उलूक टाइम्स: साहब
साहब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
साहब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 4 जनवरी 2014

ठीक नहीं किया जैसा किया जाता रहा था वैसा ही क्यों नहीं किया

एक काम के
बहुत ही
सुचारू रूप से
समय से पहले ही
पूरा हो जाने पर
साहब का पारा
सातवें आसमान
पर चला गया
तहकीकात करवाने
के लिये एक
खासम खास को
समझा दिया गया
पूछने को कहा गया
इतनी जल्दी
काम को बिना
सोचे समझे
किससे पूछ कर
पूरा करा लिया गया
रुपिया पैसा जबकि
जरूरत से ज्यादा
ही था दिया गया
बताना ही पढ़ेगा
आधे से ज्यादा
कैसे बचा कर
वापिस लौटा
दिया गया
पूछताछ करने पर
खासम खास ने
कुछ कुछ ऐसा
पता लगा लिया
रोज उसी काम को
सफाई से निपटा
ले जाने वाला
इस बार पत्नी के
बीमार हो जाने
के कारण मजबूरी
में छुट्टी पर
था चला गया
काम करवाना चूंकि
एक मजबूरी थी
एक नये आदमी को
काम पर इसलिये
लगा दिया गया
बेवकूफ था
दुनियादारी से
बेखबर था
ईमानदार था
कैसे निपटाना है
ऐसे काम को
किसी और से
राय लेने तक
पता नहीं
क्यों नहीं गया
हो ही जाना था
काम को इस बार
जैसे हुआ करता था
हमेशा ही वैसा
कुछ भी नहीं हुआ
फल लगा पेड़ पर
पका हुआ था
सब से देखा भी गया
बैचेनी बड़ी फैली
पूरे निकाय में
कहा गया झुंझलाहट में
ये सब जो भी हुआ
बहुत अच्छा नहीं हुआ
फर्जीवाड़ा नहीं कर
सकता हो
जो इतना भी
फर्जियों के बीच में
सालों साल रहकर
ऐसे दीवाने को
किसने और कैसे
काम करने का
ठेका दे दिया गया
तहकीकात करने वाले
ने जब सारी बातों
का खुलासा किया
तमीज सीखने की
बस सलाह देकर
ऐक नेक आदमी को
काम से हमेशा
के लिये
हटा दिया गया
साथ में बता
दिया गया
बच गया
इतना ही किया गया
खुश्किस्मत था
आरोप कोई भी
लिख कर किसी
के द्वारा नहीं
दिया गया ।

शनिवार, 26 मई 2012

वकील साहब काश होते आज

मेरे शहर अल्मोड़ा की लाला बाजार
ऎतिहासिक शहर बुद्धिजीवियों की बेतहाशा भरमार
बाजार में लगा ब्लैक बोर्ड पुराना
नोटिस बोर्ड की तरह जाता है अभी तक भी जाना

छोटा शहर था
हर कोई शाम को बाजार घूमने जरूर आया करता था
लोहे के शेर से मिलन चौक तक
कुछ चक्कर जरूर लगाया करता था
शहर का आदमी
कहीं ना कहीं दिख ही जाता था
शहर की गतिविधियाँ
यहीं आकर पता कर ले जाता था

मेरे शहर में मौजूद थे एक वकील साहब
वकालत करने वो कहीं भी नहीं जाते थे
हैट टाई लौंग कोट रोज पहन कर
बाजार में चक्कर लगाते चले जाते थे
बोलने में तूफान मेल भी साथ साथ दौड़ाते थे
लकडी़ की छड़ी भी अपने हाथ में लेके आते थे

कमप्यूटर उस समय नहीं था
कुछ ना कुछ बिना नागा
ब्लैक बोर्ड पर चौक से लिख ही जाते थे

उस समय हमारी समझ में उनका लिखा
कुछ भी नहीं आता था
पर लिखते गजब का थे
उस समय के बुजुर्ग लोग हमें बताते थे
बच्चे उनको पागल कह कर चिढ़ाते थे

आज वकील साहब ना जाने क्यों याद आ रहे हैं
भविष्य की कुछ टिप्पणियां दिमाग में आज ला रहे हैं
मास्टर साहब एक कमप्यूटर पर रोज आया करते थे
कुछ ना कुछ स्टेटस पर लिख ही जाया करते थे।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

अ धन ब का वर्ग

परीक्षाऎं हो गयी हैं शुरु
मौका मिलता है
साल में एक बार
मुलाकातें होती हैं
बहुत सी बातें होती हैं
बहुत से सद्स्यों की
टीम में एक हैं
मेरे आदरणीय गुरू
उनको बहुत कुछ
वाकई में आता है
प्रोफेसर साहब से रहा
नहीं जाता है
पढाने लिखाने की
आदत पुरानी है
किसी से कहीं भी
उन के द्वारा कुछ भी
पूछ ही लिया जाता है
कल की बात आज
वो खाली समय में
बता रहे थे
क्या होता जा रहा है
आज के बच्चों को
समझा रहे थे
सर में वैसे तो उनके
बाल बहुत कम दिखाई देते हैं
पर नाई की दुकान का
वर्णन वो अपनी कथाओं
में जरुर ले ही लेते हैं
बोले कल मैं जब एक
नाई की दुकान में गया
कक्षा नौ में पढ़ने वाली
एक बच्ची ने प्रवेश किया
नाई को बौय कट बाल
काटने का आदेश दिया
बच्ची बाल कटवा रही थी
मेरे दिमाग की नसें
प्रश्नो को घुमा रही थी
आदत से मजबूर मैं
अपने को रोक नहीं पाया
बच्ची के सामने एक प्रश्न
पूछने के लिये लाया
बेटी क्या तुम अ धन ब
का वर्ग कितना होगा
मुझे बता सकती हो
बच्ची मुस्कुराई
उसने नाई की कैंची
चेहरे के ऊपर से हटवाई
बोलते हुवे चेहरा अपना घुमाई
अरे अंकल आप तो
बड़ी कक्षाओं को पढ़ाते हो
ये फालतू के प्रश्न कैसे
अब सोच पाते हो
कैल्कुलेटर का जमाना है
बटन सिर्फ एक दबाना है
किस को पड़ी है अ या ब की
हमारी पीढी़ को तो राकेट
कल परसों में हो जाना है
तो फालतू में अ धन ब
फिर उसपर उसका वर्ग
करने काहे जाना है।

रविवार, 25 मार्च 2012

सारे साहब

अपने रोज के नये साहब
को नया सलाम बोलता है
आके फिर से यहाँ
वो किताब खोलता है
सुबह खोलता है
शाम खोलता है
किताब के पन्ने
एक गुलाम खोलता है
देख कर नये पन्ने
जब दिमाग डोलता है
कई बार खोलता है
अपने आप बोलता है
खेल नहीँ खेलता है
खिलाड़ी को झेलता है
फुटबाल बना के कोई
जब हवा पेलता है
हर कोई अपने को
साहब बोलता है
गुलाम कभी नहीं
जुबान खोलता है
अपने रोज के नये साहब
को नया सलाम बोलता है
आके फिर से यहाँ
वो किताब खोलता है।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

रिटायर्ड चपरासी

गुरु जी
झूठ नहीं बोलूंगा
आपसे तो
कम से कम नहीं

बस एक
पव्वा ही लगाया है

बिना लगाये जाओ तो
काम नहीं हो पाता है
साहब कुछ
समझता ही नहीं
डाँठता चला जाता है

खुश्बू लगा
के जाओ तो
कुर्सी में बैठाता है

तुरत फुरत
पी ए को
बुलाता है
थोड़ा नाक
सिकौड़ कर
फटाफट
दस्तखत कर
कागज लौटाता है

भैया अगर
खुश्बू से
काम चल
ही जाता है

तो फिर छिड़क
कर जाया करो
पी के अपने स्वास्थ
को ना गिराया करो

दिन में ही
शुरू हो जाओगे
तो कितने
दिन जी पाओगे

गुरू जी आप तो
सब जानते हैं
बड़े बड़े आपका
कहना मानते हैं

पर ये लोग बहुत
खिलाड़ी होते हैं

शरीफ आदमी
इनके लिये
अनाड़ी होते हैं

एक दिन
मैंंने
एसा ही
किया था

कोट पर
थोड़ा गिरा
कर दारू
साहब के पास
चला गया था

साहब ने
उस दिन
कोट मुझसे
तुरंत उतरवाया था

दिन दोपहरी
धूप में मुझे
दिन भर
खड़ा करवाया था

तब से जब भी
पेंशन लेने जाता हूँ

अपने अंदर ही भर
कर ले जाता हूँ

मेरे अंदर की खुश्बू
कैसे सुखा पायेगा

खड़ा रहूँगा जब तक
सूंघता चला जायेगा

उसे भी पीने की
आदत है वो कैसे
खाली खुश्बू
सूंघ पायेगा

तुरंत
मेरा काम
वो करवायेगा
मेरा काम
भी हो जायेगा
उसको भी चैन
आ जायेगा।