौन सा उनका भूत
उन सब का प्रयोग
फिर से करने
आ रहा है
कर भी लेगा तो
क्या कर लेगा
गांंधी जी भी
एक मुद्दा हो चुका है
झाड़ू की तरह
उसे भी प्रयोग
किया जा रहा है
बहुत कुछ छिपा है
इस पावन धरती पर
धरती पकड़ भी हैं
बहुत सारे
हर कोई एक नया
मुद्दा खोद के
ले आ रहा है
सूचना क्रांंति का
कमाल ही है ये भी
मुद्दे के सुलझने
से पहले दूसरा मुद्दा
पहले मुद्दे का
घोड़ा बना रहा है
घोड़े से नजर
हटा कर सवार
को देखने देखने तक
एक नया मुद्दा
तलवार का
सवार मुद्दे के हाथ में
थमाया जा रहा है
चिंता हो रही है तो
बस इस बात की
आज के दिन गांंधी के
लौटने की खबर का
मुद्दा गरमा रहा है
कहीं सच में ही
आ गये लौट
के गांंधी जी उस
पवित्र जमीन पर
जहाँ आज हर कोई
अपने आप को
गाँधी बता रहा है
क्या फर्क पड़ना है
उन गांंधियों को
जिनका धंधा आज
ऊँचाईयों पर छा रहा है
दूर आसमान से
देखने से वैसे भी
दिखता है जमीन पर
गांंधी हो या हाथी हो
कोई चींटी जैसा कुछ
इधर से उधर को
और उधर से इधर को
आ जा रहा है
नौ जनवरी को
पिछले साल तक
‘उलूक’ तक भी
नहीं जानता था
इस साल वो भी
गांंधी जी के
इंतजार में
बैठ कर
वैष्णव जन
तो तैने कहिये
गा रहा है ।

चित्र साभार: printablecolouringpages.co.uk

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आज की ट्रेन में ‘उलूक’ कुछ ज्यादा डिब्बे लगा रहा है वैसे भी गरीब रथ में कौन आना चाह रहा है

पुरानी से लेकर नई
किताबों के कमरे में
उन के ऊपर जमी
धूल में कुछ फूल
बनाने का मन हुआ
कुछ फूल कुछ पत्तियाँ
कुछ कलियाँ कुछ काँटे
क्या बनाऊँ क्या नहीं
किस से पूछा जाये
कौन बताये कौन छाँटे
कुछ ऐसा ही चल रहा था
खाली दिमाग में कि
धूल उड़ी आँख में घुसी
नाक में घुसी आँख बंद हुई
फिर छींके आना शुरु हुई
छींके बंद होने का
नाम नहीं ले रही थी
किताबें जैसे देख
देख कर यही सब
दबी जुबान से
हँस रही थी
जैसे कह रही हों
बेवकूफ
अभी तक कागज के
मोह में पड़ा हुआ है
लिखा हुआ होने से
क्या होता है
जब से लिखा गया था
तब से अब तक
वैसे का वैसा ही
यहीं एक जगह पर
अड़ा हुआ है
दुनियाँ बदल रही है
किताबों के शीर्षक
सारे के सारे
काम में लाये जा रहे हैं
इधर उधर जहाँ भी
जरूरत पड़ रही है
चिपकाये जा रहे हैं
साहित्य किसी का भी हो
किसी के काम का
नहीं रह गया है
जिसने लिखा है कहा है
उसके नाम को बस
कह देने से ही सब
कुछ हो जा रहा है
जो कहा जा रहा है
आशा की जा रही है
आप की समझ में
अच्छी तरह से
आ जा रहा है
नहीं आ रहा है
कोई बात नहीं
उदाहरण भी यहीं
और अभी का अभी
दिया जा रहा है
जैसे गांंधी पटेल
भगत सिंह
विवेकानंद या
कोई और भी
पुराना आदमी
उसने क्या कहा
कहने की जरूरत
अब नहीं है
उसकी फोटो
दिखा कर
मूर्ति बनाकर
काम शुरु
हो जा रहा है
वही जैसा
हमेशा से
पार्वती पुत्र
गणेश जी
के साथ किया
जा रहा है
सुना है सफाई
कर्मचारियों को
अब कम्प्यूटर
सिखाया
जा रहा है
झाड़ू देने
का काम तो
प्रधानमंत्री से
लेकर अस्पताल
के संत्री को तक
कहीं ना कहीं करना
बहुत जरूरी हो गया है
अखबार से लेकर
टी वी से लेकर
रेडियो सेडियो में
सुबह शाम
के भजनों के
साथ आ रहा है
‘उलूक’
तेरी मति भी
सटक गई है
नहीं होने के
बावजूद भी
पता नहीं
अच्छे खासे
चल रहे देश
के काम में
तू रोज रोज
कुछ ना कुछ
उटपटाँग सा
अपने जैसा
चावल के
कीड़ों की तरह
बीन ला रहा है
किताबों को
रद्दी में बेच
क्यों नहीं देता
सोना नहीं है
जो सोच रहा है
पुरानी होने पर कोई
करोड़पति होने इन्ही
सब से जा रहा है
अब जो जहाँ हो रहा है
होता रहेगा
पुरानी किताबों की जगह
कुछ नई तरह की बातों
का जमाना आ रहा है
कुछ दिन चुपचाप
रहने वाले के और
कुछ दिन शोर
मचाने वाले के
बारी बारी से अब
आया करेंगे
एक झाडू‌ बेचने वाला
सबको बहुत प्यार से
बता रहा है
आज ऐसा
क्यों लिखा तूने
यहाँ पर पूछना
नहीं है मुझसे
क्योंकि मेरी
समझ में भी
कुछ नहीं आ रहा है
और ये भी पता है
इस सब को समझने
को कोई भी नासमझ
यहाँ नहीं आ रहा है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

क्यों नहीं लिखूँगा गंदगी हो जाने से अच्छा गंदगी बताना भी जरूरी है

घर को सुन्दर
बनाना भी
जरूरी है

घर की खिड़कियों
के शीशों को
चमकाना भी
जरूरी है

बाहर का खोल
ना खोल दे
कहीं पोल

तेज धूप और
बारिश के पानी
से बचाना भी
जरूरी है

बढ़िया कम्पनी
का महँगा पेंट
चढ़ाना भी
जरूरी है

रोशनी तेज रहे
बाहर की
दीवारों पर
देख ना पाये
कोई नाम
किसी का

इश्तहारों पर
आँखों को
थोड़ा सा
चौधियाँना
भी जरूरी है

शीशों के बाहर
से ही लौट लें
प्रश्न सभी के

अंदर के दृश्यों को
पर्दों के पीछे
छिपाना भी
जरूरी है

बुराई पर
अच्छाई की
जीत दिखानी
भी जरूरी है

अच्छाई को बुराई
के साथ मिल बैठ
कर समझौता
कराना भी जरूरी है

रावण का
खानदान है
अभी भी
कूटने पीटने
के लिये भगवान
राम का आना
और जाना
दिखाना भी
जरूरी है

फिर कोई नाराज
हो जायेगा और
कहेगा कह रहा है

क्या किया जाये
आदत से मजबूर है
नकारात्मक सोच
की नालियों में
पल रहा ‘उलूक’ भी

उसे भी मालूम है
घर के अंदर चड्डी
चल जाती है
बाहर तो गांंधी कुर्ते
और टोपी में आना
भी जरूरी है

नहीं कहना चाहिये
होता कुछ नहीं है
पता होता है
फिर भी उनकी
सकारात्मक
झूठ की आंंधियों
में उड़ जाना
भी जरूरी है ।

चित्र साभार: http://www.beautiful-vegan.com

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

जो होता नहीं कहीं उसी को ही दिखाने के लिये कुछ नहीं दिखाना पड़ता है

बैठे ठाले का
दर्शन है बस
चिंतन के किसी
काम में कभी भी
नहीं लाना होता है
खाली दिमाग
को कहते हैं
दिमाग वाले
शैतान का एक
घर होता है
ऐसे घरों की
बातों को
ध्यान में नहीं
लाना होता है
सब कर रहे
होते हैं लागू
अपने अपने
धंधों पर
धंधे पर ही बस
नहीं जाना होता है
बहुत देर में आती है
बहुत सी बातें
गलती से समझ में
सबको आसानी से
समझ में आ जाये
ऐसा कभी भी कुछ
नहीं समझाना होता है
एक ही जैसी बात है
कई कई बातों में
घुमा फिरा के फिर
उसी जगह पर
चले जाना होता है
सबके सब कर
रहे होते हैं
गांंधी दर्शन के
उल्टे पर शोध अगर
मान्यता पाने के लिये
शामिल हो ही
जाना पड़ता है
घर में सोते रहिये
जनाब चादर ओढ़ कर
दिन हो या रात हो
अखबार में कसरत
करता हुआ आदमी
एक दिखाना पड़ता है
कभी तो चावल के
दाने गिन भी लिया
कर ‘उलूक’ दिखाने
के लिये ही सही
रोज रोज कीड़े
दिखाने वाले को
बाबा जी का भोंपू
बजा कर शहर से
भगाना पड़ता है ।

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सच सामने लाने में बबाल क्यों हो जाता है

सच कड़वा
होता है
निगला
नहीं जाता है

गांंधी के
मर जाने से
क्या हो जाता है
गांंधीवाद क्या
उसके साथ में
चला जाता है

उसका
सिखाया गया
सत्य का प्रयोग
जब किया जाता है
तो बबाल हो गया
करके क्यों बताया
और
दिखाया जाता है

बहुत बहुत
शाबाशी
का काम
किया जाता है
जब जैसा मन में
होता है वैसा कर
लेने की हिम्मत
कोई कर ले जाता है

उस के लिये
एक उदाहरण
हो जाता है
जो सोचता
वहीं पर है
पर करने
को कहीं
पीछे गली में
चला जाता है

सारे देश में
जब हर जगह
कुछ माहौल
एक जैसा
हो जाता है
ऐसे में  कहीं
किसी जगह से
निकल कर
कुछ बाहर
आ ही जाता है

सच बहुत
दिनों तक
छिपाया
नहीं जाता है

मिर्चा पाउडर का
प्रयोग तो आँसू
लाने के लिये
किया जाता है

देश का दर्द
बाहर ला
कर दिखाने
के लिये कुछ
तो करना ही
पड़ जाता है

संविधान में ही
इस सब
की व्यवस्था
कर लेने में
किसकी
जेब से
पता नहीं
क्या चला
जाता है

जैसा माहौल
सारे देश में
अंदर ही अंदर
छुपा छुपा के
हर दिल में
पाला जाता है

उसे किसी
के बाहर
ला कर
सच्चाई से
दिखा देने
पर क्यों
इतना बबाल
हो जाता है

भारत रत्न
ऐसे ही
लोगों को
देकर
कलयुगी
गांंधी का
अवतार
क्यों नहीं
कह दिया
जाता है

अगर
नहीं हो पा
रहा होता है
इस तरह का
किसी से कहीं

कुछ
सीखने सिखाने
के लिये मास्टर के
पास क्यों नहीं
भेज दिया जाता है

हाथ पैर
चलाये बिना
जिसको बहुत कुछ
करवा देने का
अनुभव होता है
जब ऐसा माना
ही जाता है ।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

आज के दिन अगर तू नहीं मारा जाता तो शहर का साईरन कैसे टेस्ट हो पाता

सुबह सुबह आज भी
सुनाई दिया जो
रोज सुनाई देता था
आप सोच रहे होंगे
अलार्म जी नहीं
उसकी जरूरत
उनको पड़ती है
जिनको साउंड स्लीप
रोज आती है
किसी भी बात की
चिंता जिन्हे कभी
नहीं सताती है
अपने यहाँ नींंद
उस समय ही
खुल पाती है
जब एक आवाज
कुछ देर हल्की
फिर होते होते
तेज हो जाती है
दूध नहीं लाना है आज
तब महसूस होता है
क्यों दूध भी नल
में नहीं आता है
पानी मिला हुआ
ही तो होता है
पानी के नल में ही
क्यों नहीं दे
दिया जाता है
बाकी सब वही
होना था रोज रोज
का जैसा रोना था
बस ग्यारा बजे
सायरन मेरे शहर में
आज कुछ नया
सा जब बज उठा था
पहले लगा कहीं
आग लग गई होगी
फिर पुराना दिमाग
सोता हुआ सा
कुछ कुछ जगा था
आज की तारीख
पर ही तो कभी
गांंधी मारा गया था
देश के द्वारा
हर साल इसी दिन
मौन रख रख कर
उसका एहसान
उतारा गया था
कितनी किश्ते
बचीं हैं अभी तक
बताया नहीं गया था
क्या पता कुछ
ब्याज जोड़ कर
कुछ और वर्षों के
लिये सरकाया गया था
दो मिनट बाद
फिर बजा साईरन
मेरा शहर उठा उठा
एक साल के लिये
फिर से सो गया था
और मैं भी उठा
दूध की बाल्टी
पकड़ कर घर की
सीढ़ियांं उतरना
शुरु हो गया था । 

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

उस पर क्यों लिखवा रहा है जो हर गली कूंचे पर पहुंच जा रहा है

लिख तो
सकता हूँ
बहुत कुछ
उस पर
पर नहीं
लिखूंगा
लिख कर
वैसे भी
कुछ नहीं
होना है
इसलिये
मुझ से
उस पर
कुछ लिखने
के लिये
तुझे कुछ
भी नहीं
कहना है
सबके अपने
अपने फितूर
होते हैं
मेरा भी है
सब पर कुछ
लिख सकता हूँ
उसपर भी
बहुत कुछ
पर क्यों लिखूं
बिल्कुल
नहीं लिखूंगा
अब पूछो
क्यों नहीं
लिखोगे भाई
जब एक
पोस्टर जो
पूरे देश की
दीवार पर
लिखा जा
रहा है और
हर कोई
उसपर
कुछ ना कुछ
कहे जा रहा है
तो ऐसे पर
क्या कुछ
लिखना जिसे
देख सब रहे हैं
पर पढ़ कोई भी
नहीं पा रहा है
मेरा इशारा उसी
तरफ जा रहा है
जैसा तुझ से
सोचा जा रहा है
उसे देखते ही मुझे
अपने यहाँ का वो
याद आ रहा है
होना कुछ
नया नहीं है
पुराने पीतल
पर ही सोना
किया जा रहा है
कुछ दिन
जरूर चमकेगा
उसके बाद
सब वही
जो बहुत
पुराने से
आज के नये
इतिहास तक
हर पन्ने में
कहीं ना कहीं
नजर आ रहा है
गांधी की
मूर्तियों से
काम निकलना
बंद हो भी
गया तो परेशान
होने की कोई
जरूरत नहीं
उन सब को
कुछ दिन
के लिये
आराम दिया
जा रहा है
खाली जगह
को भरने
के लिये
सरदार पटेल
का नया
सिक्का
बाजार में
जल्दी ही
लाया जा
रहा है | 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

हैप्पी बर्थ डे गांधी जी हैप्पी बर्थ डे शास्त्री जी खुश रहिये जी !

कुछ किताबें पुरानी
अपने खुद के वजूद
के लिये संघर्षरत
पुस्तकालय में
कुछ पुराने चित्र
सरकारी संग्रहालय में
कुछ मूर्तियां खड़ी
कुछ बैठी कुछ खंडित
कुछ उदघाटन के
इंतजार में
गोदामों में पड़ी
कुछ पार्क कुछ मैदान
कुछ सड़कों कुछ गलियों
कुछ सरकारी संस्थानो
के रखे गये नाम
बापू और लाल बहादुर
के जन्मदिन दो अक्टूबर
की पहचान राष्ट्रीय अवकाश
काम का आराम
सत्य अहिंसा सादगी
बेरोजगार बेकाम
कताई बुनाई देशी श्रम
दाम में छूट कुछ दिन
खादी का फैशन
एक दुकान गांधी आश्रम
सफेद कुर्ते पायजामे
लूट झूठ की फोटोकापी
भ्रष्टाचार व्यभिचार को
ऊपर से ढकती हुई
सर पर गांधी टोपी
एक नया शब्द
एक नयी खोज
मुन्नाभाई शरीफ
की गांधीगिरी
गांधी की दादागिरी
सत्य अहिंसा और
धर्म की फाईलें
न्यायालय में लम्बित
सब कुछ सबके
व्यव्हार में साफ
साफ प्रतिबिम्बित
एक फूटा हुआ बरतन
लाभ का नहीं
मतलब का नहीं
आज के समय में
नई पीढ़ी को कहां
फुरसत ऐसी वैसी
बातों के लिये
जिसमें नहीं हो
कोई आकर्षण
वैसे भी होता होगा
कभी कहीं गांधी
और गांधी दर्शन ।

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

लिखने में अभी उतना कुछ नहीं जा रहा है

सभी के आसपास 
इतना कुछ होता है
जिसे वो अगर
लिखना चाहे तो
किताबें लिख सकता है
किसी ने नहीं कहा है
सब पर लिखना
जरूरी होता है
अब जो लिखता है
वो अपनी सोच
के अनुसार ही
तो लिखता है
ये भी जरूरी नहीं
जो जैसा दिखता है
वो वैसा ही लिखता है
दिखना तो ऊपर वाले
के हाथ में होता है
लिखना मगर अपनी
सोच के साथ होता है
अब कोई सोचे कुछ और
और लिखे कुछ और
इसमें कोई भी कुछ
नहीं कर सकता है
एक जमाना था
जो लिखा हुआ
सामने आता था
उससे आदमी की
शक्लो सूरत का भी
अन्दाज आ जाता था
अब भी बहुत कुछ
बहुतों के द्वारा
लिखा जा रहा है
पर उस सब को
पढ़कर के लिखने
वाले के बारे में
कुछ भी नहीं
कहा जा रहा है
अब क्या किया जाये
जब जमाना ही नहीं
पहचाना जा रहा है
एक गरीब होता है
अमीर बनना नहीं
बल्की अमीर जैसा
दिखना चाहता है
सड़क में चलने से
परहेज करता है
दो से लेकर चार
पहियों में चढ़ कर
आना जाना चाहता है
उधर बैंक उसको
उसके उधार के
ना लौटाने के कारण
उसके गवाहों को
तक जेल के अंदर
भिजवाना चाहता है
इसलिये अगर कुछ
लिखने के लिये
दिमाग में आ रहा है
तो उसको लिखकर
कहीं भी क्यों नहीं
चिपका रहा है
मान लिया अपने
इलाके में कोई भी
तुझे मुँह भी
नहीं लगा रहा है
दूसरी जगह तेरा लिखा
किसी के समझ में
कुछ नहीं आ रहा है
तो भी खाली परेशान
क्यों हुऎ जा रहा है
खैर मना अभी भी
कहने पर कोई लगाम
नहीं लगा रहा है
ऎसा भी समय
देख लेना जल्दी ही
आने जा रहा है
जब तू सुनेगा
अखबार के
मुख्यपृष्ठ में
ये समाचार
आ रहा है  
गांंधी अपनी
लिखी किताब
“सत्य के साथ 

किये गये प्रयोग “
के कारण मृ्त्योपरांत
एक सदी के लिये
कारावास की सजा
पाने जा रहा है ।

शुक्रवार, 14 जून 2013

दिशा है अगर तो है दिशाहीन

दिशा लेकर
चलता है
बस वो

एक ही
अकेला होता है

दिशाहीनो का
तो एक
मसीहा होता है

मेरे घर में
होता है और
ऎसा होता है

कहने को
हर कोई
बहुत कुछ
कहता है


जो करना ही
नहीं होता है
वही तो
वो कहता है

मेरी बात पर
तू कभी
कुछ नहीं
कहता है

तेरे घर में क्या
ये नहीं होता है

मेरे घर के
मुखिया को
सब पता होता है

जब भी
कुछ होता है
तो वो कहीं भी
नहीं होता है

देश में पल पल
जो हो रहा होता है

वही सब मेरे घर में
घट रहा होता है

कोई गांधी और
कोई गोडसे
की दुहाई दे
रहा होता है

कोई पटेल
के नाम का
लोहा ले
रहा होता है

जो जो कह
रहा होता है
वो कहीं नहीं
हो रहा होता है

मेरे घर में रोज
ऎसा ही हो
रहा होता है

तेरे घर में
बता भी दिया
कर कभी

क्या कुछ स्पेशल
हो रहा होता है

मैं रोज अपने घर
की बात करता हूँ

फिर भी तू
कुछ कहाँ कह
रहा होता है

मेरे देश में
कैसे मान लूं
कुछ अलग
हो रहा होता है

जब मेरे ही
घर में रोज
ऎसा ही हो
रहा होता है ।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

निपट गये सकुशल कार्यक्रम

गांंधी जी
और शास्त्री जी

दो एक दिन से
एक बार फिर से 

इधर भी और उधर भी
नजर आ रहे थे

कल का पूरा दिन
अखबार टी वी समाचार
कविता कहानी और
ब्लागों में छा रहे थे

कहीं तुलना हो रही थी
एक विचार से
किसी को इतिहास
याद आ रहा था

नेता इस जमाने का
भाषण की तैयारी में
सत्य अहिंसा और
धर्म की परिभाषा में
उलझा जा रहा था

सायबर कैफे वाले से
गूगल में से कुछ
ढूंंढने के लिये गुहार
भी लगा रहा था

कैफे वाला उससे
अंग्रेजी में लिख कर
ले आते इसको

कहे जा रहा था

स्कूल के बच्चों को भी
कार्यक्रम पेश करने
को कहा जा रहा था

पहले से ही बस्तों से
भारी हो गई
पीठ वालो का दिमाग
गरम हुऎ जा रहा था

दो अक्टूबर की छुट्टी
कर के भी सरकार को
चैन कहाँ आ रहा था

हर साल का एक दिन
इस अफरा तफरी की
भेंट चढ़ जा रहा था

गुजरते ही जन्मोत्सव
दूसरे दिन का सूरज
जब व्यवस्था पुन:
पटरी पर  होने का
आभास दिला रहा था

मजबूरी का नाम
महात्मा गांंधी होने का
मतलब एक बार फिर
से समझ में आ रहा था ।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

गद्दार डी एन ए

डी एन ए से देखिये
कैसे डी एन ए
मिल गया
बाप को एक बेटा
बेटे को एक
बाप मिल गया
बहुत खुशी
की बात है
बहुत पुरानी
बात का बहुत
दिनों बाद
पता चल गया
क्या फर्क पड़ा
चाहे इसमें एक
पूरा युग लग गया
पर बहुत ही
खतरनाक चीज है
ये डी एन ए
अपना ही होता है
और गद्दारी भी
अपनो से कर लेता है
ढोल बजा देता है
और पोल खोल देता है
देखिये तो कहाँ
से होकर कहाँ
निकल जाता है
कभी किसी को
कुछ भी कहाँ बता
के जाता है
दिखता सूक्ष्मदर्शी
से भी नहीं है
पर रास्ते रास्ते में
अपने निशान छोड़ता
चला जाता है
पता ही नहीं चलता
और एक दिन
यही डी एन ए
गांंधी हो जाता है
आज भी तो
यही हुआ है
डी एन ए ने
सब कुछ
कह दिया है
अब इसे देख देख
कर बहुत से
घबरा रहे हैं
याद कर रहे हैं
कि कहाँ कहाँ
वो डी एन ए छोड़
के आ रहे हैं
कान भी पकड़ते
जा रहे हैं
अगली बार से
बिल्कुल भी
डी एन ए को साथ
नहीं ले जाना है
कसम खा रहे हैं ।

रविवार, 1 जुलाई 2012

योगी लोग

घर हमारा
आपको
बहुत ही
स्वच्छ
मिलेगा

कूड़ा
तरतीब
से संभाल
कर के

नीचे
वाले पड़ोसी
की गली में

पौलीथिन में
पैक किया
हुआ मिलेगा

पानी हमारे
घर का
स्वतंत्र रूप
से खिलेगा

वो गंगा
नहीं है कि
सरकार
के इशारों
पर उसका
आना जाना
यहां भी चलेगा

जहाँ उसका
मन चाहेगा
बहता ही
चला जायेगा

किसी की
हिम्मत नहीं है
कि उसपर
कोई बाँध बना
के बिजली
बना ले जायेगा

नालियों में
कभी नहीं बहेगा
जहां भी मन
आये अपनी
उपस्थिति
दर्ज करायेगा

हम ऎसे वैसे
लोग नहीं हैं
अल्मोड़ा शहर
के वासी हैं
गांंधी नेहरू
विवेकानन्द
जैसे महापुरुषों
ने भी कभी
इस जगह की
धूल फाँकी है

इतिहास में
बुद्धिजीवियों
के वारिसों
के नाम से
अभी भी
इस जगह को
जाना जाता है

पानी भी
पी ले
कोई मेरे
शहर का
तो बुद्धिजीवी
की सूची में
अपना नाम
दर्ज कराता है

योगा करना
जिम जाना
आर्ट आफ
लिविंग के
कैम्प लगाना
रामदेव और
अन्ना के
नाम पर
कुर्बान होते
चले जाना

क्या क्या
नहीं आता
है यहां के
लोगों को
सीखना
और
सिखाना

सुमित्रानन्दन पंत
के हिमालय
देख देख
कर भावुक
हो जाते हैं

यहाँ की
आबो हवा
से ही लोग
पैदा होते
ही योगी
हो जाते है

छोटी छोटी
चीजें फिर
किसी को
प्रभावित नहीं
करती यहाँ

कैक्टस के
जैसे होकर
पानी लोग
फिर कहाँ
चाहते हैं

अब आप को
नालियों और
कूड़े की पड़ी
है जनाब

तभी कहा
जाता है
ज्यादा पढ़ने
लिखने वाले
लोग बहुत
खुराफाती
हो जाते हैं

अमन चैन
की बात
कभी भी
नहीं करते

फालतू बातों
को लोगो को
सुना सुना
सबका दिमाग
खराब यूँ ही
हमेंशा करने
यहाँ भी
चले आते हैं।

शुक्रवार, 8 जून 2012

चल मुँह धो कर के आते हैं

अपनी भी
कुछ पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

मंजिल तक
पहुंचने के
लम्बे रास्ते
से ले जाते हैं

कुछ
राहगीरों को
आज राह से
भटकाते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

चलचित्र 'ए'
देखने का
माहौल बनाते हैं

उनकी आहट
सुनते ही
चुप हो जाते हैं

बात
बदल कर
गांंधी की
ले आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

बूंद बूंद
से घड़ा
भर जाये
ऎसा
कोई रास्ता
अपनाते हैं

चावल की
बोरियों में
छेद
एक एक
करके आते हैं

चल मुँह धो 
कर के आते हैं

अन्ना जी से
कुछ कुछ
सीख  कर
के आते हैं

सफेद टोपी
एक सिलवाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

किसी के
कंधे की 
सीढ़ी एक
बनाते हैं


ऊपर जाकर
लात मारकर
उसे नीचे
गिराते हैं

सांत्वना देने
उसके घर
कुछ केले ले
कर जाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं

देश का
बेड़ा गर्क
करने की
कोई कसर
कहीं
नहीं छोड़
कर के जाते हैं

भगत सिंह
की फोटो
छपवा कर के
बिकवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


एक रुपिया
सरकारी
खाते में
जमा करके

बाकी
निन्नानबे
घर अपने
पहुंचवाते हैं



चल मुँह धो कर के आते हैं


अपनी
भी कुछ
पहचान
चलो आज
बनाते हैं

चल मुँह धो कर के आते हैं।