उलूक टाइम्स: शायर
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बुधवार, 13 सितंबर 2017

हजार के ऊपर दो सौ पचास हो गये बहुत हो गया करने के लिये तो और भी काम हैं

कुछ रोज के
दिखने से
परेशान हैं
कुछ रोज के
लिखने से
परेशान हैं
गली से शहर
तक के सारे
आवारा कुत्ते
एक दूसरे
की जान हैं

किस ने
लिखनी हैं
सारी
अजीब बातें
दिल खोल कर
छोटे दिल की
थोड़ा सा
लिख देने से
बड़े दिल
वाले हैरान हैं

बकरियाँ
कर गयी हैं
कल से तौबा
घास खाने से
खड़ी कर अपनी
पिछली टाँगे
एक एक की
एक नहीं कई हैं
घर में ही हैं
खुद की ही हैं
घास की दुकान हैं

पढ़ना लिखे को
समझना लिखे को
पढ़कर समझकर
कहना किसी को
नयी बात कुछ
भी नहीं है इसमें
आज की आदत है
आदत बहुत आम है

 कोई
शक नहीं
‘उलूक’
सूचना मिले
घर की दीवारों
पर चिपकी
किसी दिन
शेर लिखना
उल्लुओं का नहीं
शायरों का काम है ।

 चित्र साभार: Fotosearch

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

बेहयाई से लिखे बेहयाई लिखे माफ होता है



लहर कब उठेगी पता नहीं होता है
जरूरी नहीं उसके उठने के समय हाथ में किसी के कैमरा होता है

शेर शायरी लिखने की बातें हैं शायरों की
ऐसा सभी सुनते हैं बहुतों को पता होता है

बहकती है सोच जैसे पी कर शराब
सोचने वाला पीने पिलाने की बस बातें सोचता रहता है

कुछ आ रहा था मौज में
लिख देना चाहिये सोच कर लिखना शुरु होता है

सोच कब मौज में आयी
सोचा हुआ कब बह गया होता है किसे पता होता है

रहने दे चल कुछ फिर और डाल साकी सोच के गिलास में
शराब और गिलास का रिश्ता हमेशा ही बचा होता है

कोई गिला कोई शिकवा नहीं बताता है अखबार वाला भी
कभी पढ़ने में सुनने में ऐसा आया भी नहीं होता है

‘उलूक’ की आदत है इधर की उधर करने की
जैसा कहावतों में किसी की आदत के लिये कहा होता है

बेहयाई बेहया की कभी किसी एक दिन लिख भी दे
रोज लिखना शरीफों की खबर ठीक नहीं होता है

किसी दिन शरीफों के मोहल्ले में
शराफत से कुछ नहीं बोल देना भी ठीक होता है।

चित्र साभार: Shutterstock