उलूक टाइम्स: बंटवारा
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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।