एक
बुद्धिजीवी
का खोल
बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है
जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है
बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है
यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता
किस नाली में
समा जाता है
सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है
जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है
एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है
देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है
उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है
ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है
जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।
बुद्धिजीवी
का खोल
बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है
जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है
बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है
यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता
किस नाली में
समा जाता है
सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है
जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है
एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है
देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है
उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है
ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है
जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।
भूले अपनी जड़ों को, लूले झूले झूल |
जवाब देंहटाएंफूट डालते राज जो, अंग्रेजी के फूल |
अंग्रेजी के फूल, धूल में मिल जाते हैं |
बोले जो दिग्विजय, ठाकरे चिल्लाते हैं |
अरे बिहारी राज, लाज ना आती तोको |
चाटुकार घर-बार, रोकता कैसे मोको ||
उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
हटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (08-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सबको सन्मति दे भगवान् !
जवाब देंहटाएंआग खुद को भी लील जाएगी ... यही समझ में आ जाए तो विनाश कम हो
जवाब देंहटाएंये बौद्धिक भकुवे(बधुआ )खुद को कोंग्रेसी चाणक्य मान बैठें हैं .इन दुर्मुखों को लगता है कोंग्रेस का भविष्य इनकी जेब में हैं लेकिन इन दुर्मुखों की जेब फटी हुई है .बढ़िया रचना है .वोट की खातिर एक बटवारा और करना चाहतें हैं वोटिस्तान में .
जवाब देंहटाएंशुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक
स्वार्थी सोच पराकाष्ठा यही हो सकती है....
जवाब देंहटाएं