उलूक टाइम्स

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

क्या धोया ना कपड़ा रहा ना साबुन रहा सब कुछ पानी पानी हो गया

अब क्या कहूँ
कहने के लिये
कुछ भी नहीं
कहीं रह गया
कुछ मैला तो
नहीं हो गया
सोचने सोचने
तक बिना साबुन
बिना पानी के
हवा हवा में
ही धो दिया
धोना बुरी
बात नहीं पर
इतना भी
क्या धोना
पता चला
कपड़ा ही
धोते धोते
कहीं खो गया
साबुन गल
गया पूरा
बुलबुलों भरा
झाग ही झाग
बस दोनों ही
हाथों में रह गया
हे राम
तू निकला
गाँधी के मुँह से
उनकी अंतिम
यात्रा के पहले
उसके बाद
आज निकल
रहा है एक नहीं
कई कई मुँहों से
एक साथ
हे राम
ये क्या हो गया
भक्तों की पूजा
अर्चना करना
क्या सब
मिट्टी मिट्टी
हो गया
आदमी मेरे
गाँव का लगा
आज तेरे से
ज्यादा ही
पावरफुल
हो गया
अब क्या कहूँ
किससे कहूँ
रोना आ रहा है
धोने के लिये
बाकी कहीं भी
कुछ नहीं रह गया ।

चित्र साभार: www.4to40.com

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

बुलाया होगा तुझे पहली बार यहाँ शतरंज की बिसात को ही पलटा गया

पहली बार आया
और चला गया
जाने के बाद
पता चला
जिसने बुलाया
उसे ही चूना
लगा गया
ऐसा भी क्या
आना हुआ
गणित पढा‌ने
वाले को ही
हिसाब समझा गया
यहाँ आया चुपचाप
अंदर ही अंदर
मुस्कुरा गया
वापिस जाने के बाद
अपनी हंसी को
खुल कर अखबार
में छपवा गया
दे कर कुछ
भी नहीं गया
सपने के कारखाने
के मालिक को ही
सपने दिखा गया
यहीं कह जाता
सब कहना सुनना
ये क्या बात हुई
घर वापस पहुँचने
के संदेशे के साथ
फटे कपड़ों के
टल्लों की बात
मुहल्ले मुहल्ले
में फैला गया
तेरे आने का
फायदा तो
बुलाने वाले के
हिस्से में आने
से पहले ही
हाथ से फिसल
कर चला गया
बहुत बुरी बात है
झाड़ने वाले को
शाबाशी देने
के बजाय
झाड़ू वाले की
पीठ थपथपा गया
तू तो बाजीगरी के
उस्तादों की नगरी
में आकर
हाथ की सफाई
उनको ही दिखा गया
गजब किया
मुँह के राम को
बगल में छुरी
होने का पक्का
भरोसा दिला गया
किसलिये आया
क्यों आया पूरी की पूरी
बाजी ही उल्टी करा गया
आज की रात
का कर फिर
तू भी इंतजार
कल पता चलेगा
किसको मजा आया
और किसको मजा
आते आते चला गया ।


चित्र साभार: www.dreamstime.com

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

कह दे कुछ भी कभी भी कहीं भी कुछ नहीं होता है

कुछ कहने
के लिये कुछ
करना जरूरी
नहीं होता है
कभी भी
कुछ भी
कहीं भी
कह लेना
एक मजबूरी
होता है
करने और
कहने या
कहने और
करने में
बस थोड़ा सा
अंतर होता है
कहने के बाद
करना जरूरी
नहीं होता है
खामियाजा
छोटा सा ही
बस रहने या
नहीं रहने
के जितना
ही होता है
एक बार
कह देने का
एक मौका
जरूर होता है
दूसरी बार
कहने का
मौका कोई
नहीं देता है
कहने के बाद
मिले मौके को
जो खो देता है
उसके पास
करने का मौका
अगली बार
नहीं होता है
जो दिख रहा
होता है वो ही
सही होता है
समझ ले जो
इसके साथ
इस बार होता है
उसी जैसा कुछ
अगली बार
उसके साथ
होता है
जो कहा है उसे
खुद ही समझ ले
अच्छी तरह
समझने के लिये
अलग से समय
नहीं होता है
कई बार हो
और बार बार हो
उससे पहले
कहे हुऐ
एक बार को
एक ही बार
याद क्यों नहीं
कर लेता है
सपने देखना
सभी चाहते हैं
सपने दिखाने
वाला एक बार
के बाद एक
सपना खुद का
खुद के लिये
हो लेता है
लोकतंत्र का
मंत्र खाली
किताबों में
लिखा नहीं
होता है
पढ़ने के साथ
स्वाहा भी
कहना होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं

मत पूछ लेना
कि क्या हुआ है
अरे कुछ भी
नहीं हुआ है
जो होना है वो तो
अभी बचा हुआ है
हो रहा है बस
थोड़ा धीरे धीरे
हो रहा है
इस सब के
बावजूद भी कहीं
एक बेवकूफी
भरा सवाल
मालूम है
तेरे सिर में
कहीं उठ रहा है
अब प्रश्न उठते ही हैं
साँप के फन की तरह
पर सभी प्रश्न
 जहरीले नहीं होते हैं
हाँ कुछ प्रश्नों के
सिर और पैर
नहीं होते हैं
और कुछ के नाखून
नहीं होते हैं
खून निकला नहीं
करता है जब
प्रश्न ही प्रश्न को
खरोंच रहे होते हैं
वैसे ज्यादातर प्रश्नों
के उत्तर पहले से ही
कहीं ना कहीं
किताबों में लिखे होते हैं
और बहुत ज्यादा
पढ़ाकू टाईप के लोग
एक ना एक किताब
कहीं अपनी किसी
चोर जेब में लिये
घूम रहे होते हैं
बहुत भरोसे से
कह रहे होते हैं
प्रश्न और उत्तर
उनके भरोसे से ही
किताबों के किसी
पन्ने में रह रहे होते हैं
हँसी आ ही जाती है
कभी हल्की सी
बेवकूफी भरी
किसी किनारे से मुँह के
जब कभी किसी समय
हड़बड़ी में पढ़ाकू लोग
अपनी अपनी किताब
निकालने से परहेज
कर रहे होते हैं
प्रश्न कुछ आवारा से
इधर से उधर और
उधर से इधर
उनके सामने से ही
जब गुजर रहे होते हैं
समझने वाले
समझ रहे होते हैं
नासमझ कुछ
इस सब के बाद भी
प्रश्न कुछ नये तैयार
करने के लिये
अपनी अपनी किताब के
पन्ने पलट रहे होते हैं ।

चित्र साभार:
backreaction.blogspot.com  

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

कुछ देर के लिये झूठ ही सही लग रहा है वो सुन रहा है

सुना है

उसने
फतवा दिया है

और इसने
नहीं लिया है

ऐसा
क्यों किया है

बस
यही नहीं
कह रहा है

इसके
फतवे को
ना लेने से

उसका
रक्तचाप
बढ़ रहा है

उसने
बताया
नहीं है

लेकिन
चेहरे पर
दिख रहा है

राजनीति
कर रहा है

और
धर्म को
अनदेखा
कर रहा है

ये
कौन सा
नया पैंतरा है

ना
ये कह रहा है
ना
वो कह रहा है

कुछ
तो है
हवा में
जो ताजा है
और नया है

पुराने
बासी का
चेहरा
उतर रहा है

बस
थोड़ा सा
इंतजार
करने का
अपना ही
मजा है

होने
वाला है
जरूर
कुछ नया है

खुशी
की बात
बस इतनी है
साफ लग रहा है

जैसे
आदमी अब
अपने घर
लौट रहा है

चोला
फट रहा है
सारा दिख रहा है

बहुत
हो गई
आतिशबाजी
धुआँ हट रहा है

धुँधला
ही सही
कुछ कुछ कहीं

कहीं से
आसमान
दिख रहा है

‘उलूक’

नशा
करना अच्छा है

बहुत बुरा
तब है

जब
बताये
कोई
कि
उतर रहा है ।

चित्र साभार: www.firstpost.com