उलूक टाइम्स: शेर
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रविवार, 6 अगस्त 2023

फटी सोच से फटी किताब में लिखे गए कुछ फटे शेर 'उलूक' ले कर के आता है

 


 कितना कुछ कुलबुलाता है
भटक कर अँगुलियों के पोरों तक आ जाता है
कलम की नोक तक सुरसुराता हुआ
सामने पड़े सफ़ेद पर बस फ़ैल जाता है

खून लाल होता है कहा जाता है
सफ़ेद होकर कब पानी में बदल जाता है
कहीं जिक्र नहीं करता है कोई
इंसान होने में अब किसे फक्र हो पाता है

कूंची लिए हाथ में कसमसाता है
रंगों से इन्द्रधनुष बनाना चाहता है
एक रंग काफी होता है
पागल बादशाह  जब जाल अपना फैलाता है

सीधे तू चोर है कभी भी नहीं कहना चाहिए
 ना ही किसी से सीधे कहा जाता है
अलीबाबा के समय चालीस रहे होंगे
अब तो पांच सौ चालीस से देश चल पाता है

सीवर जरूरी नहीं सब बहा कर ले जाए
बहुत कुछ सब के हिस्से का बचा रह जाता है
सफाई और गन्दगी के बीच की लाइन खींचना ठीक नहीं
अब माना जाता है
सब कुछ हम्माम हो चला  है देख रहे हैं खुद को नहाते हुए इसी में
कौन हडबड़ाता है
गांधी को सोचना और उसकी बात करने वाला
अब एक निहायती गंवार माना जाता है

खोदना जरूरी है सारी खूबसूरत इमारतों को एक बार
और ये उसे करना है
तू किसलिए लरबराता है
ईट बहुत  है औकात बताने  के लिए
क्यों पगलाता है
चर्च मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारा अगर भरभराता  है

बहुत सारी गन्दगी है बहुत बदबूदार है
फेंकना भी होता है हर कोई फेंकना भी चाहता है
‘उलूक’ आसान नहीं होता है शब्द नहीं होते हैं पास में
एक वाक्य तक नहीं बनाया जाता है |
 

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/


गुरुवार, 13 मई 2021

कुछ शेर हैं दूर से शायर दिख रहे हैं कुछ भीगे बिल्ले बेचारे बिल्लियाँ लिख रहे हैं

 


कुछ
प्रायश्चित कर रहे हैं

कुछ
सच में
सच लिख रहे हैं

कुछ
बकवास के पन्ने
कई दिन हो गये
कहीं नहीं दिख रहे हैं

कुछ 
नहीं लिखा
कुछ
नहीं लिखा जा रहा है

कुछ पन्ने
ठण्डी धूप में सिक रहे हैं

कुछ ने लिखा है
कुछ कुछ

कुछ
लिख दिए सब कुछ
सब्जी मण्डी में दिख रहे हैं

कुछ
कुछ से बहुत कुछ तक
पहुँच गये हैं

कुछ
कुछ में ही
कुछ टिक रहे हैं

कुछ
भर रहे हैं कुछ
कुछ
भर लिये हैं बहुत कुछ

कुछ
रास्ते में हैं लबालब
कुछ
कुछ रिस रहे हैं

कुछ
कुछ लिखने के लिये
दिख रहे हैं
कुछ
कुछ दिखने के लिये
लिख रहे हैं

कुछ
चल दिये हैं
कुछ लिखते लिखते
कुछ
रास्ते में हैं
 बस जूते घिस रहे हैं

कुछ
मुखौटे कुछ
चेहरों से उतर रहे हैं
कुछ
मुखौटे
शहर दर शहर बिक रहे हैं

कुछ बाजार
कुछ उजड़ रहे हैं

कुछ बाजार 
श्मशान में
सजते हुऐ कुछ दिख रहे हैं

कुछ
डरों से
कुछ निजात मिले

धोबी के कुछ गधे
कुछ
कोशिश कर रहे हैं

‘उलूक’
कुछ लगाम
खींच कलम की
कुछ
लिख कर कभी

सोच के घोड़े मर रहे हैं

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 1 जून 2019

बकवास अपनी कह कह कर किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं

बहुत कुछ है 
लिखने के लिये बिखरा हुआ 
समेटना ठीक नहीं इस समय
रहने देते हैं

होना कुछ नहीं है हिसाब का 
बेतरतीब ला कर 
और बिखेर देते हैं 
बहे तो बहने देते हैं

दीमकें जमा होने लगी हैं फिर से
नये जोश नयी ताकतों के साथ 
कतारें कुछ सीधी कुछ टेढ़ी 
कुछ थमने देते हैं 

आती नहीं है नजर 
मगर होती है खूबसूरत 
आदेश कतारबद्ध होने के 
रानी को 
घूँघट के पीछे से देने देते हैं

तरीके लूटने के नये 
अंगुलियाँ अंगुलीमाल के लिये 
साफ सफाई हाथों की जरूरी है 
डेटोल डाल कर धोने देते हैं 

बज रही हैं दुंदुभी रण की 
कोई नहीं है कहीं दूर तक 
शोर को गोलियों के 
संगीत मान चुके सैनिकों को 
सोने देते हैं 

दहाड़ सुनते हैं 
कुछ कागज के शेरों की 
उन्हें भी शहर के जंगलों की 
कुछ कागजी कहने देते हैं 

लिखना क्या सफेद कागज पर 
काली लकीरों को 
नावें बना कर रेत की नदी में 
तेजी से बहने देते हैं 

गाँधी झूठ के पर्याय 
खुल के झूठ बोलते रहे हैं सुना है 
सच तोलने वालों को चलो अब 
खुल के उनके अपने नये बीज 
बोने देते हैं

सच है दिखता है 
उनके अपने आईने से जो भी 
उन्हें सम्मानित कर ही देते हैं 

अखबार के पन्ने सुबह के 
बता देते हैं 
पढ़ने वालों में से कुछ रो ही लेते हैं 
तो रोने देते हैं 

बकवास करने में लगे कर 
जारी हों लाईसेंस 
सेंस में रहना अच्छा नहीं 
नाँनसेंस ‘उलूक’ जैसे 
अपनी कह कह कर 
किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं । 

चित्र साभार: clipartimage.com/

मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
----------------------------

पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
-----------------------------


खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
---------------------------------


बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
-------------------------------


बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------


पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------------


शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
----------------------


‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
-------------------------------

चित्र साभार: https://pngtree.com

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

गुलाम के इशारे पर चलता है स्वतंत्रता पढ़ाने को चला आता है


स्वतंत्र 
एक शब्द है 

स्वतंत्रता 
एक
ख्वाब है 

गुलाम 
और 
गुलामी 



आम है 
और
खास है 

नकारते रहिये 

हो गये

तो 


सीढ़ी 
आपके पास है 

नहीं 
हो पाये 


अगर 

का
 मतलब 
साँप 
कहीं ना कहीं है 

और 
बहुत नजदीक है 
और 
आसपास है 

साँप 
और सीढ़ी 
के बीच 
एक रिश्ता है 

इसीलिये 
खेला भी जाता है 

हर गुलाम 

अपने नीचे 

बस गुलाम 
देखना
चाहता है 
गुलाम
सोचना 
चाहता है 

हर गुलाम 
एक बड़े 
गुलाम का 
खास होना 
चाहता है 

गुलाम 
गुलाम होकर
भी 
गुलाम हूँ 
सोचना
भी 
नहीं चाहता है 

गुलामी 
खून में होती है 

खून 
लाल होता है 

सभी का 
एक जैसा 

आदमी से लेकर 
जानवर का तक 

सारे गुलाम 
स्वतंत्रता जीते हैं 

ख्वाब पीते हैं 

इसके 
गुलाम 
उसको 
स्वतंत्रता 
पढ़ाते हैं 

उसके 
गुलाम 

स्वतंत्रता 
सिखाने वाले 
शिक्षकों की 
पाँत में 

सबसे 
आगे खड़े 
नजर आते हैं 

नियम 
स्वतंत्र होते है 

पालन 
करने वाले 
गुलाम होते हैं 

गुलामी 
कुछ ना कुछ 
दे जाती है 

स्वतंत्रता 
पागलों के 
काम आती है 

स्वतंत्रता 
सपने जगाती है 

सोना 
बहुत जरूरी है

गुलामों को 
नींद
जरूरत से 
ज्यादा आती है 

गुलाम बहुत 
आतुरता के साथ 

स्वतंत्रता 
लिखना चाहता है 

लिखना 
शुरु करता है 

मालिक 

सपने में 
आना शुरु 
हो जाता है 

‘राम’ ईश्वर है 

‘उलूक’

गुलाम 
उसके नाम पर 
तुझे धमका कर 
तेरा क्रिया करम 
श्राद्ध सब 

अभी 
और अभी 
यहीं
कर देना 
चाहता है 

देश 
स्वतंत्र हुआ था 
गुलामों से 

कुछ सुना था 

फिर क्यों 
हर तरफ अपने 
आसपास 

अपने ऊपर 
किसी एक 
गुलाम का 
साया नजर 
आता है 

घर में ही 
घर के
भेड़िये 

नोच रहे 
होते हैं 
अपनी भेड़ें 
अपने हिसाब से 

शेर 
का गुलाम 

शेर की 
एक तस्वीर 
का
झंडा 
ला ला कर 

क्यों
लहराता है ? 

चित्र साभार: https://apptopia.com/

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

पता ही नहीं चलता है कि बिकवा कोई और रहा है कुछ अपना और गालियाँ मैं खा रहा हूँ

शेर
लिखते होंगे
शेर
सुनते होंगे
शेर
समझते भी होंगे
शेर हैं
कहने नहीं
जा रहा हूँ


एक शेर
जंगल का देख कर
लिख देने से शेर
नहीं बन जाते हैं

कुछ
लम्बी शहरी
छिपकलियाँ हैं

जो आज
लिखने जा रहा हूँ

भ्रम रहता है
कई सालों
तक रहता है

कि अपनी
दुकान का
एक विज्ञापन

खुद ही
बन कर
आ रहा हूँ

लोग
मुस्कुराहट
के साथ मिलते हैं

बताते भी नहीं है
कि खुद की नहीं
किसी और की
दुकान चला रहा हूँ

दुकानें
चल रही हैं
एक नहीं हैं
कई हैं

मिल कर
चलाते हैं लोग

मैं बस अपना
अनुभव बता रहा हूँ

किस के लिये बेचा
क्या बेच दिया
किसको बेच दिया
कितना बेच दिया

हिसाब नहीं
लगा पा रहा हूँ

जब से
समझ में आनी
शुरु हुई है दुकान

कोशिश
कर रहा हूँ
बाजार बहुत
कम जा रहा हूँ

जिसकी दुकान
चलाने के नाम
पर बदनाम था

उसकी बेरुखी
इधर
बढ़ गयी है बहुत

कुछ कुछ
समझ पा रहा हूँ

पुरानी
एक दुकान के
नये दुकानदारों
के चुने जाने का

एक नया
समाचार
पढ़ कर
अखबार में
अभी अभी
आ रहा हूँ

कोई कहीं था
कोई कहीं था

सुबह के
अखबार में
उनके साथ साथ
किसी हमाम में
होने की
खबर मिली है
वो सुना रहा हूँ

कितनी
देर में देता
है अक्ल खुदा भी

खुदा भगवान है
या भगवान खुदा है
सिक्का उछालने
के लिये जा रहा हूँ

 ‘उलूक’
देर से आयी
दुरुस्त आयी
आयी तो सही

मत कह देना
अभी से कि
कब्र में
लटके हुऐ
पावों की
बिवाइयों को
सहला रहा हूँ ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com

मंगलवार, 8 मई 2018

टिप्पणियों पर बिफरते नये शेर को देख कर पुराने हो चुके भेड़ को कुछ तो कह देना हो रहा है

सब कुछ
एक साथ
नहीं दौड़ता है

टाँगें
कलम हो जायें
बहुत कम होता है

वजूका
खेत के बीच में
भी हो सकता है
कहीं किनारे पर
बस यूँ ही खड़ा
भी किया होता है

कहने लिखने को
रोज हर समय
कुछ ना कुछ
कहीं किसी
कोने में
जरूर होता है

लिखे हुऐ
सारे में से
जान बूझ कर
नहीं लिखा गया
कहीं ना कहीं
किसी पंक्ति
के बीच से
झाँक रहा होता है

समुन्दर
लिख लेने
के बाद
नदी लिखने
का मन
किसी का
होता होगा
पता कहाँ
चलता है

कलम की
पुरानी
स्याही को
नाले के पास
लोटे में धोना
और फिर
चटक धूप में
सुखा कर
नयी स्याही
भर लेना

एक पुराना
मुहावरा
हो चुका
होता है

नये मुल्ले
और
प्याज पर
लिखने से
दंगा भड़कने
का अंदेशा
हो रहा
होता है

रोज के
रोजनामचे
को लिखने
वाले ‘उलूक’
का दिल

साप्ताहिक
हो लेने
पर भी
बाग बाग
हो रहा
होता है

लिखना
लिखाना
और
उस पर
टिप्पणी
पाने की
लालसा पर

हमेशा
की तरह
नये सिपाही
का बंदूक
तानने पर

अपनी
पुरानी
जंक लगी
बन्दूक से
खुद का
फिर से
सामना
हो रहा
होता है

अपना लिखना
अपने लिखे को
अपना पढ़ लेना
समझ में आ जाना
सालों साल में

पुराने प्रश्न से
जैसे नया
सामना हो
रहा होता है ।

बुधवार, 13 सितंबर 2017

हजार के ऊपर दो सौ पचास हो गये बहुत हो गया करने के लिये तो और भी काम हैं

कुछ रोज के
दिखने से
परेशान हैं
कुछ रोज के
लिखने से
परेशान हैं
गली से शहर
तक के सारे
आवारा कुत्ते
एक दूसरे
की जान हैं

किस ने
लिखनी हैं
सारी
अजीब बातें
दिल खोल कर
छोटे दिल की
थोड़ा सा
लिख देने से
बड़े दिल
वाले हैरान हैं

बकरियाँ
कर गयी हैं
कल से तौबा
घास खाने से
खड़ी कर अपनी
पिछली टाँगे
एक एक की
एक नहीं कई हैं
घर में ही हैं
खुद की ही हैं
घास की दुकान हैं

पढ़ना लिखे को
समझना लिखे को
पढ़कर समझकर
कहना किसी को
नयी बात कुछ
भी नहीं है इसमें
आज की आदत है
आदत बहुत आम है

 कोई
शक नहीं
‘उलूक’
सूचना मिले
घर की दीवारों
पर चिपकी
किसी दिन
शेर लिखना
उल्लुओं का नहीं
शायरों का काम है ।

 चित्र साभार: Fotosearch

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

बेहयाई से लिखे बेहयाई लिखे माफ होता है



लहर कब उठेगी पता नहीं होता है
जरूरी नहीं उसके उठने के समय हाथ में किसी के कैमरा होता है

शेर शायरी लिखने की बातें हैं शायरों की
ऐसा सभी सुनते हैं बहुतों को पता होता है

बहकती है सोच जैसे पी कर शराब
सोचने वाला पीने पिलाने की बस बातें सोचता रहता है

कुछ आ रहा था मौज में
लिख देना चाहिये सोच कर लिखना शुरु होता है

सोच कब मौज में आयी
सोचा हुआ कब बह गया होता है किसे पता होता है

रहने दे चल कुछ फिर और डाल साकी सोच के गिलास में
शराब और गिलास का रिश्ता हमेशा ही बचा होता है

कोई गिला कोई शिकवा नहीं बताता है अखबार वाला भी
कभी पढ़ने में सुनने में ऐसा आया भी नहीं होता है

‘उलूक’ की आदत है इधर की उधर करने की
जैसा कहावतों में किसी की आदत के लिये कहा होता है

बेहयाई बेहया की कभी किसी एक दिन लिख भी दे
रोज लिखना शरीफों की खबर ठीक नहीं होता है

किसी दिन शरीफों के मोहल्ले में
शराफत से कुछ नहीं बोल देना भी ठीक होता है।

चित्र साभार: Shutterstock

शनिवार, 6 अगस्त 2016

श्श्श्श शोर नहीं मास्साब हैं आँख कान मुँह नाक बंद करके शिष्यों को इंद्रियाँ पढ़ा रहे हैं


दृश्य एक:

बड़े बड़े हैं 
बहुत बड़े हैं 
बड़प्पन दिखा रहे हैं 

आँख मूँदे 
बैठे हैं 
कान में सरसों का 
गुनगुना तेल डलवाकर 
भजन गुनगुना रहे हैं 

कुछ
उसी 
तरह का दृश्य बन रहा है

जैसे 
अफ्रीका के घने जंगल के 

खूबसूरत 
बड़े नाखून और
तीखे 
दाँतों वाले बब्बर शेर 

परिवार और 
मित्रों
के साथ 
बैठे हुऐ 
घास फूस की दावत उड़ा रहे हैं 

दूसरे दृश्य में :

तमाशा दिखाने वाले 

शेरों के ही अगल बगल 
एक टाँग पर खड़े हुए
कुछ बगुले दिखा रहे हैं 

सफेद हैं झकाझक हैं 

अपनी दुकानें 
सरकारी  दुकान के अन्दर के 
 किसी कोने में सजा रहे हैं 

बेचने को बहुत कुछ है 

अलग बात है शेरों का है 
खरीदने वालों को पता है 

भीड़ उमड़ रही है 
खालें बिक रही हैं
बोली बढ़ा चढ़ा कर लगा रहे हैं 

बगुलों की गरम हो रही जेबें 
किसी को नजर नहीं आ रही हैं 

बगुले
मछलियों के बच्चों को 
शेरों के दाँतों की फोटो बेच कर 
पेड़ों में चढ़ने के तरीके सिखा रहे हैं 

जय हो जंगल की 
जय हो शेरों की 
जय हो भक्तों की 
जय हो सरकार 
और 
सरकारी आदेशों की 

जय हो उन सभी की 
जो इन सब की बत्ती बनाने वालों 
को
देख समझ  कर 
खुद अपने अपने 
हनुमानों की चालीसा गा रहे हैं 



निचोड़: 

परेशान नहीं 
होना है 
आँख और कान वालो

शेखचिल्ली 
उलूक
और
उसके मुँगेरीलाल के हसीन 
सपने 

कौन सा 
पाठ्यक्रम में जुड़ने
जा रहे हैं

जंगल 
अपनी जगह 
शेर अपनी जगह 
बगुले अपनी जगह 
लगे हुऐ अपनी अपनी जगह 

जगह ही तो 
बना रहे हैं ।

सार:
श्श्श्श शोर नहीं 
मास्साब
आँख कान मुँह नाक बंद करके 
शिष्यों को आजकल 
इंद्रियाँ पढ़ा रहे हैं ।
चित्र साभार: country.ngmnexpo.com

मंगलवार, 14 जून 2016

क्या और क्यों नहीं कितनी बार बजाई बताना जरूरी होता है

सियार होना
गुनाह नहीं
होता है
कुछ इस तरह
का जैसा ही
कभी सुना या
पढ़ा हुआ कहीं
महसूस होता है
शेर हूँ बताना
गुनाह होता है
या नहीं होता है
किसी को
पता होता है
किसी को पता
नहीं भी होता है
गजब होता है
तो कभी कहीं
बस यूँ ही
किसी सियार
के शेर हो
जाने से होता है
उसके बाद
फिर किसी को
कुछ बताने
सुनाने के लिये
कुछ कहाँ होता है
अब जमाने के
हिसाब से ही
होना इतना
जरूरी अगर
ये होता है
तो साफ साफ
एक सरकारी
आदेश कलम से
लिखा हुआ
सरकारी कागज
में सरकार की
ओर से क्यों
नहीं होता है
कोई नहीं देखता
है कि कौन
कह रहा है
गालिब के शेर
को दहाड़ते हुए
तालियों की
गड़गड़ाहट से
अब शोर भी
नहीं होता है
ध्यान सुनने
सुनाने में लगाने
के दिन लद गये
‘उलूक’
खींच कर खींसे
निपोरने वालों को
तालियाँ गिनना
आना ही सबसे
जरूरी होता है ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 16 मार्च 2016

जब जनाजे से मजा नहीं आता है दोबारा निकाला जाता है

लाश को
कब्र से
निकाल कर

फिर से
नहला
धुला कर

नये कपड़े
पहना कर

आज
एक बार
फिर से
जनाजा
निकाला गया

सारे लोग
जो लाश के
दूर दूर तक
रिश्तेदार
नहीं थे
फिर से
इक्ट्ठा हुऐ

एक कुत्ते
को मारा
गया था
शेर मारने
की खबर
फैलाई
गई थी
कुछ ही
दिन पहले

मजा नहीं
आया था
इसलिये
फिर से
कब्र
खोदी गई

कुत्ते की
लाश
निकाल कर
शेर के
कपड़े
पहनाये गये

जनाजा
निकाला गया
एक बार
फिर से

सारे कुत्ते
जनाजे
में आये

खबर
कल के सारे
अखबारों
में आयेगी
चिंता ना करें

समझ में
अगर नहीं
आये कुछ
ये पहला
मौका
नहीं है जब

कबर
खोद कर
लाश को
अखबार
की खबर
और फोटो
के हिसाब से
दफनाया और
फिर से
दफनाया
जाता है

कल का
अखबार
देखियेगा
खबर
देखियेगा

सच को
लपेटना
किसको
कितना
आता है

ठंड
रखा कर
'उलूक'
तुझे
बहुत कुछ
सीखना
है अभी

आज बस
ये सीख
दफनाये गये
एक झूठ को
फिर से
निकाल
कर कैसे
भुनाया
जाता है ।

http://www.fotosearch.com/

मंगलवार, 26 मई 2015

शतक इस साल का कमाल आस पास की हवा के उछाल का

फिर से
हो गया
एक शतक

और
वो भी पुराने
किसी का नहीं

इसी का
और इसी
साल का

जनाब
क्रिकेट नहीं
खेल रहा है
यहाँ कोई

ये सब
हिसाब है
लिखने
लिखाने के
फितूर के
बबाल का

करते नहीं
अब शेर कुछ
करने दिया
जाता भी नहीं
कुछ कहीं

जो भी
होता है
लोमड़ियों
का होता है
हर इंतजाम

दिखता
भी है
बाहर ही
बाहर से

बहुत ही
और
बहुत ही
कमाल का

हाथियों
की होती
है लाईन
लगी हुई
चीटिंयों
के इशारे पर

देखने
लायक
होता है
सुबह से लेकर
शाम तक

माहौल उनके
भारी भरकम
कदमताल का

मन ही मन
नचाता है
मोर भी ‘उलूक’

सोच सोच कर
मुस्कुराते हुऐ

जब मिलता
नहीं जवाब
कहीं भी
देखकर
अपने
आस पास

सभी के
पिटे पिटाये से
चेहरों के साथ

बंद आँख और
कान करके
चुप हो जाने
के सवाल का ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

काम हो जाना ही चाहिये कैसे होता है इससे क्या होता है

क्या बुराई है
सीखने में कुछ
कलाकारी
जब रहना ही
हो रहा हो
किसी का
कलाकारों के
जमघट में
अपने ही
घर में
बनाये गये
सरकस में
जानवर और
आदमी के
बीच फर्क को
पता करने को
वैसे तो कहीं
कोई लगा
भी होता है
आदमी को
पता भी होता है
ऐसा बहुत
जगह पर
लिखा भी
होता है
जानवर को
होता है
या नहीं
किसी को
पता भी
होता है
या नहीं
पता नहीं
होता है
आदमी को
आता है
गधे को बाप
बना ले जाना
अपना काम
निकालना
ही होता है
इसके लिये
वो बना देता है
किसी शेर को
पूंछ हिलाता
हुआ एक कुत्ता
चाटता हुआ
अपने कटे हुए
नाखूँनों को
निपोरता
हुआ खींसें
घिसे हुऐ तीखे
दातों के साथ
कुतरता हुआ घास
तो भी
क्या होता है
काम को होना
ही चाहिये
काम तो
होता है
आदमी आदमी
रहता है
या फिर एक
जानवर कभी
हो लेता है
‘उलूक’ को नींद
बहुत आती है
रात भर
जागता भी है
दिन दोपहर
ऊँघते ऊँघते
जमहाईयाँ भी
लेता है ।
चित्र साभार: www.englishcentral.com

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

हैरान क्यों होना है अगर शेर बकरियों के बीच मिमियाने लगा है


पत्थर
होता होगा
कभी किसी जमाने में 
इस जमाने में
भगवान कहलाने लगा है 

कैसे
हुआ होगा ये सब 
धीरे धीरे
कुछ कुछ अब
समझ में आने लगा है 

एक साफ
सफेद झूठ को
सच बनाने के लिये 
जब से कोई
भीड़
अपने आस पास बनाने लगा है 

झूठ के
पर नहीं होते हैं
उसे उड़ना भी कौन सा है 
किसी
सच को दबाने के लिये 
झूठा
जब से जोर से चिल्लाने लगा है 

शक
होने लगा है
अपनी आँखों के
ठीक होने पर भी कभी 
सामने से
दिख रहे खंडहर को
हर कोई
ताजमहल बताने लगा है 

रस्में
बदल रही हैं
बहुत तेजी से इस जमाने की
‘उलूक’
शर्म को बेचकर
बेशर्म होने में 
तुझे भी अब
बहुत मजा आने लगा है 

तेरा कसूर
है या नहीं इस सब में
फैसला कौन करे 
सच भी
भीड़ के साथ जब से
आने जाने लगा है ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

रविवार, 5 अप्रैल 2015

शेर के लिये तो एक शेर से ही काम चल जाता है

पता चल
जाता है
और
अच्छा भी है

वो
आता जाता है
पर पढ़ने
के लिये नहीं

बस ये
देखने के लिये
कि आखिर
रोज रोज
यहाँ पर ऐसा
क्या कुछ
लिखा जाता है

अब ऐसा
भी नहीं
लिखता है कोई

पढ़ते ही
चल जाये पता
कि लिखा
क्या जाता है

लिखा जाता है
उसके लिये ही

जो भी
जैसा भी
जहाँ भी
जितना भी
लिखा जाता है

जानता है
वो भी अच्छी
तरह से ये

किसलिये
कहाँ और क्या
लिखा जाता है

परेशानी
होती है
केवल
उसको
ये देखकर

बस एक
और
केवल
एक ही

शेर जैसा
कुछ लिखा
जाता है

शेर भी
लिखा जाता है
उसके
शेर होने पर
लिखा जाता है

खुश होता है
या नहीं
ये बस
पता नहीं
किसी को
चल पाता है

‘उलूक’
शेर तो
शेर होता है
कुछ करे
या ना करे

दहाड़ने
से ही
एक बार
एक दिन में
बहुत कुछ
हो ही जाता है

बस बात
ये समझना
दिमाग से
कुछ बाहर को
चला जाता है

शेर पर
लिखे गये
शेर को
पढ़ पढ़ कर

एक चूहा
अपनी
झुँझुलाहट
दिखा कर
नाराजगी
व्यक्त
आँखिर क्यों
कर के जाता है ?

चित्र साभार: martanime.deviantart.com

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कोई नयी कहानी नहीं अपना वही पुराना रोना धोना ‘उलूक’ आज फिर सुना रहा था


लाऊडस्पीकर से भाषण बाहर शोर मचा रहा था

अंदर कहीं मंच पर एक नंगा 
शब्दों को खूबसूरत कपड़े पहना रहा था

अपनी आदत में शामिल कर चुके
इन्ही सारे प्रपंचों को रोज की पूजा में 

एक भीड़ का बड़ा हिस्सा घंटी बजाने
प्रांंगण में ही बने एक मंदिर की ओर आ जा रहा था

कविताऐं शेर और गजल से ढकने में माहिर अपने पापों को
आदमी आदमी को इंसानियत का पाठ सिखा रहा था

एक दिन की बात हो
तो कही जाये कोई नयी बात है 
आज पता चला 
फिर से एक बार ढोल नगाड़ों के साथ
एक नंगा हमाम में नहा रहा था

‘उलूक’ कब तक करेगा चुगलखोरी
अपनी बेवकूफियों की खुद ही खुद से

नाटक चालू था कहीं
जनाजा भी तेरे जैसों का
पर्दा खोल कर निकाला जा रहा था

तालियांं बज रही थी वाह वाह हो रही थी
कबाब में हड्डी बन कर
कोई कुछ नहीं फोड़ सकता किसी का

उदाहरण एक पुरानी कहावत का
पेश किया जा रहा था

नंगों का नंगा नाच नंगो को
अच्छी तरह समझ में आ रहा था ।

चित्र साभार: pixshark.com

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

किसी दिन सोचा कुछ और लिखा कुछ और ही दिया जाता है

सब कुछ तो नहीं
पर कुछ तो पता
चल जाता है
ऐसा जरूरी तो नहीं
फिर भी कभी
महसूस होता है
सामने से लिखा हुआ
लिखा हुआ ही नहीं
बहुत कुछ और
भी होता है
अजीब सी बात
नहीं लगती है
लिखने वाला
भी अजीब
हो सकता है
पढ़ने वाला भी
अजीब हो सकता है
जैसे एक ही बात
जब बार बार
पढ़ी जाती है
याद हो जाती है
एक दो दिन के लिये
ही नहीं पूरी जिंदगी
के लिये कहीं
सोच के किसी
कोने में जैसे
अपनी एक पक्की
झोपड़ी ही बना
ले जाती है
अब आप कहेंगे
झोपड़ी क्यों
मकान क्यों नहीं
महल क्यों नहीं
कोई बात नहीं
आप अपनी सोच
से ही सोच लीजिये
एक महल ही
बना लीजिये
ये झोपड़ी और महल
एक ही चीज
को देख कर
अलग अलग
कर देना
अलग अलग
पढ़ने वाला
ही कर पाता है
सामने लिखे हुऐ
को पढ़ते पढ़ते
किसी को आईना
नजर आ जाता है
उसका लिखा
इसके पढ़े से
मेल खा जाता है
ये भी अजीब बात है
सच में
इसी तरह के आईने
अलग अलग लिखे
अलग अलग पन्नों में
अलग अलग चेहरे
दिखाने लग जाते है
कहीं पर लिखे हुऐ से
किसी की चाल ढाल
दिखने लग जाती है
कहीं किसी के उठने
बैठने का सलीका
नजर आ जाता है
किसी का लिखा हुआ
विशाल हिमालय
सामने ले आता है
कोई नीला आसमान
दिखाते दिखाते
उसी में पता नहीं कैसे
विलीन हो जाता है
पता कहाँ चल पाता है
कोई पढ़ने के बाद की
बात सही सही कहाँ
बता पाता है
आज तक किसी ने
भी नहीं कहा
उसे पढ़ते पढ़ते
सामने से अंधेरे में
एक उल्लू
फड़फड़ाता हुआ
नजर आता है
किसने लिखा है
सामने से लिखा 
हुआ कुछ कभी 
पता ही नहीं 
लग पाता है 
ऐसे लिखे हुऐ 
को पढ़ कर 
शेर या भेड़िया 
सोच लेने में
किसी का
क्या जाता है ।
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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

क्यों खो रहा है चैन अपना पाँच साल के बाद उसके कुँभ के आने में

दिखना
शुरु हो
चुकी हैं
सजने
सवरने
कलगियाँ
मुर्गों की
रंग बिरंगी

मुर्गियाँ
भी
लगी है
बालों में
मेहंदी
लगाने में

आने ही
वाला जो
है त्योहार
अगले महीने
एक बार
फिर से
पाँच साला

चहल पहल
होना शुरु
हो चुकी है
सभी
मयखानो में

आ चुके
हैं वापिस
सुबह
के भूले
लौट कर
शाम को
घर
कहीं दुबारा
कहीं तिबारा
शर्मा शर्मी
बेशर्मी को
त्याग कर

लग गये हैं
जश्न जीत
हार के
मनाने में

कुछ लाये
जा रहे हैं
उधर
से इधर
कुछ भगाये
जा रहे हैं
इधर से
उधर

कुछ
समझदार
हैं बहुत
समझ
चुके हैं
भलाई है
घर छोड़
कर पड़ोसी
के घर को
चले जाने में

तिकड़में
उठा पटक
की हो
रही हैं
अंदर
और बाहर
की बराबर

दिख नहीं
रही हैं
कहीं भी
मगर

मुर्गा
झपट के
उस्ताद
हैं मुर्गे
ही नहीं
मुर्गियाँ भी
अब तो

साथ साथ
आते हैं
दिखते हैंं
डाले हाथ
में हाथ
एक से
बड़कर
एक

माहिर हो
चुके हैं
चूना
लगाने में

करना है
अधिकार
को अपना
प्रयोग
हर हाल में

लगे हैं कुछ
अखबार
नबीस भी
पब्लिक
को बात
समझाने में

डाल
पर बैठा
देखता
रहेगा
“उलूक”
तमाशा
इस बार
का भी
हमेशा
की तरह

उसे
पता है
चूहा
रख कर
खोदा जायेगा
पहाड़ इस
बार भी

निकलेगा
भी वही
क्या
जाता है
एक शेर
निकलने
की बात
तब तक
हवा में
फैलाने में।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

क्यों तू लिखे हुऐ पर एक्सपायरी डाल कर नहीं जाता है


ऐसा कुछ भी नहीं है जो लिखा जाता है
आदत पड़ जाये किसी को तो क्या किया जाता है

बहुत दिन तक नहीं चलता है
लिखे हुऐ को किसी ने नहीं देखा कहीं
रेफ्रीजिरेटर में रखा जाता है

दुबारा पलट कर देखने वैसे भी तो कोई नहीं आता है
एक बार भी आ गया तब भी तो बहुत गजब हो जाता है

बिकने वाला सामान भी नहीं होता है
फिर भी पहले से ही मन बना लिया जाता है

एक्स्पायरी एक दिन की ही है
बताना भी 
जरूरी नहीं हो जाता है

दाल चावल बीन कर हर कोई खाना चाहता है
कुछ होते है जिन्हें बस कीड़ोँ को ही गिनने में मजा आता है

रास्ते में ही लिखता हुआ चलने वाला
मिट जाने के डर से भी लौट नहीं पाता है

शब्द फिर भी कुचला करते हैं
आसमान पढ़ते हुऐ चलने वाला भी
उसी रास्ते से आता जाता है

बड़ी बड़ी बातें समझने वाले और होते हैं
जिनके लिखने लिखाने का हल्ला
कुछ लिखने से बहुत पहले ही हो जाता है

"कदर उल्लू की उल्लू ही जानता है
चुगत हुमा को क्या खाक पहचानता है"

उलूक की महफिल में ऐसा ही एक शेर
किसी उल्लू के मुँह से ही यूँ ही नहीं फिसल जाता है ।

चित्र साभार: http://www.amzbolt.com/blog/Decoding-best-before-and-expiry-date-labels/index.aspx