उलूक टाइम्स

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

‘उलूक’ की फटी म्यान और जंग खायी हुई तलवार


चाँद तारे आसमान 
सूरज पेड़ पौंधे भगवान
जानवर पालतू और आवारा
सब के अपने अपने काम

बस आदमी एक बेचारा 
अपने काम तो अपने काम
ऊपर से देखने की आदत
दूसरे की बहती नाक और जुखाम

कुछ के भाव कम कुछ के भाव ज्यादा
कुछ अकेले अकेले कुछ बाँट लेंगे आधा आधा 
कुछ मौज में खुद ही बने हुऐ मर्जी से प्यादा

कुछ बिसात से बाहर भी बिना काम
किस का फायदा किसका नुकसान

अपनी अपनी किस्मत अपना अपना भाग्य
किताबें पढ़ पढ़ कर भी चढ़े माथे पर दुर्भाग्य

इसकी बात उसकी समझ उसकी बात उलट पलट

‘उलूक’की आँखें ‘उलूक’की समझ
‘उलूक’की खबर ‘उलूक’का अखबार
रहने दे छोड़ भी दे पढ़ना भी अब यार
कुछ बेतार कुछ बेकार ।

चित्र साभार: openclipart.org

सोमवार, 20 जुलाई 2015

अब क्या बताये क्या समझायें भाई जी आधी से ज्यादा बातें हम खुद भी नहीं समझ पाते हैं

कोई नयी
बात नहीं है
पिछले साल
पिछले के
पिछले साल

और
उससे पहले के
सालो साल
से हो रही
कुछ बातों पर

कोई प्रश्न अगर
नहीं भी उठते हैं

उठने भी
किस लिये हैं

परम्पराऐं
इसी तरह
से शुरु होती हैं
और
होते होते
त्योहार
हो जाती हैं

मनाना
जरूरी भी
होता है
मनाया भी
जाता है
बताया भी
जाता है
खबर भी
बनाई जाती है
अखबार में
भी आती है

बस कुछ
मनाने वाले
इस बार
नहीं मनाते हैं
उनकी जगह
कुछ नये
मनाने वाले
आ जाते हैं

त्योहार मनाना
किस को
अच्छा नहीं
लगता है

पर
परम्परा
शुरु कर
परम्परा को
त्योहार
बनने तक
पहुचाने वाले
कहीं भी
मैदान में
नजर नहीं
आते हैं

अब
‘उलूक’
की आखों से
दिखाई देने
वाले दिवास्वप्न
कविता
नहीं होते हैं

समझ में
आते हैं
तो बस
उनको ही
आ पाते हैं

जो मैदान
के किसी
कोने में
बैठे बैठे
त्योहार
मनाने वालों
की मिठाईयों
फल फूल
आदि के लिये
धनराशि
उपलब्ध
कराने हेतु
अपने से
थोड़ा ऊपर
की ओर
आशा भरी
नजरों से
अपने अपने
दामन
फैलाते हैं

किसी की
समझ में
आये या
ना आये
कहने वाले
कहते ही हैं

रोज कहते हैं
रोज ही
कहने आते हैं
कहते हैं
और
चले जाते हैं

तालियाँ
बजने बजाने
की ना
उम्मीद होती है
ढोल नगाड़ों
और नारों
के शोर में
वैसे भी
तालियाँ
 बजाने वाले
कानों में
थोड़ी सी
गुदगुदी ही
कर पाते हैं ।

चित्र साभार: wallpoper.com

रविवार, 19 जुलाई 2015

हाशिये भी बुरे नहीं होते हैं अगर खुद ही खींचे गये होते हैं

हाशिये खुद ही बनें
खुद के लिये खुद ही
समझ में आ जायें
खुद चला चले कोई
मानकर कुछ
निशानों को हाशिये
और फिर खुद ही
खींच ले लक्ष्मण रेखा
हाशिये के पार
निकल लेने के बाद
सोच कर कि भस्म
वैसे भी कोई नहीं होता
रावण तक जब
नहीं हो सका
हाशियों में धकेलने
के मौके की तलाश में
रहने वालों के लिये
हाशिये माने भी
नहीं रखते हैं
एक जैसे ही रेंगते हुऐ
समझ में आने वाले
समझ लेते हैं रेंगना
एक दूसरे का बहुत
ही आसानी से
बहुत जल्दी और
आनन फानन में
खींच देते हैं एक
काल्पनिक हाशिया
सीधा खड़ा होने की
कोशिश में लगे
हुऐ के लिये और
जब तक समझ पाये
जमीन की हकीकत
खड़े होने की कोशिश
में धकियाये हुआ
हाशिये के पार से
देखता हुआ नजर
आता है खुद को ही
लक्ष्मण भी नहीं
होता है कहीं
रेखाऐं भी दिखती
नहीं हैं बस
महसूस होती हैं
क्या बुरा है ऐसे में
सीख लेना ‘उलूक’
पहले से ही खुद ही
चल कर खड़े हो लेना
हाशिये के पार
खुद खींच कर
खुद के लिये
एक हाशिया।

चित्र साभार: www.slideshare.net

शनिवार, 18 जुलाई 2015

खिंचते नहीं भी हों इशारे खींचने के लिये खींचने जरूरी होते हैं

थोड़े कुछ
गिने चुने
रोज के वही
उसी तरह के
जैसे होते हैं
खाने पीने
के शौकीन
जैसे कहीं किसी
खाने पीने की
जगह ही होते हैं
यहाँ ना ढाबा
ना रोटियों पराठों
का ना दाल मखानी
ना मिली जुली सब्जी
कुछ कच्ची कुछ
पकी पकाई बातें
सोच की अपनी
अपनी किसी की
किताबें कापियाँ
कलम पेंसिल
दवात स्याही
काली हरी लाल
में से कुछ कुछ
थोड़े बहुत
मिलते जुलते
जरूर होते हैं
उम्र के हर पड़ाव
के रंग उनके
इंद्रधनुष में
सात ही नहीं
हमेशा किसी के
कम किसी के
ज्यादा भी होते हैं
दर्द सहते भी हैं
मीठे कभी कभी
नमकीन कभी तीखे
दवा लिखने वाले
सभी तो नहीं होते हैं
बहुत कुछ टपकता है
दिमाग से दिल से
छलकते भी हैं
सबके हिसाब से
सभी के शराब के
जाम हों जरूरी
नहीं होते हैं
कहना अलग
लिखना अलग
पढ़ना अलग
सब कुछ छोड़ कर
कुछ के लिये
किसी के कुछ
इशारे बहुत होते हैं
कुछ आदतन
खींचते हैं फिर
सींचते हैं बातों को
‘उलूक’ की तरह
बेबात के पता
होते हुऐ भी
बातों के पेड़ और
पौंधे नहीं होत हैं ।

चित्र साभार: all-free-download.com

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

मर जाना किसे समझ में आता नहीं है

मर जाने
का मतलब
मरने मरने तक
कैसे समझ में
आ सकता है

मरने का
मतलब
कोई
बिना मरे
कैसे बता
सकता है

मर जाना
भी तो
कई तरह
का होता है

कोई
मरता भी है
और
उसे पता भी
नहीं होता है

सापेक्ष मरना
निरपेक्ष मरना
जिंदा मरना
मरा हुआ मरना

बहुत सारे भ्रम
हो ही जाते हैं
मरने मारने
पर आने
के मायने
वैसे भी अलग
हो ही जाते हैं

सच का मरना
झूठ का मरना
अलग अलग
बात हो जाती हैं

जिंदा मर जाना
मरा हुआ सा
नजर आना
अलग ही बात
हो जाती है

बे‌ईमान के लिये
एक ईमानदार
मर जाता है

ईमानदार मरे हुऐ
की लाश उठाता है

मरना भी अजीब है

मर जाने के बाद
कोई कैसे बताये
समझ में आता है
या नहीं आता है

सब मरते हैं
मरने से पहले भी

कभी
कहीं थोड़ा
कहीं
कभी ज्यादा

मरने
की बात
कोई भी
मरने वाला
किसी भी
जिंदा
आदमी को
मगर कभी भी
नहीं बताता  है । 

चित्र साभार: www.clker.com