उलूक टाइम्स: शीशे
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बुधवार, 28 अगस्त 2019

दिखाता नहीं है शक्ल के शीशे में कुछ मगर आईना आँखों का चमक रहा होता है



जो
लिखना
होता है

उसी को
छोड़ कर

कुछ कुछ
लिख रहा होता है 

नहीं
लिखा सारा

लिखे
लिखाये
के पीछे खड़ा
छुपा
दिख रहा होता है 

ना
सामान होता है
ना
दुकान होती है
मगर

थोड़ा रोज
बिक रहा होता है 

आदत
से मजबूर
बिकने की
बाजार में
बिना टाँगें भी
टिक रहा होता है 

नसीब
होता है
उस
पढ़ाने वाले का

अपने
पढ़ने वालों से
पिट रहा होता है 

उपद्रव मूल्य
होता है
दोनों का
जहाँ

उपद्रव
खुद ही
अपने से
निपट रहा होता है 

परम्परायें नयी
मूल्य नये
परिभाषायें नयी

नयी गीता
नयी रामायण में
सब कुछ नया
सिमट रहा होता है 

नये कृष्ण
नये राम
नये गाँधी
नये बलराम

सब
इक्ट्ठा किये
जा रहे होते हैं

एक
जगह पर
ला ला कर
फिर भी 

बेशरम
‘उलूक’

हमाम के
अन्दर
के
सनीमा में भी

कपड़ों
की
तस्वीरों
से

पता नहीं
किसलिये

चिपट
रहा होता है ?

चित्र साभार: 



गुरुवार, 16 अगस्त 2012

भ्रम एक शीशे का घर

हम जब
शरीर
नहीं होते हैं
बस मन
और
शब्द होते हैं

तब लगता है
शायद ज्यादा
सुन्दर और
शरीफ होते हैं

आमने सामने
होते हैं
जल्दी समझ
में आते हैं
सायबर की
दुनियाँ में
कितने
कितने भ्रम
हम फैलाते हैं

पर अपनी
आदत से हम
क्योंकी बाज
नहीं आते हैं
इसलिये अपने
पैतरों में
अपने आप ही
फंस जाते हैं

इशारों इशारो
में रामायण
गीता कुरान
बाइबिल
लोगों को
ला ला कर
दिखाते हैं

मुँह खोलने
की गलती
जिस दिन
कर जाते हैं
अपने
डी एन ऎ का
फिंगरप्रिंट
पब्लिक में
ला कर
बिखरा जाते हैं

भ्रम के टूटते
ही हम वो सब
समझ जाते हैं

जिसको समझने
के लिये रोज रोज
हम यहाँ आते हैं

ऎसा भी ही
नहीं है सब कुछ
भले लोग कुछ
बबूल के पेड़ भी
अपने लिये लगाते हैं

दूसरों को आम
की ढेरियों पर
लाकर लेकिन
सुलाते हैं

सौ बातों की
एक बात अंत में
समझ जाते हैं

आखिर हम
हैं तो वो ही
जो हम वहाँ हैं
वहाँ होंगे
कोई कैसे
कब तक बनेगा
बेवकूफ हमसे

यहाँ पर अगर
हम अपनी बातों
पर टाई
एक लगाते हैं
पर संस्कारों
की पैंट
पहनाना ही
भूल जाते हैं ।