सारी किताबें खुली हुई हैं
स्वयं बताएं खुद अपना पन्ने को पन्ने
शक्कर देख रही कहीं दूर से
लड़ते सूखे सारे गन्नों से गन्ने
सच है सारा पसर गया है
झूठ बेचारा यतीम हो गया है
बता गया है बगल गली का
एक लंबा लंबा सा नन्हे
चश्मा लाठी धोती पीटे सर अपना ही
एक चलन हो गया है
बुड्ढा सैंतालिस से पहले का एक
आज बदचलन हो गया है
बन्दर सारे ही सब खोल कर बैठे हैं
अपना सारा ही सब कुछ
आँख नहीं है कान नहीं है
मुंह पर भी अब कपड़ा भींचे सारे बन्ने
आँखे दो दो ही सबकी आँखें
कौआ ना अब वो कबूतर हो गया है
मत लिख मत कह अपनी कुछ
उससे पूछ जो तर बतर हो गया है
ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर
आज वो एक नश्वर हो गया है
नश्वर है ईश्वर ईश्वर है नश्वर ‘उलूक’
कर कोशिश लग ले ईश्वर कुछ जनने
चित्र साभार: https://pngtree.com/
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 01 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंवाह! हर बार की तरह एक और लाजवाब रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना 🙏
जवाब देंहटाएंकमाल की प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआँखे दो दो ही सबकी आँखें
जवाब देंहटाएंकौआ ना अब वो कबूतर हो गया है
-सच अब नहीं देखना है : उम्दा भावाभिव्यक्ति