उलूक टाइम्स: कूड़ा
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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

कई दिन के सन्नाटे के बाद किसी दिन भौंपू बजा लेने में क्या जाता है

 



कुछ बहुत अच्छा लिखने की सोच में
बस सोचता रह जाता है

कुकुरमुत्तों की भीड़ में खुल के उगना
इतना आसान नहीं हो पाता है

महीने भर का कूड़ा
कूड़ेदान में ही छोड़ना पड़ जाता है

कई कई दिनों तक मन मसोस कर
बन्द ढक्कन फिर खोला भी नहीं जाता है

दो चार गिनती के पके पकायों को पकाने का शौक
धरा का धरा रह जाता है

कूड़ेदान रखे रास्तों से निकलना कौन चाहता है
रास्ते फूलों से भरे एक नहीं बहुत होते हैं

खुश्बू लिखे से नहीं आती है अलग बात है
खुश्बू सोच लेने में कौन सा किसी की जेब से
कुछ कहीं खर्च हो जाता है

समय समय की बात होती है
कभी खुल के बरसने वाले से निचोड़ कर भी 
कुछ नहीं निकल पाता है

रोज का रोज हिसाब किताब करने वाला
जनवरी के बाद फरवरी निकलता देखता है
सामने ही मार्च के महीने को मुँह खोले हुऐ
सामने से खड़ा हुआ पाता है

कितने आशीर्वाद छिपे होते हैं
कितनी गालियाँ मुँह छुपा रही होती है
शब्दकोष में इतना कुछ है अच्छा है सारा कुछ
सब को हर समय समझ में एकदम से नहीं आ जाता है

चार लाईन लिख कर अधूरा छोड़ देना बहुत अच्छा है
समझने वाला 
पन्ने पर खाली जगह देख कर भी
समझ ले जाता है 

पता नहीं कब समझ में आयेगा उल्लू के पट्ठे ‘उलूक’ को

आदतन कुछ भी नहीं लिखे हुऐ को
खींच तान कर हमेशा
कुछ बन ही जायेगा की समझ लिये हुऐ बेशरम

कई दिनों के सन्नाटे से भी निकलते हुऐ
भौंपू बजाने से बाज नहीं आता है।

चित्र साभार: https://www.clipartmax.com/

बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

कूड़ा लिख ‘उलूक’ परेशानी एक है साथ में डस्टबिन क्यों नहीं ले कर के आता है






लिखे की गिनती करने के चक्कर मे हमेशा
क्या लिखना है भूला जाता है
कूड़े के ऊपर कहीं के
कहीं और का कूड़ा आ कर बादलों सा छा जाता है


कूड़ा कोई नहीं लिखता है
ना ही किसी को कूड़ा पढ़ लेना ही आता है
कूड़ा फेकने वाला भी नहीं देखता है कभी
कूड़ा बस उठाता है और फेंक आता है


सकारात्मकता बेचने खरीदने के खेल से कमाने वालों के बटुवे में
कूड़ा कभी नहीं पाया जाता है
कूड़ा बेचने खरीदने वालों की हमेशा विजय होती है
नीरमा की सफेदी एक विज्ञापन होता है रह जाता है


कूड़े की राजनीति एक सफल राजनीति होती है बल
ऐसा कहा लेकिन कभी नहीं जाता है
कूड़ा ढक कर सफेद कपड़े से लेकिन
उजाले का आभास कराने वाले को मेडल दिया जाता है


सारे कूड़े पर बैठे हुऐ कूड़े
अपने अपने दाँत निपोर कर दिखाते हैं
कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है
पर्यावरण के पाठ में और उसी विषय की किताब में
कूड़ा ही होता है
जो गालियाँ कई सारी हमेशा खाता है


‘उलूक’ कूड़ा सोचा मत कर
कूड़ा किया कर फैलाया कर
समझा कर
कूड़ा नियामत है हजूर की
वो हजूर जो कूड़े की ही खाता है
लिख जितना लिख सकता है कूड़ा
सफाई लिखने वाला
सफाई लिखने वाले के यहाँ ही दिखाई देता है
और
झाड़ू साफ़ सफाई कहता हुआ भी पाया जाता है ।


चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/



शनिवार, 12 सितंबर 2020

कूड़े पर तेरा लिखना हमेशा कूड़ा कूड़ा जैसा ही तो होना है





कितना भी लिखें कुछ भी लिखें
कल परसों भी यही सब तो होना है 

नये होने की आस बस जिंदा रखनी है
 पुराना हुआ रहेगा भी
उस की खबर को अब कब्र में ही तो किसी सोना है 

वो करेगा कुछ नहीं
करे कराये पर कुछ ना कुछ उल्टा सीधा ही तो उसे कहना है 

देखने के लिये
तैयार तो किये जा रहे हैं मैदाने जंग शहर शहर
वहां जंग छोड़ कर
और कुछ अजीब सा ही तो होना है 

आदत डालनी ही पड़ेगी
डर के साथ जीने की
पढ़ाना तो किसी पुराने वीर की कहानी ही है
अभी के समय का तो बस रोना है

समझ में तब आये किसी के
जब कोई समझना चाहे
खुद ही मौज में दिखते है सारे जवान आज
कंधे अपने दे कर किसी कोढ़ी को तारने की बन के सीढ़ी
चढ़ कर ऊपर
मारनी है लात सबसे पहले सीढ़ी को गिराने के लिये उसने भी
एक बार नहीं
बेवकूफों के साथ हर बार तो यही होना है

दिखता है सामने से
होता हुआ भ्रष्टाचार बड़े पैमाने का
सुनना कौन चाहता है
मुखौटा ओढ़ा हुआ देशभक्त देशप्रेमी के करे धरे का

किसी के पास कहाँ समय है
कहाँ किसे इस सब के लिये सोचना है
रोने के लिये रखा है सामने से कोरोना है

‘उलूक’
तेरी बुद्धि तेरा सोचना तेरा नजरिया
बदलना तो नहीं है
तेरे लिये कूड़े पर तेरा लिखना
हमेशा
कूड़ा कूड़ा जैसा ही तो होना है।

चित्र साभार: http://www.clker.com/
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रविवार, 30 अगस्त 2020

यूं ही लिख कभी बिना सोचे बिना देखे कुछ भी आसपास अपने लाजवाब लिखा जाता है

 


डस्टबिन
मतलब कूड़ेदान

अब
कूड़ा कौन दान करता है
और
कौन ग्रहण
ये तो पता नहीं

पर बजबजा जाता है

ढक्कन
ऊपर उठना शुरु हो जाता है

कितनी भी
कोशिश करो
ना जिक्र किया जाये
कुछ अलग से अच्छा सा कहा जाये

पर कैसे

देखना सुनना महसूस करना
बन्द ही नहीं किया जाता है

कुछ अच्छा
खुद ही कूड़े से परेशान
किसी किनारे से निकल कर

शुद्ध हवा पानी खोजने के लिये
रेगिस्तान में आज के निकल जाता है

उस अच्छे के हाथ कुछ लगता है पता नहीं

पर
सामने से बचे हुऐ कूड़े पर बहुत प्यार आता है

और
लाजवाब कहलाये जाने लायक
लाजवाब सुन्दर बहुत खूब लिख लिया जाता है

लेखक
छंद बंद छोटी कहानी लम्बी कविता
समीक्षा टिप्पणी

साहित्य की
लगी हुई कतार को कूँद फाँद कर
हवा हवाई गुब्बारे बैखौफ उड़ाता है

उसे ना शर्म आती है
ना किसी का लिहाज रह जाता है

कौन समझाये
मूल्यों को समझना परखना लागू करना
स्वयं के ऊपर
इतना आसान नहीं हो पाता है

जितना काले श्यामपट के ऊपर
सफेद चॉक से लकीरें खींच कर लिख लिखा कर
गीले कपड़े से तुरत फुरत पोंछ भी दिया जाता है

लिखने लिखाने पढ़ने पढा‌ने का भी संविधान है ‘उलूक’

पता नहीं किसलिये
तुझे सीमायें तोड़ने में मजा आता है

कोशिश तो कर किसी दिन
दिमाग आँख नाक मुँह बंद करना
और फिर
बिना सोचे समझे कुछ लिखने का

 देख
फिर अपने लिखे लिखाये को

बस
देख कर ही
कितना नशा होता है

और
कितना मजा आता है। 

चित्र साभार: https://www.rediff.com/getahead/slide-show/
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गुरुवार, 10 सितंबर 2015

छोड़ भी दे देख कर लिखना सब कुछ और कुछ लिख कर देख बिना देखे भी कुछ तो जरूर लिखा जायेगा


रात को सोया कर 
कुछ सपने वपने हसीन देखा कर 
सुबह सूर्य को जल चढ़ाने के बाद ही 
कुछ लिखने और लिखाने की कभी कभी सोचा कर 

देखेगा
सारा बबाल ही चला जायेगा 
दिन भर के कूड़े कबाड़ की कहानियाँ 
बीन कर जमा करने की आदत से भी बाज आ जायेगा 

छोड़ देगा सोचना 
बकरी कब गाय की जगह लेगी
कब मुर्गे को राम की जगह पर रख दिया जायेगा 

कब दिया जायेगा राम को फिर वनवास
कब उसे लौट कर आने के लिये मजबूर कर दिया जायेगा

ऐसा देखना भी क्या
ऐसे देखे पर कुछ लिखना भी क्या 

राजा के
अपने गिनती के बर्तनों के साथ
अराजक हो जाने पर अराजकता का राज होकर भी 
ना दिखे किसी भी अंधे बहरे को 

इससे अच्छा मौसम लगता नहीं ‘उलूक’ 
तेरी जिंदगी में फिर कहीं आगे किसी साल में दुबारा आयेगा 

छोड़ भी दे देख कर लिखना सब कुछ 
और कुछ लिख कर देख बिना देखे भी 
कुछ तो जरूर लिखा जायेगा । 

चित्र साभार: altamashrafiq.blogspot.com

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

अभी ये दिख रहा है आगे करो इंतजार क्या और नजर आता है

हमाम
के चित्र 

बाहर
ही बाहर
तक दिखाना
तो समझ
में आता है

पता नहीं
कैमरे वाला
क्यों
किसी दिन
अंदर तक
पहुँच जाता है

कब कौन
सी बात को
कितना
काँट छाँट
कर दिखाता है

सामने बैठे
ईडियट
बाक्स के

ईडियट
‘उलूक’ को
कहाँ कुछ
समझ में
आता है

बहुत बार
बहुत से
झाडुओं
की कहानी

झाडू‌
लगाने वालों
के मुँह से
सुन चुका
होना ही
काफी
नहीं होता है

गजब की
बात होती है
जब झाड़ू
लगाने वाला
झाड़ू लगाने
से पहले
खुद ही कूड़ा
फैलाता है

बहुत
अच्छी तरह
से आती है
कुछ बाते
कभी कभी
समझ में
बेवकूफों
को भी

पर क्या
किया जाये

कुछ
बेवकूफों के
कहने
कहाने पर

बेवकूफ
कह रहा है
क्यों सुनते हो

बात में
दम नजर
नहीं आता है
जैसा ही
कुछ कुछ
कह दिया
जाता है

और
कुछ लोग
कुछ भी नहीं
समझते हैं
या समझना
ही नहीं
चाहते हैं

भेड़ के
रेहड़ के
भेड़ हो
लेते हैं

पता
होता है
उनको
बहुत ही
अच्छी
तरह से

भीड़ की
भगदड़
में मरने
में भी
मजा
आता है

कोई माने
या ना माने
बहुत
बोलने से
कुछ
नहीं भी
होता है

फिर भी
बोलते बोलते

कलाकारी से
एक कलाकार

बहुत सफाई से
मुद्दे चोरों के भी

चुरा चुरा कर
चोरों को ही
बेच जाता है ।

चित्र साभार: imageenvision.com

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

बापू आजा झाड़ू लगाने जन्मदिन के दिन बहुत सा कूड़ा कूड़ा हो गया

बापू तेरा भी था
आज जन्मदिन
और मेरा भी
हर साल होता था
इस साल भी हो गया

पिछले सालों में
कभी भी नहीं
हो पाया वैसा

जैसा आज
कुछ कुछ ही नहीं
बहुत कुछ होना
जैसा हो गया

बापू तेरा हुआ
होगा कभी
या नहीं भी
हुआ होगा

पर मेरा दिल तो
आज क्या बताऊँ तुझे
झिझक रहा हूँ बताने में
झाड़ू झाड़ू होते होते
पूरा का पूरा बस
झाड़ूमय हो गया

झाडू‌ लगाती थी
कामवाली घर पर
रोज ही लगाती थी
मेरे घर का कूड़ा
बगल के घर की  

गली में सँभाल कर

भी जरूर आती थी

झाड़ू देने वाली
नगरपालिका की
दिहाड़ी मजदूर
अपने वेतन से बस
झाड़ू ही तो एक
खरीद पाती थी

झाड़ू क्राँति के
आ जाने से उसका
भी लगता है कुछ
जीने का मकसद
कम से कम आज
तो हो ही गया

झाड़ू उसके हाथ का
तेरे नाम पर आज
लगता है जैसे एक
स्वतंत्रता की जंग
करता हुआ यहाँ
तक पहुँच कर
शहीद हो गया

केजरीवाल नहीं
भुना पाया झाड़ू को
झाड़ू सोच सोचकर
भी कई सालों तक

गलती कहाँ हुई थी
उससे आज बहुत
बारीकी से देखने से
उसे भी लगता है
कुछ ना कुछ
महसूस हो गया

छाती पीट रहा होगा
आज नोचते हुऐ
अपने सिर के बालों को

झाड़ू नीचे करने के
बदले हाथ में लेकर
ऊपर को करके
क्यों खड़ा हो गया

चिंतन करना ये तो
अब वाकई बहुत ही
जरूरी जैसा हो गया

बहुत सी चीजें काम
की हैं कुछ ही के लिये
और बेकाम की
हैं सबके लिये

ये सोचना अब
सही बिल्कुल भी
नहीं रह गया

इस साल दायें
हाथ में झाड़ू ने
दिखाया है कमाल

अगले साल देख लेना
बापू तेरा लोटा भी
लोगों के शौचालय
से निकल कर

बेपेंदी लुढ़कना छोड़
बायें हाथ में आकर
आदमी के
झाड़ू की तरह
झाड़ू के साथ
कंधे से कंधा मिला
कर आदमी का
एक नेता हो गया

जो भी हुआ है
अच्छा हुआ है
बाहर की सफाई
धुलाई के लिये

‘उलूक’ तेरे लिये
अपने अंदर की
गंदगी को सफाई से
अपने अंदर ही
छुपा के रख लेने का
एक और अच्छा
जुगाड़ जरूर हो गया

बापू तू अपने चश्में
और लाठी का रखना
सावधानी से
अब खयाल
और मत कह बैठना
अगले ही साल
चुरा लिया किसी
बहुत बड़े ने
बड़ी होशियार से

और तू चोर चोर
चिल्लाने के लायक
भी नहीं रह गया ।

चित्र साभार: http://vedvyazz.blogspot.in/2011/01/of-service-and-servitude_17.html

सोमवार, 16 जून 2014

किसी दिन बिना दवा दर्द को छुपाना भी जरूरी हो जाता है

नदी के बहते
पानी की तरह
बातों को लेने वाले
देखते जरूर हैं
पर बहने देते हैं
बातों को
बातों के सहारे
बातों की नाँव हो
या बातें किसी
तैरते हुऐ पत्ते
पर सवार हों
बातें आती हैं
और सामने से
गुजर जाती है
और वहीं पास में
खड़ा कोई उन
बातों में से बस
एक बात को
लेकर बवंडर
बना ले जाता है
कब होता है
कुछ होते होते
धुआँ धुआँ सा
धुआँ हो जाताहै
बस एक उसे
ही नजर आता है
बैचेनी एक होती है
पर चैन खोना
सबको नहीं आता है
उसी पर मौज
शुरु हो जाती है
किसी की और
कहीं पर किसी का
खून सूखना
शुरु हो जाता है
अब इसी को तो
दुनियाँ कहा जाता है
उँगलियाँ जब
मुड़कर जुड़ती हैं
मुट्ठी की मजबूती
का नमूना सामने
आ जाता है
पर सीधाई को
शहीद करने के बाद
ही इसे पाया जाता है
कौन इस बात
पर कभी जाता है
हर किसी के लिये
उसकी अपनी
प्रायिकताऐं
मजबूरी होती है
उसी के सहारे
वो अपना आशियाँना
बनाना चाहता है
कौन खम्बा बना
कौन फर्श
किस ने छत पे
निसार दिया खूँन
इस तरह से
कहाँ देखा जाता है
काम होना ही
बहुत जरूरी होता है
काम कभी कहीं
नहीं रुकता है
उसकी भी मजबूरी
कह लीजिये उसे
पूरा होना कम से
कम आता है
‘उलूक’ तुझे भी
कुछ ना कुछ
कूड़ा रोज लाकर
बिखेरना होता है यहाँ
बहुत जमा हो
जायेगा किसी दिन
फिकर कौन करता है
वहाँ जहाँ बुहारने वाला
कोई नहीं पाया जाता है ।

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

कूड़ा हर जगह होता है उस पर हर कोई नहीं कहता है

एक दल में
एक होता है
एक दल में
एक होता है

क्यों दुखी होता है
कुछ नहीं होता है

किसी जमाने में
ये या वो होता था
अब सब कुछ
बस एक होता है

दलगत से बहुत
ही दूर होता है
दलदल जरूर होता है

कुछ इधर
उसका भी होता है
कुछ उधर
इसका भी होता है
डूबना
खुद नहीं होता है
डुबोने को
तैयार होता है

मिलता है
सभी को कुछ कुछ
आधा
इसके लिये होता है 
आधा
उसके लिये होता है

इसकी
गोष्ठी होती है
कमरा खुला होता है
उसकी
सभा होती है
बड़ा मैदान होता है

इसकी
शिकायत
उससे होती है
उसकी
शिकायत
इससे होती है

इसकी
सभायें होती हैं
उसकी
कथायें होती है

इसकी
नाराजगी होती है
इसे मिठाई देता है
गुस्सा
उसको आता है
उसे नमकीन देता है

बिल्लियों
की रोटियाँ होती है
बंदर
का आयोग होता है

कोई
कुछ नहीं करता है
अखबार
को 
लिखना ही होता है

उलूक
तेरे बरगद
के पेड़ में ही
लेकिन ये
सब नहीं होता है

हर जगह होता है
हर कोई नहीं कहता है

क्यों
परेशान होता है
फैसला
दल दल में
अब नहीं होता है

समर्थन
निर्दलीय
का जरूर होता है
शातिर
होने का ही ये
सबूत होता है

इसका
भी होता है
और
उसका
भी होता है
ये भी
उसके होते है
और
वो भी
उसके होते हैं

तू
कहीं नहीं होने की
सोच सोच कर रोता है

दल में
होने से
कहीं अच्छा
अब तो
निर्दलीय होता है

लिखने
का बस यही
एक फायदा होता है

कहना
ना कहना
कह देना होता है

किसी
का रोकना
टोकना ही तो बस
यहाँ पर नहीं होता है ।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

विनती

खाली घूमने
आते हैं
ना आयें
कहीं और
चले जायें
टिप्पणी का
बाजार ना
ही बनायें
लिखा हुआ
पढ़े पूरा
समझ में
नहीं आये
तो लिखें
नहीं समझ पाये
हिम्मत करें
कहें कूड़ा है
जो लिखा है 

खुद कूड़ा
ना फैलायें
ना ही कोई
फैलानें पाये
इतना साहस
पैदा कर
सकते हैं
तो यहाँ आयें
जरूर आयें।

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

कुछ नहीं होगा अगर एक दिन उधर का इधर नहीं कह पायेगा

बीच बीच में कभी कभी
आराम कर लिया कर
कुछ थोड़ी देर के लिये
आँख मुँह नाक कान
बंद कर लिया कर
बहुत बेचैनी अगर हो
प्रकृति का थोड़ा सा
ध्यान कर लिया कर
सोच लिया कर
सूरज चाँद और तारे
आसपास के जानवर
बच्चों के हाथ से छूट कर
आसमान की ओर उड़ते
भागते रंगबिरंगे गुब्बारे
सोच जरा सब कुछ
आदमी की बनाई घड़ी के
हिसाब से ही होता
चला जाता है
सोच कर ही अच्छा
लगता है ना
कहीं भी बाल भर का
अंतर नहीं देखा जाता है
तूफान भी आता है
अपने पेट के हिसाब से
खा पी कर चला जाता है
घर का कुत्ता तक अपने
निर्धारित समय पर ही
खाना मांगने के लिये
रसोई के आगे आकर
खड़ा हो जाता है
चिड़िया कौऐ बंदर सब
जैसे नियम से उसी
तरह पेश आते हैं
जैसा एक दिन पहले
कलाबाजियां कर
के चले जाते हैं
इस सब पर ध्यान
अगर लगा ले जायेगा
एक ही दिन सही
बेकार की बातों को
लिखने से बच जायेगा
बाकी तो होना वही है
तेरे आस पास हमेशा ही
कोई अपना कूड़ा आदतन
फेंक कर फिर चला जायेगा
लिख लेना बैचेनी को
अपनी उसी तरह
किसी रद्दी कागज पर
सफेद जूते और स्त्री किये
साफ सुथरे कपड़े पहन कर
सड़क पर चलने वाला
कोई सफेदपोश
कभी वैसे भी
उस कूड़े को पढ़ने
यहां नहीं आयेगा !

रविवार, 12 मई 2013

अच्छी सोच छुट्टी के दिन की सोच

अखबार आज
नहीं पढ़ पाया


हौकर शायद
पड़ौसी को
दे आया


टी वी भी
नहीं चल पाया
बिजली का
तार बंदर ने
तोड़ गिराया


सबसे अच्छा
ये हुआ कि
मै काम पर
नहीं जा पाया


आज
रविवार है
बड़ी देर में
जाकर
याद आया


तभी कहूँ
आज सुबह
से अच्छी बातें
क्यों सोची
जा रही हैं


थोड़ा सा
रूमानी
हो जाना
चाहिये
दिल की
धड़कन
बता रही है


बहुत कुछ
अच्छा सा
लिखते हैं
कुछ लोग


कैसे
लिखते होंगे
बात अब
समझ में
आ रही है


लेखन
इसीलिये
शायद
कूड़ा कूड़ा
हुआ
जा रहा है


अखबार हो
टी वी हो
या समाज हो
जो कुछ
दिखा रहा है


देखने
सुनने वाला
वैसा ही होता
जा रहा है


कुछ
अच्छी सोच
से अगर अच्छा
कोई लिखना
चाह रहा है


अखबार
पढ़ना छोड़
टी वी बेच कर
जंगल को क्यों
नहीं चले
जा रहा है ?

मंगलवार, 7 मई 2013

जरूरत नहीं है ये बस ऎसे ही है



कल मिला वो

मुस्कुराया 
फिर हाथ मिलाया

बोला

लिखते हो
बहुत लिखते हो
रोज लिखते हो

मैं भी पढ़ता हूँ  रोज पढ़ता हूँ

कोशिश करता हूँ बहुत करता हूँ
एक छोर पकड़ता हूँ दूसरा खो जाता है
दूसरे तक पहुँचने का मौका ही नहीं आता है

क्यों लिखते हो क्या लिखते हो
क्या कोई और भी इस बात को समझ ले जाता है
मेरी समझ में ये भी  कभी नहीं आ पाता है

शरम आती है बहुत आती है

उसकी
मासूमियत पर
मुझे भी थोड़ी सी हंसी आयी

मैने भी उसे ये बात यूँ बतायी

भाई 
ज्यादा दिमाग मैं लिखने में नहीं लगाता हूँ
बस वो ही बात बताता हूँ
जो घर में सड़क में शहर में और सबसे ज्यादा 
अपने बहुत  बडे़ से स्कूल में देख सुन कर आता हूँ

ज्यादातर बातों में
गांधी जी का एक बंदर बन जाता हूँ
कभी आँख कभी कान कभी मुँह पर ताला लगाता हूँ

जब बहुत चिढ़ लग जाती है
तो कूड़े के डब्बे को यहाँ लाकर उल्टा कर ले जाता हूँ
कितनो के समझ में आयी ये बात
उस पर ज्यादा दिमाग नहीं लगाता हूँ

लोग वैसे ही चटे चटाये लगते हैं आजकल व्यवस्था की बात करने पर

मैं अपनी धुन में
जिस बात को कोई वहाँ नहीं सुनता यहाँ आकर पकाता हूँ

यहाँ
बहुत बडे़ बडे़ शेर हैं मैदान में
जो दहाड़ते हैं मेरी तरह आ कर रोज

मैं गधा भी 
कुछ ऎसे ही तीसमारखाँओं के बीच में रेंकते रेंकते
थोड़ी कुछ आवाज कर ही ले जाता हूँ

परेशान मत हुआ करिये जनाब मत पढ़ा करिये
इस कूडे़ के ढेर में
मैं भी आकर
रोज कुछ कूड़ा अपने घर का भी फेंक जाता हूँ ।

चित्र सभार: http://clipart-library.com/

सोमवार, 28 मई 2012

कूड़ा प्रबन्धन


रोज
घर के 
कूड़े की 
एक थैली
बनाता है

मुंह अंधेरे 
एक चेहरा 
खिड़की से
बाहर
निकल 
कर आता है

ताकत लगा 
कर
थैली को
दूसरे घर
के
आंगन में
पहुँचाता है

चेहरा 
खिड़की बिना 
आवाज किये
बंद करता 
हुआ

लौट
कर अपने 
बिस्तरे पर 
जा कर 
फिर से 
लुढ़क 
जाता है

इस आँगन 
से उस 
आँगन तक
होता हुवा 
थैला

थैलों 
से टकराते
छटकते 

अंतत: 
कूडे़दान
में
समा तो 
नहीं पाता है

पर कुछ 
मुरझाये 
कुछ
थके हारे 
सा होकर 

सड़क तक 
पहुँच कर
फट फटा 
जाता है 

कूड़ा अंदर 
का निकल 
कर बाहर 
खुले में फैल 
जाता है

बाहरी कूडे़ 
का
सलीकेदार
प्रबंधन

मेरे 
शहर के हर 
पढे़ लिखे
को आता है

जैविक अजैविक
कूडे़ की थैलियाँ

आते जाते
कहीं ना कहीं
टकरा
ही जाती हैं 

घर वालों
की
औकात

कूड़े 
में फेंके गये 
सामान से 
मेल भी 
खाती हैंं

थोड़ी सी 
बात 'उलूक'
के
पाव भर 
के
हवा भरे 
दिमाग में 

बस यहाँ 
पर नहीं 
घुस पाती है 

दिमाग
में 
भरे हुवे 
कूडे़ का 
निस्तारण 

वही चेहरा 

अपने 
अंदर से 
कौन से 
थैले में 
और
कहाँ 
जा कर 
कराता है

टी वी
में 
होता है कुछ 
रेडियो
में 
होता है कुछ 

कुछ
अखबार 
के
समाचार में 
चिपका हुआ 
नजर आता है

चेहरा
अपने 
अंदर के कूड़े 
के साथ 
ईमानदारी 
दिखाता है 

कोई थैला 
कहीं भी 
फटा हुआ 
किसी गली 
किसी सड़क 
में नजर 
दूर दूर 
तक भी 
नहीं आता है ।

चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 11 मई 2012

धैर्य मित्र धैर्य

आज प्रात:
उठने से ही

विचार
आ रहा था

श्रीमती जी पर
कुछ लिखने का
दिल चाह रहा था

सोच बैठा
पूरे दिन
इधर उधर
कहीं भी
नहीं देखूंगा

कुछ
अच्छा सा
उन पर लिख कर
शाम को दे दूंगा

घर से
विद्यालय तक
अच्छी बातें
सोचता रहा

कूड़ा
दिखा भी तो
उसमें बस
फूल ही
ढूंढता रहा

पर
कौए की
किस्मत मेंं
कहां
मोर का
पंख आता है

वैसे
लगा
भी ले
अगर तो
वह मोर नहीं
हो जाता है

कितना भी
सीधा देखने
की कोशिश करे

भैंगे को
किनारे में
हो रहा सब
नजर आ
ही जाता है

उधर
मेरा एक साथी
रोता हुआ सा
कहीं से
आ रहा था

एक
महिला साथी से
बुरी तरह
डांठ
उसने
अभी अभी
खायी है

सबको
आ कर के
बता रहा था

ऎसा
पता चला
कि
महिला को
महिला पर ही
गुस्सा आ रहा था

मेरे को तो
भाई जी पर
बहुत तरस
आ रहा था

इसी
उधेड़बुन में
घर वापस आया
तो श्रीमती जी 
मैने अपनी भुलायी

कलम
निकाली मगर
श्रीमती तो दूर दूर
तक कहीं भी
नजर नहीं आयी

दिमाग ने
बस एक
निरीह मित्र को
किसी से मार
खाते हुवे जैसी
छवि एक दिखाई

योजना
आज की
मैंने खटाई
में डुबायी

कोई बात नहीं
कुम्भ जो क्या है
फिर कभी मना लूंगा

अपनी ही
हैंं श्रीमती
उसपर
कविता एक
किसी और दिन
चलो बना लूंगा।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

कूड़ा ही लिख


किसी ने 
कहा है 
क्या 
तुझसे 

कुछ लिख

इस पर 
भी लिख
उस  पर 
भी लिख

कुछ होता 
है अगर
तो होने 
पर लिख

नहीं होता 
है
कुछ तो 
नहीं होने 
पर लिख

सब लिख 
रहे हैं
तू भी 
कुछ लिख

किताब 
में लिख
कापी 
में लिख

नहीं मिलता 
है लिखने 
को तो

बाथरूम 
की ही
दीवारों 
पर ही लिख

पर 
सुन तो 
कुछ
अच्छा सा 
तो लिख

रोमाँस 
पर लिख
भगवान 
पर लिख

फूलों 
पर लिख
आसमान 
पर लिख

औल्ड कब 
तक लिखेगा
कुछ बोल्ड 
ही लिख

लिखना 
छोड़ने को
कहने की 
हिम्मत नहीं

पर इतना 
तो बता

किसने 
कहा 
तुझसे 
'उलूक'

तू कूड़े 
पर लिख

और 
कूड़ा 
कूड़ा 
ही लिख।

चित्र साभार: imageenvision.com