अंंधेरे का खौफ बढ़ गया इतना
रात को दिन बना रहा आदमी।
दिये का चलन खत्म हो चला समझो
बल्ब को सूरज बना रहा आदमी।
आदमीयत तो मर गयी ऎ आदमी
रोबोट को आदमी बना रहा आदमी।
रोना आँखों की सेहत है सुना था कभी
रोया इतना कि रोना भूल गया आदमी।
हंसने खेलने की याद भी कहाँ आती है उसे
सोने चाँदी के गेहूँ जो उगा रहा आदमी।
अब पतंगे कहाँ जला करते है यारो
दिये को खुद रोशनी दिखा रहा आदमी।
आदमी आदमी
हर तरफ आदमी
रहने भी दो
अब जब खुदा भी
खुद हो चला आदमी।
रात को दिन बना रहा आदमी।
दिये का चलन खत्म हो चला समझो
बल्ब को सूरज बना रहा आदमी।
आदमीयत तो मर गयी ऎ आदमी
रोबोट को आदमी बना रहा आदमी।
रोना आँखों की सेहत है सुना था कभी
रोया इतना कि रोना भूल गया आदमी।
हंसने खेलने की याद भी कहाँ आती है उसे
सोने चाँदी के गेहूँ जो उगा रहा आदमी।
अब पतंगे कहाँ जला करते है यारो
दिये को खुद रोशनी दिखा रहा आदमी।
आदमी आदमी
हर तरफ आदमी
रहने भी दो
अब जब खुदा भी
खुद हो चला आदमी।