गुलामी थी सुना था लिखा है किताबों में
बहुत बार पढ़ा भी था आजादी मिली थी
देश आजाद हो गया था
कोई भी किसी का भी गुलाम नहीं रह गया था
ये भी बहुत बार बता दिया गया था
समझ में कुछ आया या नहीं
बस ये ही पता नहीं चला था
पर रट गया था
पंद्रह अगस्त दो अक्टूबर और
छब्बीस जनवरी की तारीखों को
हर साल के नये कलैण्डर में हमेशा
के लिये लाल कर दिया गया था
बचपन में दादा दादी ने
लड़कपन में माँ पिताजी ने
स्कूल में मास्टर जी ने
समझा और पढ़ा दिया था
कभी कपड़े में बंधा हुआ
एक स्कूल या दफ्तर के डंडे के ऊपर
खुलते खुलते फूल झड़ाता हुआ देखा था
समय के साथ शहर शहर गली गली
हाथों हाथ में होने का फैशन बन चला था
झंडा ऊंचा रहे हमारा
गीत की लहरों पर झूम झूम कर
बचपन पता नहीं कब से कब तक
कूदते फाँदते पतंग उड़ाते बीता था
जोश इतना था किस चीज का था
आज तक भी पता ही नहीं किया गया था
पहले समझ थी
या अब जाकर समझना शुरु हो गया था
ना दादा दादी ना माँ पिताजी
ना उस जमाने के मास्टर मास्टरनी
में से ही कोई एक जिंदा बचा था
अपने साथ था अपना दिमाग
शायद समय के साथ
उस में ही कुछ गोबर गोबर सा हो गया था
आजादी पाने वाला
हर एक गुलाम समय के साथ कहीं खो गया था
जिसने नहीं देखी सुनी थी गुलामी कहीं भी
वो तो पैदा होने से ही आजाद हो गया था
बस झंडा लहराना
उसके लिये साल के एक दिन जरूरी
या शायद मजबूरी एक हो गया था
कुछ भी कर ले कोई कहीं भी कैसे भी
कहना सुनना कुछ किसी से भी नहीं रह गया था
देश भी आजाद देशवासी भी आजाद
आजाद होने का ऐसे में क्या मतलब रह गया था
किसी को तो पता होता ही होगा
जब एक 'उलूक' तक अपने कोटर में
तिरंगा लपेटे “जय हिंद” बड़बड़ाते हुऐ
गणतंत्र दिवस के स्वागत में सोता सोता सा रह गया था ।