उलूक टाइम्स: परम्पराऐं
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सोमवार, 20 जुलाई 2015

अब क्या बताये क्या समझायें भाई जी आधी से ज्यादा बातें हम खुद भी नहीं समझ पाते हैं

कोई नयी
बात नहीं है
पिछले साल
पिछले के
पिछले साल

और
उससे पहले के
सालो साल
से हो रही
कुछ बातों पर

कोई प्रश्न अगर
नहीं भी उठते हैं

उठने भी
किस लिये हैं

परम्पराऐं
इसी तरह
से शुरु होती हैं
और
होते होते
त्योहार
हो जाती हैं

मनाना
जरूरी भी
होता है
मनाया भी
जाता है
बताया भी
जाता है
खबर भी
बनाई जाती है
अखबार में
भी आती है

बस कुछ
मनाने वाले
इस बार
नहीं मनाते हैं
उनकी जगह
कुछ नये
मनाने वाले
आ जाते हैं

त्योहार मनाना
किस को
अच्छा नहीं
लगता है

पर
परम्परा
शुरु कर
परम्परा को
त्योहार
बनने तक
पहुचाने वाले
कहीं भी
मैदान में
नजर नहीं
आते हैं

अब
‘उलूक’
की आखों से
दिखाई देने
वाले दिवास्वप्न
कविता
नहीं होते हैं

समझ में
आते हैं
तो बस
उनको ही
आ पाते हैं

जो मैदान
के किसी
कोने में
बैठे बैठे
त्योहार
मनाने वालों
की मिठाईयों
फल फूल
आदि के लिये
धनराशि
उपलब्ध
कराने हेतु
अपने से
थोड़ा ऊपर
की ओर
आशा भरी
नजरों से
अपने अपने
दामन
फैलाते हैं

किसी की
समझ में
आये या
ना आये
कहने वाले
कहते ही हैं

रोज कहते हैं
रोज ही
कहने आते हैं
कहते हैं
और
चले जाते हैं

तालियाँ
बजने बजाने
की ना
उम्मीद होती है
ढोल नगाड़ों
और नारों
के शोर में
वैसे भी
तालियाँ
 बजाने वाले
कानों में
थोड़ी सी
गुदगुदी ही
कर पाते हैं ।

चित्र साभार: wallpoper.com