उलूक टाइम्स: भारत
भारत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भारत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

गांंधी सुना है आज अफ्रीका से लौट के घर आ रहा है

घर वापसी
किस किस की
कहाँ कहाँ से और
कब कब होनी है
कोई भी हो
लौट ही तो रहा है
तेरी सूरत किसलिये
रोनी रोनी है
नया क्या कोई
कुछ करने जा रहा है
तेरे चेहरे पर पसीना
क्यों आ रहा है
गांंधी जी
ना मैंने देखे
ना तूने देखे
बस सुनी सुनाई
बात ही तो है
क्या कर गये
क्या कह गये
किस ने समझा
किस ने बूझा
चश्मा लाठी
चप्पल बचा के
रखा हुआ है और
हमारे पास ही तो है
कौन सा उनका भूत
उन सब का प्रयोग
फिर से करने
आ रहा है
कर भी लेगा तो
क्या कर लेगा
गांंधी जी भी
एक मुद्दा हो चुका है
झाड़ू की तरह
उसे भी प्रयोग
किया जा रहा है
बहुत कुछ छिपा है
इस पावन धरती पर
धरती पकड़ भी हैं
बहुत सारे
हर कोई एक नया
मुद्दा खोद के
ले आ रहा है
सूचना क्रांंति का
कमाल ही है ये भी
मुद्दे के सुलझने
से पहले दूसरा मुद्दा
पहले मुद्दे का
घोड़ा बना रहा है
घोड़े से नजर
हटा कर सवार
को देखने देखने तक
एक नया मुद्दा
तलवार का
सवार मुद्दे के हाथ में
थमाया जा रहा है
चिंता हो रही है तो
बस इस बात की
आज के दिन गांंधी के
लौटने की खबर का
मुद्दा गरमा रहा है
कहीं सच में ही
आ गये लौट
के गांंधी जी उस
पवित्र जमीन पर
जहाँ आज हर कोई
अपने आप को
गाँधी बता रहा है
क्या फर्क पड़ना है
उन गांंधियों को
जिनका धंधा आज
ऊँचाईयों पर छा रहा है
दूर आसमान से
देखने से वैसे भी
दिखता है जमीन पर
गांंधी हो या हाथी हो
कोई चींटी जैसा कुछ
इधर से उधर को
और उधर से इधर को
आ जा रहा है
नौ जनवरी को
पिछले साल तक
‘उलूक’ तक भी
नहीं जानता था
इस साल वो भी
गांंधी जी के
इंतजार में
बैठ कर
वैष्णव जन
तो तैने कहिये
गा रहा है ।

चित्र साभार: printablecolouringpages.co.uk

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

तैंतीस करोड़ देवताओं को क्यों गिनने जाता है

तैंतीस करोड़ देवताओं
की बात जब भी होती है
दिमाग घूम जाता है
बारह पंद्रह देवताओं से
घर का मंदिर भर जाता है
कुछ पूजे जाते हैं
कुछ के नाम को भी
याद नहीं रखा जाता है
क्यों होते होंगे
इतने ज्यादा देवता
इस बात में जरूर कोई
गूढ़ रहस्य होता होगा
ऐसा कभी कभी
लगने लग जाता है
पूजा अर्चना का सही
अर्थ भी उस समय
साफ साफ पता
लग जाता है
जब कोई भी देवता
कहीं भी काम करते हुऐ
नजर नहीं आता हैं
ना तो उससे काम करने
को कहा जाता है
ना ही किसी देवता को
कोई कामचोर कहने की
हिम्मत कर पाता है
काम बिगाड़
ना दे कोई देवता
इसीलिये डर के मारे
पूजा जरूर जाता है
अपने आस पास
देवताओं को छोड़
हर किसी के पास
कुछ ना कुछ काम
नजर आता है
खुश्किस्मत
भारत देश में
हर देवता
देवताओं की संख्या
बढ़ाने में जोर शोर से
लगा हुआ नजर आता है
देवता क्यों होते होंगे
करोड़ से भी ज्यादा
अपने आसपास
के देवताओं
को देख कर
अच्छी तरह
समझ में
आ जाता है
देवता होना ही
अपने आप में
सब कुछ हो जाता है
एक देवता
दूसरे को भी
अपना जैसा
ही देवता
बनाना चाहता है
अपने पास ही हैं
सारे तैंतीस
करोड़ देवता
फिर किसलिये
मंदिर मंदिर
भटकते हुऐ गिनती
करना चाहता है ।

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

हुई कुछ हलचल मेरे शहर में

भारत में जन्मा
एक गोरा अंग्रेज
आज मेरे शहर
में आकर हमें
फिर आईना
दिखा गया
कुछ चटपटी
कुछ अटपटी
सी हिन्दी लेकिन
बस वो हिन्दी में ही
बोलता चला गया
इशारों इशारों में
उजागर किया
उसने कई बार
अपने देशप्रेम को
अंग्रेजों की दी
वसीयत से अब तो
मोह भंग कर जाओ
भारत और
भारतीयता
की उँचाइयाँ
कितनी हैं
गहरी अब तो
कुछ समझ में
अपनी ले आओ
भारतीय संस्कृति
में ही है ऎसा कुछ
जिससे ऎसा
वैसा रास्ता
उससे ना ही
कभी चुना गया
चीन देखो सामने
सामने कत्लोआम पर
गुजर कर तरक्की
कितनी पा गया
सरकार न्यायपालिका
नौकरशाह अगर
कर भी रहे हैं
दखलंदाजी एक
दूसरे के काम में
ऎ आदमी भारत के
तेरा ही तो
इस सब में
सब कुछ तूने
खुद ही तो
हमेशा से
है बहा दिया
उठ खडे़ हो
गौर कर सोच कुछ
मौके बहुत हैं
मुकाम पर देश
देखना ये गया
और वो गया
गाँधी और उसकी
गीता कौन
अब है देखता
वो फिर एक बार
उसकी याद हमको
अपनी बातों में
दिला गया
बहुत कुछ दिखा
उस शख्स में
अच्छा हुआ
ना जाते जाते मैं
उसको सुनने के
लिये चला गया
‘मार्क टली’
दिल से आभारी
हूँ तेरा आज मैं
मेरे सोते हुऎ
शहर को आज
तू कुछ थोड़ा सा
जो हिला गया ।

शनिवार, 30 मार्च 2013

लंगड़ा दौड़ता है दो टाँग वाला कमेंट्री करता है !

मैं दो टांग वाला
हर बार भूल
ही जाता हूँ
कि सिस्टम तो
लंगड़ों ने ही
चलाना है

मुझे याद ही
नहीं रहता
कि सारे
दो टांग वाले
दो टांग वालो
के कहने में
नहीं आते हैं
वो तो
लंगड़ों के घर
रोज ही
आते जाते हैं

 ज्यादातर
दो टांग वाले
बस वेतन ले कर
खुश हो जाते हैं
दौड़ की सोच भी
कहाँ पाते हैं

बहुत सारी दौडे़
होनी हो कहीं
अगर एक साथ
तो लंगडे़ बहुत
ही व्यस्त
हो जाते हैं

वो दौड़ में कहीं
भाग नहीं लगाते हैं
लंगड़ी कहाँ किस को
कैसे लगेगी उसका
हिसाब लगाने में
ही व्यस्त हो जाते हैं

अपने को सबसे
चालाक समझने वाला
लंगड़ा कहीं दिखाई
ही नहीं देता है
पर अपनी हरकतों से
अपने को हर जगह
एक्स्पोज कर जाता है
मजबूरी है उसकी
हर जगह हीरा हूँ
प्रमाणपत्र लेने के
लिये आ जाता है
लेकिन कोयला भी
उसको कहीं भी
मुहँ नहीं लगाता है
ऎसे लोगों से
ही भारत का लेकिन
अंदर की बात है
का नाता है
वो घर से लेकर
दिल्ली तक
नजर आता है
काम करने वाला
मेहनत करता है
लेकिन हर जगह
एक लंगड़ा
दो टाँगो वालो को
जरूर नचाता है ।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

नागा बाबा

नागा बाबा 
एक
देखे मैंने
नंग धडंग
खडे़ 

एक टी वी 
की दुकान 
के सामने

देखते हुऎ
फ़ैशन
टी वी में
छोटे छोटे
कपड़ों में
माडलों का
कैट वाक

घर में टी वी
कभी भी
मैं नहीं
देखता हूँ
लेकिन
वहाँ
मैं भी तन
कर खड़ा
हो गया

जैसे चल
रहा हो
क्रिकेट मैच
कोई
भारत
पाकिस्तान का

फिर कीड़ा
कुलबुलाया

आम
आदमी
के पेट में
जैसे
पचती नहीं
कोई बात

टी वी को
कम
बाबा को
ज्यादा
देख रहा
था मैं
बहुत
देर तक
लेकिन
रुक
नहीं पाया
पूछ बैठा
बाबा से

बाबा जी
कौन सा
कपड़ा
आपको
पसंद आया

बाबा मुड़ा
मुझे घूरा
थोड़ा डर
भी लगा
लेकिन फिर
मुस्कुराया

पूछा मुझसे
उसने

ये बहुत
देर से
मैं भी
देख रहा हूँ
लेकिन
समझ नहीं
पा रहा था
कि
इनसे ऎसा
कौन है
जो ये
करवा
रहा था

यहाँ तो
हर आदमी
करता है
यही
कैट वाक
वो तो
टी वी में
कहीं नहीं
दिखाया
है जाता

देखते रहो
इनको
निर्विकार
भाव से
समझो
कैट और
कैट वाक
को इनके
और
मुस्कुरालो
तो जग है
जीत
लिया जाता

सभी तो
कर रहे हैं
कैट वाक
यहां
कपड़े अपने
उतार कर

पर कहलाना
नहीं चाहते
बस दिखवाना
चाहते है
अपने को
कैट वाक पर
कपड़े की बात
छोड़ कर

पर कौन
कर सकता
है ऎसा
करता तो
मेरे जैसे
बिना कपड़े
का एक
नागा बाबा
नहीं हो जाता

बच्चा
समझा कर
तू भी मुझ से
कहाँ फिर
कुछ
पूछ पाता

समझ में तेरे
कुछ आया है
तो यहाँ से
चला जा
नहीं तो
तू भी एक
नागा बाबा
बन जा
और मेरे
साथ आजा ।

मंगलवार, 15 मई 2012

कार्टून और लंगोट

विधान सभा लोक सभा में
चर्चा अभी अगर नहीं कराओगे
लिखने लिखाने कार्टून बनाने
के कुछ नियम नहीं बनाओगे
संविधान का कार्टून अब भी
कुछ बंदरों से नहीं बनवाओगे
भारत देश की नागरिकता से
कभी भी हाथ धुला पाओगे
किसी पर भी कार्टून बनाओगे
आज नहीं फंसोगे पचास साल
बाद ही सही फंसा दिये जाओगे
जिंदा रहे तो टांक दिये जाओगे
मर खप गये तो किसी जिंदे
आदमी का जनाजा निकलवाओगे
कार्टून छोड़ो मुस्कुराने पर भी
सवाल जवाब होता देख पाओगे
सबके लिये बुरके जालीदार
सिलवाते ही रह जाओगे
अपने अपने कार्टून बनाओगे
अपने ही गले में लटकाओगे
ईश्वर को मंदिर से अगर भगाओगे
आदमी को ईश्वर मान जाओगे
शायद अपनी लंगोट बचा पाओगे
नंगे होने से पक्का बच जाओगे।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

भारत की पचासवीं वर्षगांठ

प्रतीक्षा में हूँ
उन सर्द
हवाओं की
जो मेरी
अन्तरज्वाला
को शांत करें ।

प्रतीक्षा में हूँ
उन गरम
फिजाओं की
जो मेरे
ठंडेपन को
कुछ गरम करें ।

सदियों से
मेरी गर्मी
मेरी सर्दी
से राजनीति
कर रही है ।

सर्द हवाऎं
मेरी सर्दी
को अपना
लेती हैं ।

गरम फिजाऎं
मेरी ज्वाला
को उतप्त
बना देती हैं

आज भी मैं
वहीं हूँ
जहाँ मैं
जल रहा था ।

आज भी मैं
वहीं हूँ
जहाँ मैं

जम रहा था ।


अब
पचास वर्षों
के बाद

मुझे इंतजार है
न सर्द
हवाओं का ।

न इंतजार है
गरम
फिजाओं का ।

शायद यही
रास्ता है

कभी

मेरी गर्मी
मेरी सर्दी
से मिले
और
यूं ही
भटकते हुवे
मुझे स्थिरता
मिले ।