उलूक टाइम्स: लाठी
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रविवार, 31 मार्च 2024

ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर आज वो एक नश्वर हो गया है


सारी किताबें खुली हुई हैं
स्वयं बताएं खुद अपना पन्ने को पन्ने
शक्कर देख रही कहीं दूर से
लड़ते सूखे सारे गन्नों से गन्ने

सच है सारा पसर गया है
झूठ बेचारा यतीम हो गया है
बता गया है बगल गली का
एक लंबा लंबा सा नन्हे

चश्मा लाठी धोती पीटे सर अपना ही
एक चलन हो गया है
बुड्ढा सैंतालिस से पहले का एक
आज बदचलन हो गया है

बन्दर सारे ही सब खोल कर बैठे हैं
अपना सारा ही सब कुछ
आँख नहीं है कान नहीं है
मुंह पर भी अब कपड़ा भींचे सारे बन्ने

आँखे दो दो ही सबकी आँखें
कौआ ना अब वो कबूतर हो गया है
मत लिख मत कह अपनी कुछ
उससे पूछ जो तर बतर हो गया है

ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर
आज वो एक नश्वर हो गया है
नश्वर है ईश्वर ईश्वर है नश्वर ‘उलूक’
कर कोशिश लग ले ईश्वर कुछ जनने


चित्र साभार: https://pngtree.com/


 

रविवार, 3 दिसंबर 2017

कभी कुछ भैंस पर लिख कभी कुछ लाठी पर भी

कभी सम्भाल
भी लिया कर
फुरसतें

जरूरी नहीं है
लिखना ही
शुरु हो जाना

खाली पन्नों को
खुरच कर इतना
भी कुरेदना
ठीक नहीं

महसूस नहीं
होता क्या
बहुत हो गया
लिखना छोड़
कभी कुछ कर
भी लिया जाये

पन्ने के
ऊपर पन्ना
पन्ने के
नीचे पन्ना
आगे पन्ना
पीछे पन्ना
कोई नहीं
पूछने वाला
कितने
कितने पन्ने

गन्ने के खेत में
कभी गिने हैं
खड़े होकर गन्ने

नहीं गिने
हैं ना
कोई नहीं
गिनता है

गन्ने की
ढेरियाँ होती हैं
उसमें से गुड़
निकलता है

पन्ने गिन
या ना गिन
ढेरियाँ पन्नों की
लग कर गन्ने
नहीं हो
जाने वाले हैं

कुछ भी
नहीं निकलने
वाला पन्नों से
निचोड़ कर भी

किताब जरूर
बना ले जाते हैं
किताबी लोग

किताबों से
दुकान बनती है

इस दुकान से
उस दुकान
किताबों के
ऊपर किताब
किताबों के
नीचे किताब
इधर किताब
उधर किताब
हो जाती हैं

किताबों की
खरीद फरोख्त
की हिसाब
की किताब
कई जगह
पायी जाती है

रोज की
कूड़ेदान से
निकाल धो
पोंछ कर
परोसी गयी
खबरों से
इतिहास नहीं
बनता है बेवकूफ

समझता
क्यों नहीं है
इतिहास
भैंस हो
चुका है
लाठी लिये
हाँकने भी
लगे हैं लोग

अभी भी वक्त है
सुधर जा ‘उलूक’

कुछ भैंस
पर लिख
कुछ लाठी पर
और कुछ
हाकने वालों
पर भी

आने वाले
समय के
इतिहास के
प्रश्न पत्र
उत्तर लिखे हुऐ
सामने से आयेंगे

परीक्षा देने वाले
से कहा जायेगा
दिये गये उत्तरों
के प्रश्न बनाइये
और अपने
घर को जाइये।

चित्र साभार: www.spectator.co.uk

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

सत्य पर प्रयोग जारी है बंद कमरों में किया जा रहा है

सत्य क्या है बापू
जो तूने समझाया वो
या जो लोग आज
समझा रहे हैं
सत्य कहने की
कोशिश करने वाले
पर बौखला कर
कभी आँख तो कभी
दाँत भींच कर
अपने दिखला रहे हैं
मीठा होना चाहिये
सभी कुछ
बता बता कर
हर कड़वी चीज को
मिट्टी के नीचे
दबाते जा रहे हैं
पर सत्य भी
बेशरम जैसा
बाज नहीं आ रहा है
पौलीथीन की नहीं
गलने वाली थैलियों
जैसा हो जा रहा है
जरा सा पानी
गिरा नहीं
मिट्टी के ऊपर
थैली का एक
छोटा कोना
निकल कर
बाहर आ
जा रहा है
तालियाँ पहले
बजवा कर
मदारी बंदर को
नचवा रहा है
जमूरा जम्हाई
ले रहा है
सो भी नहीं
पा रहा है
तमाशा करने
की आदत है
तमाशबीन को
कल तक सड़क पर
किया करता था
आज पेड़ की फुन्गी
के ऊपर बैठा
कठफोड़वा बना
नजर आ रहा है
अब बन ही गया तो
फिर अपना लकड़ी में
छेद कर कीड़े निकाल
कर खाने की कला
क्यों नहीं दिखा रहा है
बापू रोना सत्य को
बस इसी बात पर
ही तो आ रहा है
जो काम करने को
दिया जा रहा है
उसी से ध्यान हटाने
के लिये आज हर कोई
कोई दूसरे काम की
झंडी हिला हिला कर
सबका ध्यान हटा रहा है
जिसकी समझ में
आ रहा है वो कह दे रहा है
और पढ़ने वालों की
जम के गालियाँ खा रहा है
‘उलूक’ सत्य क्या है
सोचने पर अभी क्यों
जोर लगा रहा है
सत्य पर प्रयोग जारी है
जब तक कुछ निकल कर
बाहर नहीं आ रहा है
अभी तो बस इतना
समझ में आ रहा है
भैंस के चारों तरफ
शोर हो रहा है
किस की है पता नहीं
चल पा रहा है
क्योंकि
हर कोई एक लाठी
लेकर हवा में
जोर जोर से
घुमा रहा है ।

चित्र साभार: http://pratikdas1989.blogspot.in/2011/04/my-experiments-with-social-service.html