मेरे मन
के
ग्लेशियर
से
निकलने
वाली गंगा
तेरे प्रदूषण
को
घटते बढ़ते
हर पल
हर क्षण
महसूस किया
है मैंने
भोगा है
तेरे गंगाजल
के
काले भूरे
होते हुवे
रंग को
विकराल
होते हुवे
तेरी शांत
लहरों को
बदलते हुवे
सड़ांध में
तेरी
भीनी भीनी
खुश्बू को
और ऎसे
में अब
मेरी
सांस्कृ्तिक
धरोहर
मैं खुद
ही चाहूंगा
ये
ग्लेशियर
खुद बा खुद
सूख जाये
ताकि मेरे
मन से
बहने वाली
पवित्र गंगे
तू मैली
ना कहलाये ।
आदमी
क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर
जीना
सिर्फ
अमन चैन
सुख की
हरियाली
में सोना
ढूंढता है
कड़वे स्वाद
में मिठास
और
दुर्गंध में
सुगंध
हाँ
ये आदमी
की ही
तो है
चाहत
उसे भूलने
से मिलती
है राहत
फिर भी
पीढ़ा दुख
का अहसास
एक स्वप्न
नहीं
सुख की
ही है
छाया
और
छाया कभी
पीछा नहीं
छोड़ती
सिर्फ अँधेरे
से है
मुंह मोड़ती
आदमी
अंधेरा भी
नहीं चाहता
करता है
सुबह का
इंतजार
अंधेरा
मिटाने को
रात का
इंतजार
छाया
भगाने को
और
ऎसे ही
निकलते
हैं दिन बरस
फिर भी
न जाने
आदमी
क्यों
चाहता है
अपनी ही
शर्तों पर
जीना ।
आदमी
घूमता है
तारा बन
अपने ही
बनाये
सौर मण्डल
में
घूमते घूमते
भूल
जाता है
कि
घूमना
है उसे
अपने ही
सूरज के
चारों ओर
जिंदगी के
हर हिस्से
के सूरज
नज़र आते
हैंं उसे
अलग अलग
घूमते घूमते
भूल
जाता है
चक्कर लगाना
और
लगने लगता
है उसे
वो नहीं
खुद सूरज
घूम
रहा है
उसके
ही
चारों
ओर ।