उलूक टाइम्स: किताब
किताब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
किताब लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

‘उलूक’ अच्छा है रात के अँधेरे में देखना दिन में रोशनी को पीटने से

 

सारी खिडकियों पर परदे खींच लेना
और देख लेना
कहीं किसी झिर्री से
घुसने की कोशिश ना कर रही हो रोशनी

फिर इत्मीनान से बैठ कर
उजाले पर एक कविता लिखना

लिखना
बंद कर के किताबें सारी
कोई एक किताब

जिसके सारे पन्नो पर लिखा हो हिसाब
हिसाब ऐसा नहीं
जिसे समझना हो किसी को
हिसाब ऐसा ना हो
जिससे पता चल रहा हो
खर्च किये गए रुपिये पैसे
या हिसाब
किसी रेजगारी को नोटों में बदलने का

वो सब लिख देना
जिसे किसी ने कहीं भी
नजरअंदाज कर देना हो पढ़ लेने से

साथ में लिखना 
कुछ प्रश्न खुद से पूछे गए
जिसका उत्तर पता नहीं हो किसी को भी

ऐसी सभी बातें 
नोट कर लेना किसी नोट बुक में
और जमा करते चले जाना

सूरज पर लिखना चाँद पर लिखना
तारों और गुलाब पर लिखना
नशे पर लिखना शराब पर लिखना

खबरदार
वो कुछ भी कहीं मत लिखना
जो हो रहा हो तेरे आसपास
तेरे घर में तेरे पड़ोस में
तेरे शहर में तेरे जिले में तेरे प्रदेश में
और तेरे बहुत बड़े से
रोज का रोज और बड़े हो रहे देश में

रोज लिखना 
लाल गुलाब हरे पेड़ सुनहरे सपने
या
कुछ गुलाबजामुन
या
कुछ भी ऐसा
जो भटका सके लिखने को
लेखकों को 
और छापने वालों को
उस सब पर
जो लिखा हुआ हो इधर उधर किधर किधर
गली गली शहर शहर

‘उलूक’ रातें अच्छी होती हैं
और वो आँखें भी
जो रात के अन्धेरें में
कोशिश करती है देखने की रोशनी
उन सब से
जो दिन के उजाले में रोशनी पीटते हैं |

चित्र साभार:  https://www.gettyimages.in/


रविवार, 21 जनवरी 2024

कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी

शीशे के घर में बैठ कर
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
खुद में लगी आग
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी

बेफ़िक्र लिखता है
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
अपनी फटी आंते और खून से सनी सोच
खोदनी भी क्यों है कभी

हर जर्रा सुकूं है
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
सब कुछ ला कर बिखेर दे सड़क में
गली के उठा कर हिजाब सभी

पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
क़यामत है आज का कवि 

कौन अपनी लिखे बिवाइयां
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
सारी दुनियां के फटे में टांग अड़ा कर
और फाड़ बने एक कहानी अभी

‘उलूक’ तूने करनी है बस बकवास
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी 

नबी = ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

और कर भी क्या सकता है वो जो है हड्डी में कबाब

 

सुना है फिर जा रहा है
एक दो दिन में एक पुराना हो चुका एक नया साल
सोच में बैठा है  हो ना पाया आबाद

साल पैदा होते हैं यूं ही बूढ़े हो लेने के लिए
बस कुछ दो चार दिन में ही
या कहें कि हो लेते हैं खुद ही बरबाद

खबर ये भी है
कि आ भी रहा है इक नया साल
पुराने की जगह लेने के लिए
और है बहुत ही बेताब

आदमी है कि
आदमी होने की सोचता ही रह जाता है
और साल निकल लेता है किनारे से
बस यूं ही चुपचाप

कोई कह रहा है
कि और भी बहुत कुछ अच्छा होगा इस साल
हो चुके सारे अच्छे के बाद

इतना अच्छा हो चुका है इस साल  
शायद कुछ बचा भी हो
सोच में बैठा है पर लगा एक सुरखाब

सपने बोना कई
सींचना सपनों को और उगाना पेड़ सपनों का
फिर खाना तोड़ कर सपने बेहिसाब

सीख लेना अच्छा है
सिखा कर जा रहा है कम से कम
सपना हो लेने से बचने की पढ़ाकर
कोई अपनी किताब

कितना कुछ लपेटा है
लपेटने वाले ने साल भर जी भर के
सच में जादूगरी है कि कमाल है
अभी तो और बहुत कुछ देखना है जनाब

‘उलूक’ फिर से खिसियायेगा
फिर से नोचेगा खम्बे कई आने वाले साल में यूं ही
और कर भी क्या सकता है वो
जो है हड्डी में कबाब


चित्र साभार: 

मंगलवार, 14 जून 2022

फिर से एक आधी बकवास पूरे महीने के आधे में ही सही कुछ तो खाँस

 




शर्म एक शब्द ही तो है
मतलब उसका भी है कुछ तब भी

और आधा सच होने मे कोई शर्म नहीं होनी चाहिये
होती भी नहीं है

पूर्णता किसे मिलती है?
 हाँ फख्र दिखता है आधे सच का
जिस पर मिलती हैं शाबाशियाँ
और पीटी जाती हैं तालियाँ

पूरा सच सिक्के के एक तरफ होता भी कहां है
हेड या टैल
दोनो और आधा आधा सच
सिक्का खड़ा भी हो जाये
तब भी दिखेगा एक तरफ का आधा सच ही

और आधे सच का खिलाड़ी
सबसे गजब का खिलाड़ी जो कभी गोल नहीं करता है
क्यों की गोल होने से खेल का परिणाम सामने से होता है
और खेल विराम लेता है

पूर्णता के साथ फिलम खतम करना कोई नहीं चाहता है
आधे भरे गिलास में भरी शराब पानी का करती इंतजार
सबसे बड़ा सपना होता है एक शराबी के लिये
शराबी को नशा होता है वो भी आधा
सुबह होती है यानि कि आधा दिन
और सपना टूट जाता है

जो हम करते हैं
उसे छोड़ कर सब कह देना
लेकिन कभी पूरा नहीं बस आधा आधा छोड़ देना
क्योंकि आधा ही पूर्ण है
पूर्ण मे‌ खुल जाता पूरा झोल है

‘उलूक’ बखिया उधेड़ लेकिन पूरी नहीं
पूरी उधड़ने से खिसक सकती है ढकी हुई झूठ कि पुतली
इसलिये आधा देख आधा फेँक आधा सेक
और मौज में काट ले जिंदगी

वैसे भी कौन सा मरना भी पूरा होता है
कहते हैं फिर जनम होता है
बाकी आधे का हिसाब किताब देने के लिये।


चित्र साभार: https://clipart.me/

शनिवार, 18 जुलाई 2020

जमाने को पागल बनाओ


दूर कहीं आसमान में
 उड़ती चील दिखाओ 

कुछ हवा की बातें करो
कुछ बादलों की चाल बताओ

कुछ पुराने सिक्के घर के
मिट्टी के तेल से साफ कर चमकाओ

कुछ फूल कुछ पौंधे
कुछ पेंड़ के संग खींची गयी फोटो
जंगल  हैंं बतलाओ

तुम तब तक ही लोगों के
समझ में आओगे
जब तक तुम्हारी बातें
तुम्हें खुद ही समझ में नहीं आयेंगी
ये अब तो समझ जाओ 

जिस दिन करोगे बातें
किताब में लिखी
और
सामने दिख रहे पहाड़ की

समझ लो कोई कहने लगेगा
आप के ही घर का

क्या फालतू में लगे हो
जरा पन्ने तो पलटाओ

कुछ रंगीन सा दिखाओ
कुछ संगीत तो सुनाओ

नहीं कर पा रहे हो अगर

एक कनिस्तर खींच कर
पत्थर से ही बजा कर टनटनाओ

जरूरी नहीं है
बात समझ में ही आये समझने वाली भी
पढ़ने सुनने वाले को
जन गण मन साथ में जरूर गुनगुनाओ

जरूरी नहीं है
उत्तर मिलेंं नक्कारखाने की दीवारों से
जरूरी प्रश्नों के
कुछ उत्तर कभी
अपने भी बना कर भीड़ में फैलाओ

लिखना कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
नजर रखा करो लिखे पर

कुछ नोट खर्च करो
किताब के कुछ पन्ने ही हो जाओ

‘उलूक’
चैन की बंसी बजानी है
अगर इस जमाने में

पागल हो गया है की खबर बनाओ
जमाने को पागल बनाओ।

चित्र साभार:
http://www.caipublishing.net/yeknod/introduction.html

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

रखना एक खास किताब का जिल्द और देना अपने होने ना होने का सबूत

उसके
पास है

एक किताब

वो

उस किताब
को
पढ़ता जैसा

नजर आता है

पढ़ा लिखा है
 बताना चाहता है

उसे
पसन्द नहीं हैं

पढ़े लिखे लोग

जो
उसकी

उस
किताब
की

बात 
करने की

कोशिश
भी
करते हैं

किताब
में

सुना है
सब कुछ
लिखा है

उसी
लिखे हुऐ से

कहा जाता है

बहुत कुछ

चलेगा या नहीं
का 

पता चलता है

ऐसा
कुछ कुछ
और 

किताबों में

उस
किताब 

के बारे में

लिखा हुआ
मिलता है

देखना
और
समझना
जरूरी है

अपने आसपास

जो कुछ
छोटा या बड़ा
होता है

मानकर

किताब में
लिखा होगा

उसके होने
या 

ना होने
के 

बारे में

संशय
उचित
नहीं होता है

कम से कम

उसकी
पढ़ी हुयी

किताब
को लेकर

जिसके
उसके पास
होने की खबर से

सारा जमाना

उसपर
नतमस्तक
होता है

उसी की सुनता है

उसी के
कहे को लेकर

बिना
फन्दे 

के
सपने 

तक
बुनता है

सुना है

जल्दी ही
उस किताब 

के
जिल्द की 


कापियाँ
बनायी जायेंगी

सारे
पढ़े लिखों
को
छोड़कर

निरक्षरों
में
बंटवा दी
जायेंगी

‘उलूक’
पढ़ना लिखना
छोड़ देना

और 

रखना

एक जिल्द
उस किताब 

का

खुद 
अपने पास भी

जरूरी
हो जायेगा

बहुत जल्दी

तेरे
होने ना होने
का

वही बस
एक
सफेद झूठ

यानि
सबसे बड़ा
सबूत।
चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

शब्द बच के निकल रहे होते हैं बगल से फैली हुयी स्याही के जब कोई दिल लगा कर लिखने के लिये कलम में स्याही भर रहा होता है




लिखा
हुआ भी
रेल गाड़ी
होता है

कहीं
पटरी पर
दौड़
रहा होता है

कहीं
बेपटरी हुआ
औंधा
गिरा होता है

लिखते लिखते
कितनी दूर
निकल
गया होता है

उसे
खुद पता
नहीं होता है

मगर
कलम
जानती है

बहुत
अच्छी तरह से
पहचानती
है

स्याही सूखे
इससे पहले
हमेशा
शब्दों को
अपने
हिसाब से
छानती है

लिखे हुऐ के
कौऐ भी
उड़ते हैं

उड़ते उड़ते
कबूतर
हो लेते हैं

क्या
फर्क पड़ता है
अगर

सफेद
के ऊपर
काला
लिखा होता है

कौन
देखता है

समय
के साथ
लिखा लिखाया
हरे से पीला
हो लेता है

किताबें
पुरानी
हो जाती हैं

लिखाई
से
आती महक

उसकी उम्र
बता जाती है

लिखा हुआ
अकेला
भी होता है

मौके बेमौके
स्टेशन से
रेल पहुँचने
के बाद
निकली भीड़ के
अनगिनत
सिर हो लेता है

शब्द
शब्दों के ऊपर
चढ़ने
शुरु हो जाते हैं

भगदड़
हो जाना
कोई
अजूबा
नहीं होता है

कई शब्द
शब्दों के
जूतों के नीचे
आ कर
कुचल जाते हैं

लाल खून
कहीं
नहीं होता है

ना ही
कहीं के
अखबार रेडियो
या
टी वी
चिल्लाते हैं

कोई
दंगा फसाद
जो क्या
हुआ होता है

सिरफिरे
‘उलूक’ का
रात का
काला चश्मा
सफेद
देख रहा होता है

लिखते लिखते
लिखना लिखाना

घिसी हुई
एक कलम से
फैला हुआ
कुछ रायता सा
हो रहा होता है

शब्द बच के
निकल रहे होते हैं
बगल से
फैली हुयी स्याही के

हर
निकलने वाला
थोड़ी दूर
पहुँच कर

घास
के ऊपर
अपना जूता

साफ
करने के लिये
घिस रहा होता है ।

http://hans.presto.tripod.com



शनिवार, 7 सितंबर 2019

सब का अलग व्यवहार है पर कोई बहुत समझदार है रेत में लिखने के फायदे समझाता है


भाटे के
 इन्तजार में
कई पहर
शांत
बैठ जाता है

पानी
उतरता है

तुरन्त
रेत पर
सब कुछ
बहुत साफ
लिख ले जाता है

फिर
ज्वार को
उकसाने के लिये

चाँद को
पूरी चाँदनी के साथ
आने के लिये
गुहार लगाता है

बोझ सारा
मन का
रेत में फैला हुआ

पानी चढ़ते ही

जैसे
उसमें घुल कर
अनन्त में फैल जाता है

ना कागज ही
परेशान किया जाता है

ना कलम को
बाध्य किया जाता है

किसे
पढ़नी होती हैं
रेत में लिखी इबारतें

बस
कुछ देर में
लिखने से लेकर
मिटने तक का सफर

यूँ ही
मंजिल पा के जैसे
सुकून के साथ
जलमग्न हो जाता है

ना किताबें
सम्भालने का झंझट

ना पन्ने
पलटने का आलस

बासी पुरानी
कई साल की

बीत चुकी
उलझनों की
परतों पर पड़ी
धूल झाड़ने के लिये

रोज
पीछे लौटने
की
कसरतों से भी
बचा जाता है

‘उलूक’
रेत में दबी
कहानियों को

और
पानी में बह गयी
कविताओं को

ना बाँचने कोई आता है
ना टाँकने कोई आता है

कल का लिखा
आज नहीं रहता है

आज
फिर से
कुछ लिख देने के लिये

रास्ता भी
साफ हो जाता है

जब कहीं
कुछ नहीं बचता है

शून्य में ताकता
समझने की
कोशिश करता

एक समझदार

समझ में
नहीं आया

नहीं
कह पाता है।

चित्र साभार: https://www.bigstockphoto.com

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

प्रश्न अच्छे हों लिखते चले जायें सौ हो जायें किताब एक छपायें



रात की
एक बात

और
सुबह के
दो
जज्बात 


पता नहीं
कौन

कहाँ से

कौन सी
कौड़ी
ढूँढ कर
कब
ले आये 


बस
पन्ने पर
चिपका हुआ

कुछ
नजर आये 

नजर
छ: बटा छ:
हो

जरूरी नहीं

कौड़ी 

कौआ
या
कबूतर
हो जाये 

असम्भव
भी नहीं

उड़ ही जाये 

जो भी है

कुछ देर
ठहर लें 

गीले
जज्बातों को
 सुखाने
के लिये

और
सूखों के

कुछ
नमीं
पी जाने के लिये

बात का
क्या है
निकलती है 

दूर तलक
जाये या ना जाये

या

फिर
लौट कर

अपनी जगह
पर
आ जाये

नियम
की किताब

पर
बने सौ आने

कोई
भी बनाये

खुद भी पढ़े
ढेर सारी बटें

बरगद की
लटों की तरह
फैलती
चली जायें

सबके पास
अपनी अपनी
कम से कम
एक
हो जायें

फिर
चाहे
नाक की
सीध पर

बिना
इधर उधर देखे

सामने
की ओर
कहीं
निकल जाये

बीच बीच
में
जाँच लिया जाये

किताब
रखी है पास
में

या
घर तो
नहीं भूल आये 

बात
का क्या है
लिख लिया जाये

अपनी
किताब में
अपना
हिसाब हो जाये

जज्बात
अपने आप
निकलेंं

कलम
से
निकल
कागज
पर
फैल जायेंं

प्रश्न
सूझने जरूरी हैं
बूझने भी

कभी

मन करे

पूछ्ने

निकल कर
खुले मैदान में
आ जायें

‘उलूक’
के
लिखे लिखाये
में

बात कोई
जज्बात
जैसी
नजर आ जाये

और
उसपर
अगर

समझ
में भी
आ जाये

गलती
हो गयी होगी

मान कर
भूल जायें

प्रश्न चिन्ह
ना लगायें।

चित्र साभार: https://airjordanenligen2015.com

शनिवार, 31 अगस्त 2019

ठीक नहीं ‘उलूक’ थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना



आभार पाठक
 'उलूक टाइम्स' पर जुलाई 2016 के अब तक के अधिकतम 217629 हिट्स को 
अगस्त 2019 के 220621 हिट्स ने पीछे छोड़ा 
पुन: आभार 
पाठक


सुना गया है
अब हर कोई एक खुली हुयी किताब है 

हर पन्ना जिसका
झक्क है सफेद है और साफ है 

सभी लिखते हैं
आज कुछ ना कुछ
बहुत बड़ी बात है 

कलम और कागज ही नहीं रहे बस
बाकी सब इफरात है 

कोई नहीं लिखता है कहीं
किसी भी अन्दर की बात को 

ढूँढने निकलता है
एक सूरज को मगर
वो भी किसी रात को 

सोचता है साथ में
सब दिन दोपहर में
कभी आ कर उसे पढ़ें

कुछ वाह करें
कुछ लाजवाब
कुछ टिप्पणी
कुछ स्वर्णिम गढ़ें

समझ में
सब के सब कुछ
बहुत अच्छी तरह से आता है 

जितने से
जिसका काम चलता है
उतना समझ गया होता है
उसे
ढोल नगाड़े साथ ला कर
खुल कर
जरूर बताता है 

जहाँ फंसती है जान
होता है
बहुत बड़ी जनसंख्या से जुड़ा
कोई उनवान
शरमाना दिखा कर
अपने ही किसी डर के खोल में
घुस जाता है 

किस अखबार को
कौन कितना पढ़ता है
सारे आँकड़े
सामने आ जाते हैं 

किस अखबार में
कैसे अपनी खबर कोई
हर हफ्ते छपवा ले जाता है
कैसे हो रहा है होता है
ऐसा कोई
पूछने ही नहीं जाता है 

कोई
नजर नहीं आता है का मतलब
नहीं होता है
कि
समझ में नहीं आता है 

उलूक के लिये
बस
एक राय 

लिखना लिखाना छपना छपाना कहीं भीड़ कहीं खालिस सा वीराना
‘उलूक’ ठीक नहीं थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

सच की जरूरत है भी नहीं वैसे भी वो अब कहीं भी दूर दूर तक नजर भी नहीं आता है


एक भी
नहीं
छिपता है
ना
मुँह छिपाता है

सामने से
आकर
गर्व के साथ
खड़ा
हो कर
मुस्कुराता है

मुखौटा
लगाने की
जरूरत भी
नहीं समझता है

पकड़ा
गया होता है
फिर भी
नहीं
घबराता है

सफेद
कागज के ऊपर
इफरात से
फैला हुआ
काला
बहुत कुछ

कितनी कितनी
कहानियाँ
बना बना कर

तालियाँ
बटोरता हुआ

इधर से उधर
यूँ ही
मौज में
आता है
और
चला जाता है

किसे
समझाये
और
कैसे
समझाये कोई
उस बात को

जिसे
एक
नासमझ

नहीं
समझने
के कारण ही
लिख लिखा कर यहाँ

जैसे
पूछने
चला आता है

किसी का
दोष नहीं है

सबको
अपनी अपनी
आँखों से
अपने आसपास
अपने अपने
हिसाब का ही
जब
साफ साफ
दिखायी
दे जाता है

और
उसी के पीछे
सारा
सब कुछ
उनके ही
हिसाब का
बेमतलब

धुँधला कर
धूँऐं के बादल
की तरह
उड़ उड़ा कर
उड़न छू
हो जाता है

रहने दे
‘उलूक’

तेरी
रोज की
बकबक से
उकता कर

देखता
क्यों नहीं है
ऐलेक्सा रैंक भी

शर्मा शर्मी से
ऊपर की ओर
उखड़ कर
चला जाता है

समझ में
नहीं आता है

जमाने के
हिसाब से
बहुसंख्यक

तू
क्यों नहीं
हो पाता है

शहर की
छोटी सी खबर

जोरों से
उड़ रही होती है

और
तू खार खाया
अपने ही बालों को

खुजला खुजला कर
नोच खाता है

चश्मा
लगा कर देख
और
सोच

भगवान शिव
आज ही
धन्य हो गये
यूँ ही

काफिले में
मंतरी और संतरी
के
पीछे पीछे
खिंची फोटुकों
के आगे

सोशियल मीडिया भी

जब
हर हर महादेव
कह कह कर

मान्यवरों
के गले में

मालायें

और
चरणों में
उनके

फूल
चढ़ाता है

इसी से
बात शुरु हुई थी

इसे
‘झूठ जी’
कहा जाता है

और
बस यही है
जो
बहुत आगे
पहुँच कर
चला आता है

 और
सच की
जरूरत

है भी
नहीं
वैसे भी

वो
अब
कहीं भी
दूर दूर तक

नजर 
भी 
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: wwyeshua.wordpress.com

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

गणित की किताब और रोज रोज का रोज पढ़ा रोज का लिखा हिसाब

यूँ ही
पूछ बैठा

गणित
समझते हो

जवाब मिला

नहीं

कभी
पढ़ नहीं पाया

हिसाब
समझते हो

जवाब मिला

वो भी नहीं

गणित में
कमजोर
रहा हमेशा

दिमाग ही
नहीं लगाया

मुझे भी
समझ में
कहाँ
आ पाया

गणित भी
और
हिसाब भी

खुद
गिनता रहा
जिन्दगी भर

बच्चों को
घर पर
सिखाता रहा

पढ़ाना
शुरु किया

वहाँ भी
पीछा नहीं
छुड़ा पाया
गणित से

गजब का
विषय है
गणित

गजब
गणित है
जीवन
का भी

दोनो
गणित हैं
दोनों में
समीकरण हैं

फिर भी
अलग हैं
दोनों

हर तरफ
गणित है

चलने में गणित
भागने में गणित
सोने में गणित
और
जागने में गणित

पर
मजे की बात है
किताब का गणित
बस किताब तक है

हिसाब
का गणित
दिमाग में है

मजबूत गणित

लिखा
नहीं है
कहीं भी
किसी
किताब में

कापी
कलम की
जरूरत ही
नहीं पड़ती है
जरा भी

पर
दिख जाता है

साफ साफ
हर जगह का
हर रंग का

नशे का गणित
बेहोशी का गणित
होश का गणित

पढ़ने का गणित
पढ़ाने का गणित
पढ़वाने का गणित
लिखने का गणित
लिखवाने का गणित

आने का
और
जाने का गणित

बताने का
सिखाने का
समझाने
का गणित

कितना
कितना गणित
कर लेता है आदमी

हर कदम पर
गणित
आगे जाने पर
गणित
पीछे आने का
गणित

इतना गणित
कि पागल
हो जाये किताबें
और
फेल हो जायें
सारे हिसाब

फिर भी
विषय नहीं
लिया होता है
आदमी ने

पढ़ी नहीं
होती है किताब

बस यूँ ही
कर ले जाता है
कितना सारा
बिना
समीकरणों के
समीकरण से
जोड़ता घटाता
समीकरण

फिर भी
जवाब मिलता है

नहीं
कभी पढ़
नहीं पाया
गणित में
कमजोर
रहा हमेशा

‘उलूक’
सुधर जा
अपने
खाली दिमाग
की हवा को
इस तरह
मत हिला

गरम हो
जायेगी तो

फट पड़ेगा

हर कोई
कहने लगेगा

गणित
पढ़ने लगा था

समझने लगा हूँ
समझने लगा था

हट के फितरत से
अपनी किया था

इसलिये फट गया था ।


चित्र साभार: https://drawception.com

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

एक पन्ने पर कुछ देर रुक कर अच्छा होता है आवारा हो लेना पूरी किताब लिखनी जरूरी है कहाँ लिखा होता है

दरवाजा
खोल कर
निकल लेना
बेमौसम
बिना सोचे समझे

सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं

मुड़ कर
पीछे की ओर
ना चाहते हुऐ भी

जरूरी
हो जाता है
कभी कभी

जब हावी
होने लगती
है सोच
आस पास की
उड़ती हवा की

यूँ ही
जबर्दस्ती
उड़ा ले जाने
के लिये
अपने साथ
लपेटते हुए
अपनी सोच
के एक
आकर्षक
खोल में

अपने अन्दर
के 'ना' को
नकारने में माहिर

बहुत सारे
साफ हाथों से
सुलेख में
'हाँ' लिखे हुऐ
पोस्टर बैनर
ली हुयी
भीड़ के बीच

'नहीं' को
बचा ले जाने
की कोशिशें
नाकाम होनी
ही होती हैं

अच्छा होता है
नजर हटा लेना
अपने अन्दर
जल रही
आग से
बने कोयले
और राख से
पारदर्शी आयने
हो चुके चेहरों से

और देख लेना
आरपार
सड़क पर खड़े एक
जीवित शरीर को
आत्मा समझ कर
दूर कहीं
हरे भरे पेड़ पौंधों
उड़ते हुऐ चील कौवों
या क्रिकेट खेलते हुऐ
खिलदंडों से भरे
मैदान से उड़ती
हुई धूल को

कविताओं के शोर में
दब गयी आवाज को
बुलन्द कर ले जाना
आसान नहीं होता है

चलती साँस को
कुछ देर रोक कर
धीरे से छोड़ने के लिये
इसीलिये कहा जाता
होगा शायद

खाली
सफेद पन्ने भी
पढ़े जा सकते हैं
लिखना छोड़ कर
किसी मौसम में
‘उलूक’

खुद ही पढ़ने
और
समझ लेने
के लिये
खुद लिखे गये
आवारा रास्तों
के निशान।

चित्र साभार: canstockphoto.com

रविवार, 4 सितंबर 2016

समय को मत समझाया कर किसी को एकदम उसी समय

ये तय है
जो भी
करेगा कोशिश
लिखने की
समय को
समय पर
देखते सुनते
समय के साथ
चलते हुए

समय से ही
मात खायेगा

लिखते ही हैं
लिखने वाले
समझाने के
लिये मायने
किसी और
की लिखी
हुई पुरानी
किताब में
किसी समय
उस समय के
उसके लिखे
लिखाये के

समझते हैं
करेंगे कोशिश
उलझने की
समय से
समय पर
ही आमने
सामने अगर
समय की
सच्चाइयों से
उसी समय की

समय के साथ
ही उलझ जाने
का डर
दिन की रोशनी
से भी उलझेगा
और
रात के सपनों
की उलझनों
को भी
उलझायेगा

अच्छा है बहुत
छोड़ देना
समय को
समझने
के लिये
समय के
साथ ही
एक लम्बे
समय के लिये

जितना पुराना
हो सकेगा समय
एक मायने के
अनेकों मायने
बनाने के नये
रास्ते बनाता
चला जायेगा

कोई नहीं
देखता है
सुनता है
समय की
आवाज को
समय के साथ
समय पर

ये मानकर

किसी का
देखा सुना
किसी को
बताया गया
किसी और
का लिखा
या किसी से
लिखवाया गया
बहुत आसान
होगा समझाना
बाद में कभी
समय लम्बा
एक बीत
जाने के बाद
उस समय
का समय
इस समय
लौट कर भी
नहीं आ पायेगा

कुछ का कुछ
या कुछ भी
कभी भी
किसी को भी
उस समय के
हिसाब से
समझा ही

दिया जायेगा ।

चित्र साभार: worldartsme.com

सोमवार, 1 जून 2015

बुद्धिजीवियों के शहर में चर्चा है किताबों की का कुछ शोर हो रहा है

भाई
बड़ा गजब
हो रहा है

कोई
कुछ भी
नहीं कह रहा है

फुसफुसा
कर कहा

बुद्धिजीवियों
से भरे एक
शहर के
एक बुद्धिजीवी ने

बगल में बैठे
दूसरे बुद्धिजीवी से
चिपकते चिपकते हुऐ
कान के पास
मुँह लगाते हुऐ

बहुत बुरा
सच में
बहुत बुरा
हो रहा है

बड़ा ही
गजब हो रहा है

मैं भी
देख रहा हूँ
कई साल से

यहाँ पर
बहुत कुछ
हो रहा है

समझ भी
नहीं पा रहा हूँ

कोई
कुछ भी
क्यों नहीं
कह रहा है

एक ने
सुनते ही
दूसरे का जवाब

जैसे ही
लगा उसे
उसका तीर
निशाने पर
लग रहा है

दुबारा
फुसफुसा
कर कहा

सुनो
सुना है
कल शहर में

कुछ
बाहर के शहर के
बुद्धिजीवियों का
कोई फड़ लग रहा है

किताबों
पर किसी
लिखने
लिखाने वाले
की कोई
चर्चा कर रहा है

फुसफुसाते
क्यों नहीं तुम
वहाँ जा कर

कि
यहाँ हो रहा है
और
गजब हो रहा है

कितनी
अजीब सी
बात है

देखिये तो जरा

हर कोई
एक दूसरे के
कान में
जा जा कर
फुस फुस
कर रहा है

कोई
किसी से
कुछ नहीं
कह रहा है

कुछ
आप ही कह दें

इस पर
जरा जोर
कुछ लगाकर

यहाँ तो
फुसफुसाहट
का ही बस
जोर हो रहा है ।

चित्र साभार: www.clipartreview.com

शुक्रवार, 22 मई 2015

समय समय के साथ किताबों के जिल्द बदलता रहा

गुरु
लोगों ने
कोशिश की

और
सिखाया भी

किताबों
में लिखा
हुआ काला

चौक से काले
श्यामपट पर

श्वेत चमकते
अक्षरों को
उकेरते हुऐ
धैर्य के साथ

कच्चा
दिमाग भी
उतारता चला गया

समय
के साथ
शब्द दर शब्द
चलचित्र की भांति

मन के
कोमल परदे पर
सभी कुछ

कुछ भरा
कुछ छलका
जैसे अमृत
क्षीरसागर में
लेता हुआ हिलोरें

देखता हुआ
विष्णु की
नागशैय्या पर
होले होले
डोलती काया

ये
शुरुआत थी

कालचक्र घूमा
और
सीखने वाला

खुद
गुरु हो चला

श्यामपट
बदल कर
श्वेत हो चले

अक्षर रंगीन
इंद्रधनुषी सतरंगी
हवा में तरंगों में
जैसे तैरते उतराते

तस्वीरों में बैठ
उड़ उड़ कर आते

समझाने
सिखाने का
सामान बदल गया

विष्णु
क्षीरसागर
अमृत
सब अपनी
जगह पर

सब
उसी तरह से रहा
कुछ कहीं नहीं गया

सीखने
वाला भी
पता नहीं
कितना कुछ
सीखता चला गया

उम्र गुजरी
समझ में
जो आना
शुरु हुआ

वो कहीं भी
कभी भी
किसी ने
नहीं कहा

‘उलूक’
खून चूसने
वाले कीड़े
की दोस्ती

दूध देने वाली
एक गाय के बीच

साथ  रहते रहते
एक ही बर्तन में

हरी घास खाने
खिलाने का सपना

सोच में पता नहीं
कब कहाँ
और
कैसे घुस गया

लफड़ा हो गया
सुलझने के बजाय
उलझता ही रहा

प्रात: स्कूल भी
उसी प्रकार खुला

स्कूल की घंटी
सुबह बजी

और
शाम को
छुट्टी के बाद

स्कूल बंद भी
रोज की भांति

उसी तरह से ही
आज के दिन
भी होता रहा ।

चित्र साभार: www.pinterest.com

शनिवार, 9 मई 2015

लिखने लिखाने वालों का लिखना लिखना तेरा लिखना लिखाना लिखने जैसा ही नहीं

लिखने
लिखाने
की बातें

वैसे

बहुत कम
की जाती हैं

कभी कभी

गलतियाँ भी
मगर हो
ही जाती हैं

बातों बातों में
पूछ बैठा कोई

कहीं लिखने
वाले से ही
लिखने लिखाने
के बावत यूँ ही

क्यों लिखते हो
कहाँ लिखते हो
क्या लिखते हो

ज्यादा कुछ नहीं
कुछ ही बताओ
मगर बताओ तो सही

हम तो बताते भी हैं
लिखते लिखाते भी हैं
छपते छपाते भी हैं

किताबों में कहीं
अखबारों में कहीं

तुम तो दिखते नहीं
लिखते हुऐ भी कहीं

पढ़े तो क्या पढ़े
कैसे पढ़े कुछ कोई

लिखने वाले
के लिये ऐसा नहीं
किसी ने पूछी हो
नई बात अब कोई

उसे मालूम है
वो भी
लिखता है कुछ

कुछ भी
कभी भी
कहीं भी

बस यूँ ही
लिखता है
जिनके
कामों को
जिनकी
बातों को

उनको करने
कराने से ही
फुरसत नहीं

पढ़ने आते हैं मगर
कुछ भटकते हुऐ

जो पढ़ते तो हैं
लिखे हुऐ को यहीं

पल्ले पढ़ता है कुछ
या कुछ भी नहीं

पढ़ने वाला ही तो
कुछ कहीं लिखता नहीं ।

चित्र साभार: fashions-cloud.com

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

लिख कोई भी किताब बिना इनाम बिना सम्मान की कभी भी जिसमें सभी पाठ हों बस तेरे सामने के हो रहे झूठों के


किसी दिन
शायद दिखे
बाजार में
गिनी चुनी
किताबों की
कुछ दुकानों में
एक ऐसी
किताब

जिसमें
दिये गये हों
वो सारे पाठ
जो होते तो हैं
 पर हम
पढ़ाते नहीं हैं
कहीं भी
कभी भी

प्रयोगशाला
में किये
जाने वाले
प्रयोग नहीं
हों जिसमें

होंं झूठ के साथ
किये गये प्रयोग
जो हम
सब करते हैं
रोज अपने लिये
या
अपनो के लिये
ग़ाँधी के सत्य के
साथ किये गये
प्रयोगों की तरह
रोज

किताबों
का होना
और
उसमें लिखी
इबारत का
एक
इबारत होना
देखता
आ रहा है
सदियों से
हर पढ़ने
और नहीं
पढ़ने वाला

लिखने
वाले की
कमजोर
कलम
उठती तो
है लिखने
के लिये
अपनी
बात को
जो उठती
है शूल
की तरह
कहीं उसके
ही अंदर से

पर लिखना
शुरु करने
करने तक
चुन लेती
है एक
अलग रास्ता
जिसमें
कहीं कोई
मोड़
नहीं होता

चल देता
है लेखक
कलम के
साथ स्याही
छोड़ते हुऐ
रास्ते रास्ते
अपनी
बात को
हमेशा
की तरह
ढक कर
पीछे छोड़
जाते हुऐ

जिसे देखने
का मौका
मुड़कर
एक जिंदगी
में तो नहीं
मिलता

फिर भी
हर कोई
लिखता है
एक किताब
जिसमें होते
हैं कुछ
जिंदगी के पाठ

जो बस
लिखे होते
हैं पन्नों में
उतारे जाते हैं
सुनाये जाते हैं
उसी पर प्रश्न
पूछे जाते हैं
उत्तर दिये
जाते हैं
और
जो हो रहा
होता है
सामने से
वो पाठ
कहीं किसी
किताब में
कभी
नहीं होता

क्या पता
किसी दिन
कोई
हिम्मत करे
नहीं हो
एक कायर

’उलूक’
की तरह का
और
लिख डाले
एक किताब
उन सारे
झूठों के
प्रयोगों की
जो हम
तुम और वो
कर रहे हैं रोज
सच को
चिढ़ाने
के लिये
गाँधी जी
की फोटो
चिपका कर
दीवार से
अपनी पीठ
के पीछे ।

चित्र साभार: galleryhip.com

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं

मत पूछ लेना
कि क्या हुआ है
अरे कुछ भी
नहीं हुआ है
जो होना है वो तो
अभी बचा हुआ है
हो रहा है बस
थोड़ा धीरे धीरे
हो रहा है
इस सब के
बावजूद भी कहीं
एक बेवकूफी
भरा सवाल
मालूम है
तेरे सिर में
कहीं उठ रहा है
अब प्रश्न उठते ही हैं
साँप के फन की तरह
पर सभी प्रश्न
 जहरीले नहीं होते हैं
हाँ कुछ प्रश्नों के
सिर और पैर
नहीं होते हैं
और कुछ के नाखून
नहीं होते हैं
खून निकला नहीं
करता है जब
प्रश्न ही प्रश्न को
खरोंच रहे होते हैं
वैसे ज्यादातर प्रश्नों
के उत्तर पहले से ही
कहीं ना कहीं
किताबों में लिखे होते हैं
और बहुत ज्यादा
पढ़ाकू टाईप के लोग
एक ना एक किताब
कहीं अपनी किसी
चोर जेब में लिये
घूम रहे होते हैं
बहुत भरोसे से
कह रहे होते हैं
प्रश्न और उत्तर
उनके भरोसे से ही
किताबों के किसी
पन्ने में रह रहे होते हैं
हँसी आ ही जाती है
कभी हल्की सी
बेवकूफी भरी
किसी किनारे से मुँह के
जब कभी किसी समय
हड़बड़ी में पढ़ाकू लोग
अपनी अपनी किताब
निकालने से परहेज
कर रहे होते हैं
प्रश्न कुछ आवारा से
इधर से उधर और
उधर से इधर
उनके सामने से ही
जब गुजर रहे होते हैं
समझने वाले
समझ रहे होते हैं
नासमझ कुछ
इस सब के बाद भी
प्रश्न कुछ नये तैयार
करने के लिये
अपनी अपनी किताब के
पन्ने पलट रहे होते हैं ।

चित्र साभार:
backreaction.blogspot.com  

रविवार, 28 सितंबर 2014

इसकी उसकी करने का आज यहाँ मौसम नहीं हो रहा है


किसी
छुट्टी के दिन 

सोचने की भी
छुट्टी कर लेने
की सोच लेने में
क्या बुरा हो रहा है 

सोच के
मौन हो जाने का
सपना देख लेने से 
किसी को कौन कहाँ रोक रहा है 

अपने
अंदर की बात 
अपने अंदर ही
दफन कर लेने से 
कफन की बचत भी हो जाती है 

दिल
अपनी जगह से
चेहरा अपनी जगह से 
अपने अपने हिसाब का 
हिसाब किताब
खुद ही अगर कर ले रहा है 

रोज ही
मर जाती हैं कई बातें सोच की
भगदड़ में दब दबा कर 

बच बचा कर
बाहर भी आ जाने से भी 
कौन सा उनके लिये
कहीं जलसा
स्वागत का कोई हो रहा है 

कई बार पढ़ दी गई 
किताबों के कपड़े
ढीले होना शुरु हो ही जाते हैं 

दिखता है
बिना पढ़े
सँभाल के रख दी गई 

एक किताब
का
एक एक पन्ना 

चिपके हुऐ एक दूसरे को
बहुत प्यार से छू रहा है 

जलने
क्यों नहीं देता
किसी दिन दिल को
कुछ देर के लिये यूँ ही ‘उलूक’ 

भरोसा रखकर
तो देख किसी दिन
राख
हमेशा नहीं बनती हर चीज 

सोचने में क्या जाता है
जलता हुआ दिल है
और पानी
बहुत जोर से कहीं से चू रहा है 

सोचने की छुट्टी
किसी एक छुट्टी के दिन 
सोच लेने से

कौन सा क्या 
इसका उसका कहीं हो रहा है । 

चित्र साभार: http://www.gograph.com