कबीर जैसा कैसे बनूँ
कैसे कुछ ऎसा कहूँ
समझ में खुद के भी कुछ आ जाये
समझाना भी सरल सरल सा हो जाये
पहेलियाँ कहाँ किसी की
सहेलियाँ हुआ करती हैं
सहेलियाँ हुआ करती हैं
समझने के लिये दिमाग तो लगाना ही पड़ता है
जिसके पास जितना होता है
उतना ही बस खपाना पड़ता है
जिसके समझ में आ गई
जिंदगी को सुलझाता चला जाता है
उससे पहेली पूछने फिर
किसी को कहीं नहीं आना पड़ता है
उसका एक इशारा
अपने आप में पूरा संदेश हो जाता है
अपने आप में पूरा संदेश हो जाता है
उसे किसी को कुछ
ज्यादा में बताना भी नहीं पड़ता है
दूसरी तरफ ऎसा भी कहीं पाया जाता है
जिसको आस पास का बहुमत ही पागल बनाता है
जहाँ हर कोई
एक कबूतर को बस यूं ही देखता चला जाता है
पूछने पर एक नहीं हर एक
उसे कौवा एक बताना चाहता है
एक अच्छी भली आँखो वाले को
डाक्टर के पास जाना जरूरी हो जाता है
बस इन्ही बातों से कोई दीवाना सा हो जाता है
सीधे सीधे किसी बात को कहने में शरमाता है
कभी आदमी को गधा
कभी गधे को आदमी बनाना सीख जाता है
समझने वाला
समझ भी अगर जाता है
समझ में आ गया है करके
किसी को भी बताना नहीं चाहता है
अब आप ही बताइये
बहुमत छोड़ कर
कौन ऎसे पागल के साथ में आना जाना चाहता है ।