उलूक टाइम्स

बुधवार, 9 नवंबर 2016

जन्म दिन राज्य का मना भी या नहीं भी सोलह का फिर भी होते होते हो ही गया है

पन्द्रह
पच्चीसी
का राजकुवँर

आज
सौलहवीं
पादान पर
आ कर
खड़ा
हो गया है

पैदा
होने से
लेकर जवानी
की दहलीज पर
पहुँचते पहुँचते

क्या
हुआ है
क्या
नहीं हुआ है

बड़े
घर से
अलग होकर

छोटे
घर के
चूल्हे में
क्या क्या
पका है
क्या कच्चा
रह गया है

जंगल हरे
भस्म हुऐ हैं
ऊपर कहीं
ऊँचाइयों के

धुआँ
आकाश में
ही तो फैला
है दूर तक

खुद को
खुद ही
आइने में
इस धुंध के

ढूँढना
मुश्किल
भी हो गया है

तो क्या
हो गया है

बारिश
हुई भी है
एक मुद्दत के बाद

तकते तकते
बादलों को लेकिन

राख से
लिपट कर
पानी नदी
नालौं का
खारा हो गया है

तो
कौन सा
रोना हो गया है

विपदा
आपदा में
बचपन से
जवानी तक

खेलता कूदता
दबता निकलता

पहाड़ों
की मिट्टी
नदी नालों में

लाशों को
नीलाम
करता करता

बहुत ही
मजबूत
हो गया है


ये बहुत है

खाली
मुट्ठी में
किसी को

सब कुछ
होने का
अहसास
इतनी जल्दी
हो गया है

कपड़े
जन्मदिन के
उपहार में
मिले उससे

उतारे
भी उसने

किससे
क्या कुछ
कहने को
अब रह गया है

उसकी
छोड़ कर गुलामी
बदनसीबी की

अब
इसके
गुलाम हो लेने
का मौसम
भी हो गया है

जन्मदिन
होते ही हैं
हर साल
सालों साल

हर
किसी के
‘उलूक’

इस
बार भी
होना था
हुआ है

क्या गया
क्या मिला

पुराना
इक हिसाब
अगले साल
तक के लिये

पुराने
इस साल
के साथ
ही आज
फिर से
दफन
हो गया है ।

चित्र साभार: Revolutionary GIS - WordPress.com

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ प्रश्नों की जवाब हो जाये कोई कुछ पूछ भी ना पाये

छोटे छोटे
अपने आस
पास के
उलझे प्रश्नों
से उलझते
उलझते
हमेशा
उलझ जाने
वाले को
सुलझने
सुलझाने
के सपने
देख लेने
की आदत
डाल लेनी
ही चाहिये

बड़े देश
के बड़े
प्रश्नों को
उठाने
वालों को
थोड़ी सी
ही सही
शरम तो
आनी ही
चाहिये

अच्छा होता है
प्रेस काँफ्रेंस
के उत्तरों को
सुन कर
मनन कर
कंठस्थ
कर लेना
या
उठा लेना
जवाब
कहीं किसी
किताब
अखबार
या रद्दी की
टोकरी से
और
फिर शुरु
कर देना
खोलना
दुकान पर
दुकान
जवाबों की
इस गली
से लेकर
उस गली तक

प्रश्न उठे
कहीं से भी
उसके उठने
से पहले
दाग देना
ढेर सारे
जवाब

इतने जवाब
की दब दबा
कर मर ही
जायेंं सारे
प्रश्न घुट
घुट कर

मर जाने
के बाद भी
सुनिश्चित
कर लिया
जाये
ठोक कर
दो चार
और
जवाब
ऊपर से
ताकि
एन्काउंटर
पूरा हो जाये

फिर भी
बच जाये
जो बेशरम
प्रश्न इतना
सब होने
के बाद भी

उसे जवाबों
से घेर कर
इतना बेइज्जत
कर दिया जाये
कि कर ले जाये
कहीं भी जा
कर आत्महत्या
इस तरह कि
मरते मरते
खुद ही एक
जवाब हो जाये

प्रश्न की मौत
का मातम ही
जवाबों का
जश्न हो जाये

‘उलूक’
भूल से
भी ना
कह पाये
नहीं आया
समझ में
जवाब

जो सुने
जैसा सुने
जिधर से
सुने बस
ऊपर से
नीचे और
नीचे से
ऊपर की
तरफ हाँ
हाँ की
गरदन
हिलाये
बिना
पलकें
झपकाये ।

चित्र साभार: CartoonStock

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

डेमोक्रेसी को समझ इंदिरा सोच भी मत पटेल के होते हुए


मत करना श्राद्ध उसका
जिसकी सोच में भी दिखे
तुमको वो उनका

इनका ये दिख रहा है
तो तर्पण कर लेना दे देना जल

देशभक्ति मन में होने से कुछ नहीं होता है
दिखानी पड़ती है 
उसकी फोटो लगाकर सामने से
पूजा अर्चना का थाल सजाये हुऐ
अपने को साथ में दिखाकर

हटाना  जरूरी होता है
हर एक के दिमाग से इतिहास
खुद को स्थापित करने के लिये
येन केन प्रकारेण

चोरों और जेबकतरों का इतिहास
कोई नहीं लिखता है
इतिहास पढ़ने पढ़ाने वाले
चोर 
और उठाईगीर हों ये जरूरी नहीं
पर उनके साथ चलते हुऐ
इतिहास 
लिखने में कोई बुराई नहीं होती है

इतिहासकार जानते हैं

‘उलूक’
तुम जो भी पढ़ लिख कर यहाँ तक पहुँच गये हो
उस पर केरोसिन डाल कर आग लगा दो
जरूरी है अब किसी भी सरकार के आने के  बाद 
पुरानी सरकार की बात करना सोचना कहना
देशद्रोह माना जायेगा ।

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

अंगरेजी में अनुवाद कर समझ में आ जायें फितूर ‘उलूक’ के ऐसा भी नहीं होता है

महसूस
करना
मौसम की
नजाकत
और
समय
के साथ
बदलती
उसकी
नफासत
सबके लिये
एक ही
सिक्के
का एक
पहलू हो
जरूरी
नहीं है

मिजाज
की तासीर
गर्म
और ठंडी
जगह की
गहराई
और
ऊँचाई
से भी
नहीं नापी
जाती है

आदमी की
फितरत
कभी भी
अकेली
नहीं होती है
बहुत कुछ
होता है
सामंजस्य
बिठाने
के लिये

खाँचे सोच
में लिये
हुऐ लोग
बदलना
जानते है
लम्बाई
चौड़ाई
और
गोलाई
सोच की

लचीलापन
एक गुण
होता है जिसे
सकारात्मक
माना जाता है

एक
सकारात्मक
भीड़ के लिये
जरूरत भी
यही होती है
और
पैमाना भी

भीड़ हमेशा
खाँचों में
ढली होती है

खाँचे सोच
में होते हैं
सोच का
कोई खाँचा
नहीं होता है

‘उलूक’
नाकारा सा
लगा रहता है
सोच की
पूँछ पर
प्लास्टर
लगाने
और
उखाड़ने में

हर बार
खाँचा
कुत्ते की
पूँछ सा
मुड़ा हुआ
ही
होता है

दीवारों पर
कोयले से
खींची गई
लकीरों का
अंगरेजी में
अनुवाद भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: Shutterstock

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

NAAC ‘A’ की नाक के नीचे की नाव छात्रसंघ चुनाव

किसी
बेवकूफ
ने सभी
पदों पर
नोटा पर
निशान
लगाया था

तुरन्त
होशियार
के
होशियारों
ने उसपर
प्रश्नचिन्ह
लगाया था

सोये हुऐ
प्रशासन
की नींद
जारी
रही थी
काम
निपटाये
जा रहे थे

लिंगदोह
कुछ देर
के लिये
अखबार
में दिखा था
और
प्रशासन
की फूँक
भी खबर
के साथ
हवा में
उड़ती हुई
थोड़ी देर
के लिये
चेतावनियाँ
लिये
उड़ी थी

अखबार में
खबर किसने
चलाई थी
और क्यों ये
अलग प्रश्न था
अलग बात थी

गुण्डाराज
के गुण्डों
पर किसे
कुछ
कहना था
और
किस की
औकात थी

पर पिछले
दो महीने
के ताण्डवों
से परेशान
कुछ दूर
दराज के
गावों से
शहर में
आकर पढ़
रहे इन्सान
सुखाते
जा रहे
कुछ जान
कुछ बेजान
कुछ परेशान
किसी ने
नहीं देखे थे

दिखते
भी कैसे
नशे में
चूर भीड़
बौराई
हुई थी
और
प्रशासन
शाशन के
आशीर्वादों
से
लबालब
जैसे
मिट्टी नई
किसी
खेत की
भुरभुराई
हुई थी

जो
भी था
चुनाव
होना था
हुआ
मतपत्र
गिने
जाने थे
किसी ना
किसी ने
गिनना था

एक मत पत्र
बीच में
अकेला दिखा
जिसमें हर
पद पर नोटा
था दिया गया

किसी ना
किसी
ने कुछ
तो कहना
ही था

बेवकूफ
वोट देने
ही क्यों
आया था
सारे पदों
पर
नोटा पर
मुहर लगा
अपनी
बेवकूफी
बता कर
आखिर
उसने क्या
पाया था

‘उलूक’
मन ही मन
मुस्कुराया था
हजारों में
एक ही
सही पर
था कहीं
जो अपने
गुस्से का
इजहार
कर
पाया था
असली
मतदान
कर उस
अकेले
ने सारे
निकाय
को आईना
एक
दिखाया था ।

चित्र साभार: Canstockphoto.com