उलूक टाइम्स: दिशा
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बुधवार, 12 अगस्त 2015

‘उलूक’ की आदत है लिखे जा रहा है क्या फर्क पड़ता है कौन पढ़ने आ रहा है

बहुत सुकून सा
महसूस हो रहा है
वो सब देख कर जो
सामने से हो रहा है
जो हो रहा है वही
सब कुछ दिखाया
भी जा रहा है
उसी हो रहे के बारे में
बताया भी जा रहा है
गरम चर्चाऐं हैं बहस हैं
हो रहे में से ही कुछ को
बुलाया भी जा रहा है
हो क्या रहा है
ये अपना बता रहा है
उसने भी बताना है
वो भी बता रहा है
समझाने बुझाने में
कोई नहीं आ रहा है
अच्छा है हो रहा है
हो रहा है और हुऐ
भी जा रहा है
हो रहे को कोई रोक
भी नहीं पा रहा है
इस सब में सबको
ही मजा आ रहा है
बताने वाले के पास
काम हो जा रहा है
दिखाने वाला भी
सब दिखा रहा है
देखने वाले देख रहे हैं
जो जो जब से
हुआ जा रहा है
इस होने में वैसे कोई
नई बात भी नहीं
हुई जा रही है
पहले भी हुआ करती थी
पता तक नहीं चलता था
कोई परदा लगा रहा है
परदे में सालों साल
चलता रहने वाला अब
परदे फाड़ कर परदों से
बाहर आ रहा है
अच्छा संकेत है
देश अच्छी दिशा
में जा रहा है
‘उलूक’ की आदत है
लिखे जा रहा है
क्या फर्क पड़ता है
कौन पढ़ने आ रहा है ।

चित्र साभार: www.ndtv.com

बुधवार, 14 अगस्त 2013

तू बंदूक चलाने को कंधा दे देगा मेडल पर मेरे को मिलेगा

आसान होता है 
बंदूक चलाना घोडे़ को दबाना 

किसी के मरे बिना 
चारों खाने चित्त कर ले जाना 

ना खून का दिखना 
ना पुलिस का आना ना कोई मुकदमा 
ना किसी को कहीं जेल की सजा हो जाना 

कौन सी ऎसी बंदूक होगी 
दिखती भी नहीं होगी 
गोली भी नहीं होगी 
आवाज भी नहीं होगी 

और तो और 
किसी सामने वाले की 
मौत भी नहीं होगी 

सांप भी नहीं होगा लाठी भी नहीं होगी 
फौज भी नहीं होगी सरहद भी नहीं होगी 
बस होगी वाह वाह जो हर तरफ होगी 

बेवकूफ हैं जो सेना में चले जाते हैं 
सरहद में जाकर 
गोली खा खा कर मर जाते हैं 

पता नहीं बंदूक चलाने का 
सबसे आसान तरीका क्यों नहीं अपनाते हैं 
जिसमें 
बंदूक खरीदने कहीं भी नहीं जाते हैं 
बंदूक 
बस एक अपनी सोच में ले आते हैं 

जरूरत होती है एक ऎसे कंधे की 
जो आसानी से ही उपलब्ध हो जाते हैं 

सारे शूरवीर ऎसे ही कंधों में रखकर 
घोड़ों को दबाते हैं गोली चलाते हैं 
सामने वाले कोई नहीं कहीं मर पाते हैं 

कंधे देने वाले ही इसमें शहीद हो जाते हैं 
बंदूक चलाने वाले मेडल पा जाते हैं 

बेवकूफ कंधे देने वाले 
समाज में हर कोने में पाये जाते हैं 
लेकिन उस पर बंदूक रख कर 
गोली चलाने वाले बिरले ही हो पाते हैं 

समाज को दिशा देने वालों में 
आज ये ही लोग 
सबसे आगे जाते हैं 

जो अपने कंधे ही नहीं बचा पाते हैं 
ऎसे बेवकूफों से 
आप और क्या उम्मीद लगाते हैं ?

शुक्रवार, 14 जून 2013

दिशा है अगर तो है दिशाहीन

दिशा लेकर
चलता है
बस वो

एक ही
अकेला होता है

दिशाहीनो का
तो एक
मसीहा होता है

मेरे घर में
होता है और
ऎसा होता है

कहने को
हर कोई
बहुत कुछ
कहता है


जो करना ही
नहीं होता है
वही तो
वो कहता है

मेरी बात पर
तू कभी
कुछ नहीं
कहता है

तेरे घर में क्या
ये नहीं होता है

मेरे घर के
मुखिया को
सब पता होता है

जब भी
कुछ होता है
तो वो कहीं भी
नहीं होता है

देश में पल पल
जो हो रहा होता है

वही सब मेरे घर में
घट रहा होता है

कोई गांधी और
कोई गोडसे
की दुहाई दे
रहा होता है

कोई पटेल
के नाम का
लोहा ले
रहा होता है

जो जो कह
रहा होता है
वो कहीं नहीं
हो रहा होता है

मेरे घर में रोज
ऎसा ही हो
रहा होता है

तेरे घर में
बता भी दिया
कर कभी

क्या कुछ स्पेशल
हो रहा होता है

मैं रोज अपने घर
की बात करता हूँ

फिर भी तू
कुछ कहाँ कह
रहा होता है

मेरे देश में
कैसे मान लूं
कुछ अलग
हो रहा होता है

जब मेरे ही
घर में रोज
ऎसा ही हो
रहा होता है ।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।