आज
अचानक
गली के
मोड़ पर
तेजी से
भागता हुआ
कबीर मिला था
एक नयी
बहुत मंहगी
चमकीली
साफ सुथरी
चादर से
ढका हुआ
उड़ता हुआ
जैसे एक
बुलबुला
बन रहा था
पूछ बैठा
था कोई
भाई तू
लगभग
पाँच सौ
साल से
यूँ ही
पड़ा रहा था
अब
किस लिये
मजार
छोड़ कर
भाग आया
एक नयी
चादर में
उलझा हुआ
अपना
एक पाँव
बाहर
निकाल
कर उसने
चादर को
किनारे लगाया
जोर से
चिल्लाया
समझा करो
कबीर था
तब तक
जब तक
किसी को
मेरे जुलाहे
होने का
पता नहीं था
पाँच सौ
साल में
बदल जाती
है कायनात तक
मैं तो
उस जमाने
के सीधे साधे
आदमियों के
बीच का था
बस एक
फकीर था
हिंन्दू रहा था
ना मुसलमान रहा था
जुलाहे होने का
थोड़ा सा बस
अभिमान रहा था
दोहे
कह बैठा था
उस समय
के हिसाब से
पर आज
उन सब में जैसे
सारी जिन्दगी का
फलसफाऐ शैतान था
किसे पता था
पाँच सौ साल बाद
रजिया गुँडों के
बीच फंस जायेगी
कबीर के दोहे
किताबों से
दब जायेंगे
ईवीएम
की मशीन
कबीर के
भजन गायेगी
संगीत सुनायेगी
‘उलूक’
कब सुधरेगा
पता नहीं
उसकी बकवास
करने की आदत
भी नहीं जायेगी
कबीर ने
कुछ कहा था
समझना जरूरी
भी नहीं था
कल शायद
सूर की भी बारी
कहीं ना कहीं
आ जायेगी
तुलसी
फंसा हुआ है
मन्दिर की
सोच रहा है
पता नहीं
कौन सी कब्र
किस समय
और किसलिये
खोली जायेगी
बकवास है
शहर की
नहीं है
विनती है आपसे
मत कह देना
कबीर की आत्मा
मेरे घर में रुकी थी
कल चली जायेगी।
चित्र साभार: http://www.pngnames.com