ना हिंदी आती है
ना उर्दू ही आती है
बात है
कि फिर भी
पेट से चढ़ कर
गले तक पहुँच जाती है
बाहर फेंकने का तजुर्बा
सब को नहीं होता है
निगल लेते हैं ज्यादातर
सभी मान कर
कि
पीने से
कौन सा जान चली जाती है
बेहयाई
कितनी करे कोई
शरीफों के बीच में रहकर
चिकनी मिट्टी ही जब
पानी पीना शुरु हो जाती है
घड़े भी हैं
सुराहियाँ भी दिखती हैं
सजी हुई दुकान दर दुकान
पीने वाले की नजर
काँच के गिलास पर ही जाती है
ये कोई नया तजुर्बा नहीं है
इतिहास में हैं
कई पन्नों की गवाहियाँ
लिखी दिखाई दे जाती हैं
बेईमानों को जरूरी होता है
एक ईमानदार सिपाही रखना
गोलियों के खर्च के हिसाब की बही
सबके पास पाई जाती है
मौतें किसको गिननी होती है
अखबार की खबर
कुछ ले दे कर
सब का सब हिसाब लगा कर
सुबह ले ही आती है
‘उलूक’ अपने महीने का
खयाल रखता है
गालियों से शुरु करी कमाई
गालियों पे ही खर्च कर दी जाती है
समझ में आना
और समझ में नहीं आने में
किस लिये लगना हुआ
रोटियाँ सिकती रहती हैं
आग़ इधर भी और उधर भी
लगाई ही जाती है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/
ना उर्दू ही आती है
बात है
कि फिर भी
पेट से चढ़ कर
गले तक पहुँच जाती है
बाहर फेंकने का तजुर्बा
सब को नहीं होता है
निगल लेते हैं ज्यादातर
सभी मान कर
कि
पीने से
कौन सा जान चली जाती है
बेहयाई
कितनी करे कोई
शरीफों के बीच में रहकर
चिकनी मिट्टी ही जब
पानी पीना शुरु हो जाती है
घड़े भी हैं
सुराहियाँ भी दिखती हैं
सजी हुई दुकान दर दुकान
पीने वाले की नजर
काँच के गिलास पर ही जाती है
ये कोई नया तजुर्बा नहीं है
इतिहास में हैं
कई पन्नों की गवाहियाँ
लिखी दिखाई दे जाती हैं
बेईमानों को जरूरी होता है
एक ईमानदार सिपाही रखना
गोलियों के खर्च के हिसाब की बही
सबके पास पाई जाती है
मौतें किसको गिननी होती है
अखबार की खबर
कुछ ले दे कर
सब का सब हिसाब लगा कर
सुबह ले ही आती है
‘उलूक’ अपने महीने का
खयाल रखता है
गालियों से शुरु करी कमाई
गालियों पे ही खर्च कर दी जाती है
समझ में आना
और समझ में नहीं आने में
किस लिये लगना हुआ
रोटियाँ सिकती रहती हैं
आग़ इधर भी और उधर भी
लगाई ही जाती है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/