एक आदमी
भूगोल हो रहा होता
आदमी ही एक
इतिहास हो रहा होता
पढ़ने की
जरूरत
नहीं हो
रही होती
सब को
रटा रटाया
अभिमन्यु की तरह
एक आदमी
पेट से ही
पूरा याद हो रहा होता
एक आदमी
हनुमान हो रहा होता
एक आदमी
राम हो रहा होता
बाकि
होना ना होना सारा
आम और
बेनाम हो रहा होता
चश्मा
कहीं उधड़ी हुई
धोती में सिमट रहा होता
ग़ाँधी
अपनी खुद की
लाठी से
पिट रहा होता
कहीं हिन्दू
तो कहीं उसे
मुसलमान
पकड़ रहा होता
कबीर
अपने दोहों को
धो धो कर
कपड़े से
रगड़ रहा होता
ना तुलसी
राम का हो रहा होता
ना रामचरित मानस
पर काम हो रहा होता
मन्दिर में
एक आदमी के
बैठने के लिये
कुर्सियों का
इन्तजाम
हो रहा होता
लिखा हुआ
जितना भी
जहाँ भी
हो रहा होता
हर पन्ने का एक
आदमी हो रहा होता
आदमी आदमी
लिख रहा होता
आदमी ही
एक किताब
हो रहा होता
इस से ज्यादा
गुलशन कब
आबाद
हो रहा होता
शाख
सो रही होती
‘उलूक’
खो रहा होता
गुलिस्ताँ
खुद में गंगा
खुद में संगम
और खुद ही
दौलताबाद
हो रहा होता।
चित्र साभार: http://clipartstockphotos.com
भूगोल हो रहा होता
आदमी ही एक
इतिहास हो रहा होता
पढ़ने की
जरूरत
नहीं हो
रही होती
सब को
रटा रटाया
अभिमन्यु की तरह
एक आदमी
पेट से ही
पूरा याद हो रहा होता
एक आदमी
हनुमान हो रहा होता
एक आदमी
राम हो रहा होता
बाकि
होना ना होना सारा
आम और
बेनाम हो रहा होता
चश्मा
कहीं उधड़ी हुई
धोती में सिमट रहा होता
ग़ाँधी
अपनी खुद की
लाठी से
पिट रहा होता
कहीं हिन्दू
तो कहीं उसे
मुसलमान
पकड़ रहा होता
कबीर
अपने दोहों को
धो धो कर
कपड़े से
रगड़ रहा होता
ना तुलसी
राम का हो रहा होता
ना रामचरित मानस
पर काम हो रहा होता
मन्दिर में
एक आदमी के
बैठने के लिये
कुर्सियों का
इन्तजाम
हो रहा होता
लिखा हुआ
जितना भी
जहाँ भी
हो रहा होता
हर पन्ने का एक
आदमी हो रहा होता
आदमी आदमी
लिख रहा होता
आदमी ही
एक किताब
हो रहा होता
इस से ज्यादा
गुलशन कब
आबाद
हो रहा होता
शाख
सो रही होती
‘उलूक’
खो रहा होता
गुलिस्ताँ
खुद में गंगा
खुद में संगम
और खुद ही
दौलताबाद
हो रहा होता।
चित्र साभार: http://clipartstockphotos.com