उलूक टाइम्स: बैठे ठाले
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मंगलवार, 19 अगस्त 2014

जो होता नहीं कहीं उसी को ही दिखाने के लिये कुछ नहीं दिखाना पड़ता है

बैठे ठाले का
दर्शन है बस
चिंतन के किसी
काम में कभी भी
नहीं लाना होता है
खाली दिमाग
को कहते हैं
दिमाग वाले
शैतान का एक
घर होता है
ऐसे घरों की
बातों को
ध्यान में नहीं
लाना होता है
सब कर रहे
होते हैं लागू
अपने अपने
धंधों पर
धंधे पर ही बस
नहीं जाना होता है
बहुत देर में आती है
बहुत सी बातें
गलती से समझ में
सबको आसानी से
समझ में आ जाये
ऐसा कभी भी कुछ
नहीं समझाना होता है
एक ही जैसी बात है
कई कई बातों में
घुमा फिरा के फिर
उसी जगह पर
चले जाना होता है
सबके सब कर
रहे होते हैं
गांंधी दर्शन के
उल्टे पर शोध अगर
मान्यता पाने के लिये
शामिल हो ही
जाना पड़ता है
घर में सोते रहिये
जनाब चादर ओढ़ कर
दिन हो या रात हो
अखबार में कसरत
करता हुआ आदमी
एक दिखाना पड़ता है
कभी तो चावल के
दाने गिन भी लिया
कर ‘उलूक’ दिखाने
के लिये ही सही
रोज रोज कीड़े
दिखाने वाले को
बाबा जी का भोंपू
बजा कर शहर से
भगाना पड़ता है ।

रविवार, 6 मई 2012

बैठे ठाले उलूक चिंतन

रविवार को
उलूक चिंतन
कुछ ढीला
पढ़ जाता है

लिखने के लिये
कुछ भी नया
आसपास जब
नहीं ढूँढा जाता है

घर पर बैठे ठाले
अगर कुछ
कोई लिखना
भी चाहता है

परिणाम के
रूप में झाड़ू
अपने सामने
से पाता है

अपनी
कमजोरियों
को दिखाना
भी कहाँ अच्छा
माना जाता है

हर कोई
अपनी छुरी को
तलवार ही
बताना चाहता है

दो काम हों
करने अगर
अच्छा काम
पहले करने को
हमेशा से
कहा जाता है

पर ऎसा
कहाँ किसी से
हर समय
हो पाता है

रावण भी
तो स्वर्ग तक
सीढ़ियाँ नहीं
बना पाता है

पहले सीता
मैया जी को
हरने के लिये
चला जाता है

पुरुस्कार
के रूप में
रामचन्द्र जी
के हाथों मार
दिया जाता है

उलूक भी
इसीलिये
सोच में कुछ
पड़ जाता है

सब्जी
बाजार से
लाने से पहले
चौका बरतन
झाड़ू पौछा
करने को चला
ही जाता है

कभी कभी
बुद्धिमानी कर
मार खाने से
बच जाता है ।