उलूक टाइम्स: राज
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मंगलवार, 15 मार्च 2016

जमूरे सारे कुछ जमूरों को छोड़ कर मदारी के इशारे पर मदारी मदारी खेलने निकल कर चले

कुछ जमूरे मिलें
शागिर्दी के लिये

तमन्ना है जिंदगी
में एक बार
बस
एक ही बार

मदारी होने का
ज्यादा नहीं
एक ही मिले
मौका तो मिले

जमूरा बना रह
जाये कोई
ताजिंदगी
निकलते चलें
इधर से भी
और
उधर से भी

कब कौन
बन जाये
मदारी
सामने सामने
कैसे किस
तरीके से
कभी तो
ये राज
थोड़ा सा
ही सही
कुछ तो खुले

नहीं दिखा
एक भी
मदारी
सोचता
हुआ सा
भी कभी

उसका
कोई जमूरा
उसके बराबर
आ कर
खड़ा हो कर
उसके जैसा
ही नहीं
कभी भी कुछ
छोटा मोटा
सा भी
मदारी की
तरह का कहीं
गलती से भी
कभी कहीं
जा कर बने

मदारी हों
जमूरे हों
जमूरे मदारी
के ही हो
मदारी जमूरों
के ही हो
दोनो ही रहें

एक दूजे
के लिये
ही बने
होते हैं
दोनो ही रहें
दोनों ही बनें
एक दूसरे
के साथ
रह कर
चलायें
सरकस
कहीं का
भी हो

सरकस चलें
चलते रहें
बिना मदारी का
हो जाये ‘उलूक’
जैसा जमूरा
ना बन पाये
मदारी भी कभी

खबर
जब मिले

जमूरे कुछ
जमूरों को
छोड़ सारे
जमूरों के
साथ मिल
मदारी के लिये

एक बार
फिर
मिल जुल
कर सभी
कुछ सुना है
बहुत कुछ
करने को
हाथ में
लेकर हाथ
ये चले
और
वो चले ।

चित्र साभार: www.garylellis.org

रविवार, 28 दिसंबर 2014

फिसलते हुऐ पुराने साल का हाथ छोड़ा जाता नहीं है

शुरु के सालों में
होश ही नहीं था

बीच के सालों में
कभी पुराने साल
को जाते देख
अफसोस करते
और
नये साल को
आते देख
मदहोश होकर
होश खोते खोते
पता ही नहीं चला
कि
बहुत कुछ खो गया

रुपिये पैसे की
बात नहीं है
पर बहुत कुछ
से कुछ भी
नहीं होते होते
आदमी
दीवालिया हो गया

पता नहीं
समझ नहीं पाया
उस समय समझ थी
या
अब समझ खुद
नासमझ हो गई

साल के
बारहवें महीने
की अंतिम तारीख
आते समय
कुछ अजीब अजीब
सी सोच
सबकी होने लगी है
या
मेरे ही दिमाग
की हालत
कुछ ऐसी
या वैसी
हो गई है

पुराने साल
को हाथ से
फिसलते देख
अब रोना
नहीं आता है

नये साल के
आने की
कोई खुशी
नहीं होती है

हाथ में
आता हुआ
एक नया हाथ
जैसे पकड़ा
जाता नहीं है

पता होता है
तीन सौ
पैंसठ दिन
पीछे के
जाने ही थे
चले गये हैं

तीन सौ पैंसठ
आगे के आने है
आयेंगे ही शायद
आना शुरु हो गये हैं

खड़ा भी
रहना चाहो
बीच में
सालों के
बिना
इधर हुऐ
या बिना
उधर हुऐ ही
ऐसा किसी
से किया
जाता नहीं है

इक्तीस की रात
कही जा रही है
कई जमानों से
कत्ल की रात
यही राज तो
किसी के
समझ में
आता नहीं है
जिसके आ
जाता है
वो भी
समझाता नहीं है ।

चित्र साभार: community.prometheanplanet.com

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

गधा घोड़ा नहीं हो सकता कभी तो क्या गधा होने का ही फायदा उठा

 

लिखने लिखाने के राज 
किसी को कभी मत बता 
जब कुछ भी समझ में ना आये 
लिखना शुरु हो जा 

घोड़ों के अस्तबल में 
रहने में कोई बुराई नहीं होती 
जरा भी मत शरमा 

कोई खुद ही समझ ले तो समझ ले 
गधे होने की बात को
जितना भी छिपा सकता है छिपा 

कभी कान को ऊपर की ओर उठा 
कभी पूँछ को आगे पीछे घुमा 
चाबुकों की फटकारों को 
वहाँ सुनने से परहेज ना कर 
यहाँ आकर आवाज की नकल की 
जितनी भी फोटो कापी चाहे बना 

घोड़े जिन रास्तों से कभी नहीं जाते 
उन रास्तों पर अपने ठिकाने बना 
घोड़ो की बात पूरी नहीं तो आधी ही बता 

जितना कुछ भी लिख सकता है लिखता चला जा 
उन्हें कौन सा पढ़ना है कुछ भी यहाँ आकर 
इस बात का फायदा उठा 

सब कुछ लिख भी गया
तब भी कहीं कुछ नहीं है कहीं होना 
घोड़ों को लेखनी की लंगड़ी लगा 
बौद्धिक अत्याचार के बदले का इसी को हथियार बना 

घोड़ों की दौड़ को बस किनारे से देखता चला जा 

बस समझने की थोड़ा कोशिश कर 
फिर सारा हाल लिख लिख कर यहाँ आ कर सुना 

वहाँ भी
कुछ नहीं होना है तेरा 
यहाँ भी
कुछ नहीं है होना 
गधा होने का सुकून मना 

घोड़ों के अस्तबल का
हाल लिख लिख कर दुनियाँ को सुना

गधा होने की बात
अपने मन ही मन में चाहे गुनगुना।

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

जैसा करेगा वैसा भरेगा, जब नहीं रहेगा तब क्या करेगा?

क्यों
अपने लिये

ओखली
खुद ही
बनाता है

अपना सिर
फिर उसके
अंदर डाल
के आता है

सारे
फिट लोगों
के बीच

अपने को
मिसफिट
जानते बूझते
क्यों बनाता है

जब
देखता है

बिना
रीढ़ की
हड्डियों का
चल रहा है राज

तू
अपनी जबान
की रेल पर

रोक
क्यों नहीं
लगाता है

हर
नया राजा

इस
कलियुग में
पहले वाले राजा से
ताकतवर ही
भेजा जाता है

पहले वाले
राजा के
किये गये
गड्ढों को

जब
वो भी नहीं
पाट पाता है

कोशिश
करता है

गड्ढे को
और
बड़ा
बनाता है


फिर
तेरा स्कूल

एक दिन

पूरा

उसके अंदर

कोई
ना कोई

जरूर घुसा
ले जाता है

फिर
तुझ बेवकूफ

को पता नहीं
क्या हो जाता है

क्यों
थोड़ी
मिट्टी
लेकर
गड्ढे को
पाटने
चला जाता है


समय रहते

किसी

नटवर लाल को

तू भी

गुरू

क्यों नहीं
बनाता है


 माना कि
वेतन तू

अपना खा
ही नहीं पाता है

पर जमाना
ऊपर के 
पैसे
वाले को ही

इज्जत दे पाता है

इस
छोटी सी

बात को
तू क्यों
नहीं
समझ पाता है


देखता नहीं है


तेरे
स्कूल में

तेरे को
क्यों
कोई
मुँह नहीं

कहीं लगाता है

तेरी
सबकी
पैंट में
छेद
दिखाने की

खराब आदत से

हर कोई
परेशान

नजर आता है

किसी को
देखता
है
प्रतिकार

करते हुऎ कभी

जब राजा
उल्टी
बाँसुरी
बजाता है


तरस आता है

चिंता भी होती है
तेरी आदतों पर
मुझको कई बार

ऊपर वाले की

तरफ मेरा हाथ
तेरे लिये ऎसे में
उठ जाता है

क्यों
वो तेरे को

गाँधी के
तीन
बंदरों जैसा
नहीं
बना ले जाता है

जहाँ
निनानवे

लोगों को
कोई
मतलब
नहीं
कुछ
रह जाता है


तू
सौंवा क्यों

अपने को
ऎसे
माहौल में
उखड़वाता है ।

रविवार, 13 सितंबर 2009

सत्ता


बरसोंं
के 
कौओं
के 
राज से
उकताकर

कबूतरोंं 
ने
सत्ता 
सम्भाली

और

अब
वे भी

बहुत
अच्छा

कांव कांव
करने लगे हैं।