उलूक टाइम्स: उस्ताद
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रविवार, 31 मई 2020

मदारी मान लिया हमने तू ही भगवान है बाकी कहानियों के किरदार हैं और हम तेरे बस तेरे ही जमूरे हैं


बहुत से हैं
पूरे हैं

दिख रहे हैं
साफ साफ
कि हैं

फिर
किसलिये
ढूँढ रहा है
जो
अधूरे हैं

क्षय होना
और
सड़ जाने में
धरती आसमान
का अन्तर है

उसे
क्या सोचना

जिसने
जमीन
खोद कर
ढूँढने ही बस

मिट चुकी
हवेलियों के
कँगूरे हैं 

समझ में
आता है
घरेलू
जानवर का
मिट्टी में लोटना
मालिक की रोटी
के लिये

उसके
दिल में भी हैं
कई सारे बुलबुले
बनते फूटते
चाहे आधे अधूरे हैं

 सम्मोहित होना
किसने कह दिया
बुरा होता है

अजब गजब है
नखलिस्तान है
टूट जाने के
बाद भी
सपने

उस्ताद
के लिये
तैयार
मर मिटने के लिये
जमूरे हैं

मर जायेंगे
मिट जायेंगे
हो सकेगा तो
कई कई को
साथ भी
ले कर के जायेंगे

जमीर
अपना
कुछ हो
क्या जरूरी है

जोकर पे
दिलो जाँ
निछावर
करने के बाद

किस ने देखना
और
सोचना है

मुखौटे के पीछे

किस बन्दर
और
किस लंगूर के

लाल काले
चेहरे
कुछ सुनहरे हैं

‘उलूक’
किसलिये
लिखना
लिखने वालों
के बीच
कुछ ऐसा

जब
पहनाने  वाले

उतारने 
वालों से
बहुत ही कम है

सब 

हमाम में हैं
भूल जाते हैं

उनके चेहरे
उनके नकाब
और
उनके
आईने तक

हर किसी के पास हैं

नये हैं
अभी खरीदें हैं

और
जानते हैं

कुछ छोले हैं
और
कुछ भटूरे हैं।

https://steemit.com/

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

एक साल बेमिसाल और फिर बिना जले बिना सुलगे धुआँ हो गया


मुँह में दबी सिगरेट से 
जैसे झड़ती रही राख पूरे पूरे दिन पूरी रात
फिर एक बार
और सारा सब कुछ हवा हो गया
एक साल और सामने सामने से
मुँह छिपाकर गुजरता हुआ जैसे धुआँ हो गया 
थोड़ी कुछ चिन्गारियाँ उठी कुछ लगी आग 
दीवाली हुयी
आँखों की पुतलियों में  तैरती बिजलियाँ सी दिखी 
खेला गया चटक गाढ़ा लाल रंग
बहता दिखा गली सड़कों में 
गोलियों पत्थरों से भरे गुलाल से 
उमड़ता जैसे फाग 
आदमी को आदमी से तोड़ता हुआ आदमी
आदमी के बीच का एक आदमी  उस्ताद
पता भी नहीं चला
आदमी आदमी के सर पर चढ़ता 
दबाता आदमी को जमीन में 
एक आदमी  आदमी का खुदा हो गया 
देखते देखते सामने सामने से ही
ये गया और वो गया 
सोचते सोचते
धीमे धीमे दिखाता अपनी चालें
कितनी तेजी के साथ देखो कैसे धुआँ हो गया
‘उलूक’ मौके ताड़ता
बहकने के कुछ रंगीन सपने
देखते देखते रात के अंधेरे अंधेरे
ना जाने कब खुद ही काला सफेद हो गया
पता भी नहीं चला कैसे
फिर से एक पुराना साल
नये साल के आते ना आते
बिना लगे आग बिना सुलगे ही
बस धुआँ और धुआँ हो गया ।


चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

शब्द

शब्द मीठे होते हैं
कानों से होते हुवे
दिल में उतरते है
शहद घोल घोल के

शब्द ही खंजर से
तीखे भी हो जाते हैं
ले आते हैं
ज्वार और भाटे

सभी के पास ही
तो रखे होते हैं
अपने अपने शब्द

हर कोई ढाल
नहीं पाता है
सांचों में अपने
शब्दों को हमेशा

कोई उस्ताद होता है
दूसरों के शब्दों से
अपने को बचाने में
बना लेता है एक
ढाल शब्दों की

एक ही शब्द
देता हैं जिंदगी
किसी को
वही सिखाता है
बंदगी किसी को

किसी के लिये
हो सकता है
कमाल एक शब्द
कोई बना ले जाता
है जाल एक शब्द

तूफान भी अगर
लाता है एक शब्द
तो मलहम भी तो
लगाता है कभी
एक शब्द ।