उलूक टाइम्स: कनिस्तर
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शनिवार, 7 नवंबर 2015

नहीं दिखा कुछ दिन कहाँ गया पता चला खुजलाने गया है

कब किस चीज
से कहाँ खुजली
मचना शुरु हो जाये
कौन जानता है
कौन किसे
जा कर बताये
कौन किसे
क्या समझाये
देखने से खुजली
छूने से खुजली
सुनने से खुजली

इन सब पचड़ों
को छोड़ो भी

कुछ दिनों से
कुछ अजीब सी
खुजली हो रही है

कुछ तार बेतार के
खुजली के खुजली से
भी तो जोड़ो जी


हो रही है तो हो रही है
खुजला रहे हैं बैठ कर
कहाँ हो रही है
क्यों हो रही है
सोचने समझने में
लग गये कलम ही
छूट गई हाथ से
क्यों छूटी कुछ सोचो
मनन करो हर बात
पर शेखचिल्ली का
चिल्ला तो मत फोड़ो जी

अंदाज आया पता चला
कुछ नहीं लौटा पाने
की खुजली है
अब भिखारी लौटाये
भी तो क्या
कुछ चिल्लर
और किसे
कौन लेगा और
लौटाया भी जाये
तो किसे लौटाया जाये

ध्यान सारा एक ही
जगह पर लगना
शुरु हो गया और
इसी में गजब हो गया
गजब क्या हुआ
बाबा रामदेव की
मैगी का भोग हो गया
मत समझ बैठियेगा
पर हुआ कुछ ऐसा ही
जैसे योग हो गया

पहले क्यों नहीं
आया होगा ये
लौटाने पलटाने
वाला खेल
अब देखिये जिसे भी
उसी ने बना ली है
अपनी पटरी और
ले जोर शोर से छाती
पीट पीट कर चलाना
शुरु कर चुका है
उसके ऊपर अपनी रेल

जो भी है अब तो
खुजलाने में बहुत
मजा आने लगा है
जिसे देखो वो कुछ
ना कुछ लौटाने
में लगा है

‘उलूक’ तू वैसे भी
हमेशा उल्टे बाँस
बरेली जाने के जुगाड़
में लगा ही रहता है
लगा रह मजे से
खुजलाने में
साथ में बजाता
भी चल एक कनिस्तर
गाता हुआ कुछ गीत
ऐसा महसूस करें तेरी
उस खुजली को सभी
जिसे खुजलाते खुजलाते
तुझे भी खुजली खुजली
खेलने में अब बहुत
ज्यादा मजा आने लगा है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

सोमवार, 11 अगस्त 2014

किसलिये कोई लिखने लिखाने की दवा का बाजार चुनता है

कौन है जो
नहीं लिखता है
बस उसका लिखा
कुछ अलग सा
इसका लिखा कुछ
अलग सा ही
तो दिखता है
वैसे लिखने लिखाने
की बातें पढ़ा लिखा
ही करता है
वो गुलाब देख
कर लिखता है
जो रोज नहीं
खिलता है
बस कभी कभी
ही दिखता है
किसी का लिखा
पिटने पिटाने के
बाद खिलता है
एक दिन की
बात नहीं होती है
रोज का रोज पिटता है
सेना का सिपाही
नहीं बनता है
कायरों को वैसे भी
कोई नहीं चुनता है
लिखने लिखाने
का मौजू यहीं
और यहीं बनता है
हर फ्रंट पर उसका
सिपाही अपनी
बंदूक बुनता है
गोलियाँ भी
उसकी होती है
लिखने वाला बस
आवाज सुनता है
मार खाने से
पेट नहीं भरता है
मार खा खा कर
शब्द चुनता है
लिखने लिखाने
की बातों का कनिस्तर
बस मार खाने
से भरता है
उनके साये और
आसरे पर
 लिखने वाला
पुरुस्कार चुनता है
सब से हट कर
लिखने का खामियाजा
तिरस्कार चुनता है
एक ही नहीं
सारे के सारे फ्रंट पर
पिट पिटा कर
‘उलूक’ कुछ
तार बुनता है
वहाँ भी नहीं
सुनता है कोई
यहाँ भी नहीं सुनता है
लिखना लिखाना
बहुत आसान होता है
बहुत आसानी से
लिखता है कोई
कुछ भी कभी भी
जो डरते डरते
हुऐ हर जगह
की हार चुनता है
बिना बेतों की
मार चुनता है
लेखक डरता है
डरपोक होता है
लड़ता तो है पर
कलम चुनता है
बस तलवार देख
कर आँखें ही
तो बंद करता है ।

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

संडे है आज तुझे कर तो रहा हूँ याद

इस पर लिखा उस पर लिखा
ताज्जुब की बात 
तुझ पर कभी कुछ नहीं लिखा

कोई बात नहीं
आज जो कुछ देख कर आया हूँ
उसे अभी तक 
यहाँ लिख कर नहीं बताया हूँ

ऎसा करता हूँ
आज कुछ भी नहीं बताता हूँ
सीधे सीधे
तुझ पर ही कुछ
लिखना शुरू हो जाता हूँ

इस पर या उस पर लिखा
वैसे भी किसी को
समझ में कब कहाँ आता है
काम सब
अपनी जगह पर होता चला जाता है

इतने बडे़ देश में 
बडे़ बडे़ लोग 
कुछ ना कुछ करते जा रहे हैं
अन्ना जैसे लोग
भीड़ इकट्ठा कर गाना सुना रहे हैं

अपने कनिस्तर को
आज मैं नहीं बजा रहा हूँ

छोड़
चल आज तुझ पर ही 
बस कुछ कहने जा रहा हूँ
अब ना कहना 
तुम्हें भूलता ही जा रहा हूँ ।