उलूक टाइम्स: अल्मोड़ा
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बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

'मोतिया’ तू जा चुका था देर से पता चला था कल नहीं लिख सका था आज लिख रहा हूँ क्योंकि तुझ पर लिखना तो बहुत ही जरूरी है


ख्वाब देखने में कोई हर्ज भी नहीं है 
ना ही ख्वाब अपना किसी को बताने में 
कोई लिहाज है 

बहुत पुराना है 

आज तेरे जाने के बाद चूँकि 
आ रहा कुछ याद है 

मैंने जब जब तुझे देखा था 
मुझे कुछ हमेशा ही लगा था 
कि जैसे कोई ख्वाब देखना चाहिये 
और जो बहुत ही जरूरी भी होना चाहिये 

जरूरी जैसे तू और तेरा आना शहर को 
और शहर से वापस अपने गाँव को रोज का रोज
चला जाना बिना नागा 

हमेशा महसूस होता था जैसे 
तुझे यहाँ नहीं कहीं और होना चाहिये था 

जैसे कई लोग पहुँच जाते है 
कई ऐसी जगहों पर 
जहाँ उन्हें कतई नहीं होना चाहिये 

तू भी तो इंटर पास था 
मंत्री वो भी उच्च शिक्षा का 
सोचने में क्या जाता है 

और सच में 

मैंने सच में कई बार 
जब तू सड़क पर बैठा 
अखबार पढ़ रहा होता था 
बहुत गहराई से इस पर सोचा था 

जो लोग तुझे जानते थे या जानने का दावा करते थे
उनकी बात नहीं कर रहा हूँ 

मैं अपनी बात कर रहा हूँ 

तू भी तो मेरा जैसा ही था 
जैसा मैं रोज कुछ नहीं करता हूँ 

तेरी दिनचर्या मेरी जैसी ही तो होती थी हमेशा से 

रोज तेरा कहीं ना कहीं शहर की किसी गली में मिलना 

तेरी हंसी तेरा चलने का अंदाज 
सब में कुछ ना कुछ अनोखा 
तू बुद्धिजीवी था 
ये मुझे सौ आना पता था 

अफसोस 
मैं सोच सोच कर भी नहीं हो पाया कभी भी 
और अभी भी मैं वहीं रह गया 

तू उठा उठा 
और उठते उठते 
कहाँ से कहाँ पहुँच गया 

तेरे चले जाने की खबर देर से मिली 

जनाजे में शामिल नहीं हुआ 
अच्छा जैसा नहीं लगा 

कोई नहीं 
तू जैसा था सालों पहले वैसा ही रहा 
और वैसा ही उसी तरह से 
इस शहर से चला गया 
हमेशा के लिये 

तेरी कमी खलेगी 
जब रोज कहीं भी किसी गली में 
तू नहीं मिलेगा 

पर याद रहेगा 

कुछ लोग सच में बहुत दिनों तक याद रह जाते हैं 

हम उनकी श्रद्धाँजलि सभा नहीं भी कराते हैं 
शहर के संभ्रांत लोगों की भीड़ में 
तब भी । 

शनिवार, 26 मई 2012

वकील साहब काश होते आज

मेरे शहर अल्मोड़ा की लाला बाजार
ऎतिहासिक शहर बुद्धिजीवियों की बेतहाशा भरमार
बाजार में लगा ब्लैक बोर्ड पुराना
नोटिस बोर्ड की तरह जाता है अभी तक भी जाना

छोटा शहर था
हर कोई शाम को बाजार घूमने जरूर आया करता था
लोहे के शेर से मिलन चौक तक
कुछ चक्कर जरूर लगाया करता था
शहर का आदमी
कहीं ना कहीं दिख ही जाता था
शहर की गतिविधियाँ
यहीं आकर पता कर ले जाता था

मेरे शहर में मौजूद थे एक वकील साहब
वकालत करने वो कहीं भी नहीं जाते थे
हैट टाई लौंग कोट रोज पहन कर
बाजार में चक्कर लगाते चले जाते थे
बोलने में तूफान मेल भी साथ साथ दौड़ाते थे
लकडी़ की छड़ी भी अपने हाथ में लेके आते थे

कमप्यूटर उस समय नहीं था
कुछ ना कुछ बिना नागा
ब्लैक बोर्ड पर चौक से लिख ही जाते थे

उस समय हमारी समझ में उनका लिखा
कुछ भी नहीं आता था
पर लिखते गजब का थे
उस समय के बुजुर्ग लोग हमें बताते थे
बच्चे उनको पागल कह कर चिढ़ाते थे

आज वकील साहब ना जाने क्यों याद आ रहे हैं
भविष्य की कुछ टिप्पणियां दिमाग में आज ला रहे हैं
मास्टर साहब एक कमप्यूटर पर रोज आया करते थे
कुछ ना कुछ स्टेटस पर लिख ही जाया करते थे।

रविवार, 29 अप्रैल 2012

स्वामी विवेकानन्द और अल्मोड़ा 1863 - 2013


एक पूरी और एक आधी सदी
पुन : एक बार फिर से खुली
एक बंद खिड़की

आहट कुछ हुवी
नरेन्द्र के यहाँ कभी आने की

भारत के झंडे
अमेरिका में गाड़े थे
जिस युवा ने कभी

कोशिश करी किसी ने तो
उस स्मृति को हिलाने की

मेरे शहर अल्मोड़ा ने
देखा फिर से एक बार
वो अवतार

स्वामी विवेकानन्द
अवतरित होकर आया
बच्चों के रूप में इस बार

एक दिन के लिये ही कहीं
बच्चे युवा बुजुर्ग जुड़े यहीं

किया याद अश्रुपूर्ण नेत्रों से
उस अवतार को

जिसपर लुटाया था
मेरे शहर ने अपने प्यार को

कम उम्र में माना कि
वो हमेंं छोड़ कर चला गया

"उठो जागो रुको मत करो प्राप्त अपना लक्ष्य "
का संदेश पूरे जग को दे गया।